एक सैनिक की मौत
तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त
अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन
सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी
कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है
और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के
अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग
या फिर केवल योग
कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
’शहादत!
बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था
बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?
वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा
एक दूसरे चैनल पर
दोनों दे’शों के म’शहूर ’शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें
तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहा’शा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर
और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम ला’शों
.
.
.
अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
’शाति भी लहू पीती है!
टिप्पणियाँ
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन
सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी
"" बहुत भावपूर्ण रचना, गमगीन कर गयी ये पंक्तियाँ ..."
Regards
aapki ye kavita bahut bhaavpoorn hai ..
isme maanav man ki manodasha to jaahir ki hi gayi hai uske alawa , ye bhi saabit karti hai ki hamaare desh ki basic buniyaaden kitni khokli hai ..
ek sainik ke pariwar ka dukh-dard aapne apne shabdo meinbhar diya hai ,
aur saath hi is desh ki akarmanyath bhi show ki hai .
aapko bahut bahut badhai
regards
vijay
विगत तीन दिनों में जाने कितनी बार इस कविता को पढ़ गया हूँ अशोक जी। बहुत कुछ अपना-सा है। कुछ अलग सा भी है. जैसे कि कवि का ये कहना "बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है"....शाय्द एक हद तक कवि सही है अपने दोस्त के बारे में, लेकिन उन बारह दुश्मनों के बीच में जा फँसता कैसे है वो सैनिक-दोस्त। बहादुरी महज दुश्मन को जा मारने में नहीं है,...बहादुरी है ये जानते हुये भी कि वहाँ पर खतरा है, वहाँ पर बारह दुशमन घात लगाये बैठे हैं, फिर भी वहाँ जाना। ये बहादुरी है। जिसे समझाने के लिये तो वो सैनिक-दोस्त जीवित ही नहीं है।
ये कविता रूला गयी मुझे, अशोक जी। अभी भी जब ये कुछ लिखे जा रहा हूँ इतनी रात गये इस सुदूर चौकी पर अपने मोबाइल के लड़खड़ाते सिगनलों के जरिये विग्यान की इस अद्भुत अनुकंपा की बदौलत..आँखें नम हैं।
कविता की प्रति अपने पास सहेज रहा हूँ। कुछ प्रिंट-आउट निकालने की इजाजत चाहता हूँ। यकीन मानिये, आप के नाम के साथ ही प्रिंट-आउट निकलेगा। एक कवि की थोड़ी-बहुत समझ तो है ही, सैनिक होने के बावजूद।
आपके अनुमति की प्रतिक्षा रहेगी।