तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह

(यह कविता काफी पहले ब्लॉग पर लगायी थी ... पर तब ब्लॉग पर इतनी आवाजाही नही थी।)

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें
जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है



ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते



अभी एक सदी भी नही गुज़री
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी
जी रही है ज़हर के सहारे



तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने



तुम जिन्हें दे गए थे
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं

तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल
जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडो के साथ



सब बैचेन हैं
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डराती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं

अवतार बनाने की होड़ में भरे जा रहे हैं
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे

रंग रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है



मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल ?
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह ?


जबकि जानता हूँ
तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है



कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में ?
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने ?



जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है

टिप्पणियाँ

bahut hi behtreen kavita hai kucch sochne ko majbur karti hai aur jhajkorti hai hum kis soch se kis me aagaye kya socha tha aur kya hoo gaya
bahut bahut sukriya aur abhar yaisi kavita prdarshit karne ke liye
समयचक्र ने कहा…
वाह क्या बात है बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना अशोक जी . धन्यवाद.
Sathiya ने कहा…
वाकई अशोक जी आज जहर पर बढती जिंदगी की निर्भरता सोचने पर मजबूर करती है, की किस ओर जा रहे है हम अपनी जवानी को बुढापे की ओर ले जा रहे हैं हम


fazalsathiya@gmail.com
jesi aapki is kavita ne bahut pahle blog par post kar etihasikta dhaaran ki, aaj fir jivant hokar usne itihaas ki smartiyo me ghule is zahar ko vartmaan ke hindistaani parivesh me darshaya/
बेनामी ने कहा…
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है
दिल को छू गयी आपकी कविता....

साभार
हमसफ़र यादों का.......
यह कविता ही नहीं है, एक संपूर्ण वक्तव्य है एक सजग नौजवान का,यह भगतसिंह से बातचीत ही नहीं है, उसी नौजवान का देश की नई पीढ़ी के नाम एक संदेश भी है और आव्हान भी।
neera ने कहा…
सत्य दुखदायक ही नहीं भयानक भी होता है, इस कविता की गहराई और ऊंचाई में यह किस कदर शीशे की तरह साफ़ दिखाई दे रहा है ...अचानक ज़मीर और आत्मा कितना असहाय हो गए हैं!
रजनीश 'साहिल ने कहा…
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल
जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडो के साथ

सब बैचेन हैं
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को...

aksar sochta hoon ashok bhai ki kya koi bacha rahega is bazarwadi rajneeti me istemal hone se ?
Rangnath Singh ने कहा…
आप ने “मुक्तिबोध“ का जिस तरह उत्साह बढाया है उससे बहुत उर्जा मिली है। आप सार्थक कविताएं लिखते हैं। आज कल यह गुण कवियों में दुर्लभ होता जा रहा है।
शुभकामनाओं सहित
बेनामी ने कहा…
firoj1979: bhagat singh par bahut shandar kavita hai. ek bar phir se padane k liye thank u.
तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने

यार अशोक भाई ऐसा क्यों लिखते हो! कसम से मुंडी गाडकर जीने में कितनी तकलीफ होती है तुम जानते ही हो. क्यों बार बार आईना सामने रख देते हो? सच बताउं तुम्हें पढना अपने होने के अहसास को राख से कुरेदकर निकालने की तरह है, जैसे भगत सिंह के बारे में सोचना!
गौतम राजऋषि ने कहा…
पता नहीं कैसे अब तक आपकी लेखनी से वंचित रहा...
अब नहीं।

शब्दों के इन अंगारों को रचने वाले को सलाम!
vijay kumar sappatti ने कहा…
ashok ji

main kya kahun ..

aapki is rachna ne bahut aandolit kar diya hai ..

ye ek poorn kavita hai aur man ko jhakjhorti hui hai ..

desh is waqt jis manostithi me hai ,aisi kavitao ki jarurat hai ..

main aapse bahut kuch seekhna chahta hoon yaar...

bahut jald hum milenge tab is kavita ke liye aapko salaam karunga ..

aapka
vijay
BHAI ZARURAT kisi bheed me shamil hone ki nahin, use niyantran me lekar disha dene ki hai. main janata hun kavita tumhara aashay bhi yahi hai. kavita badhiya hai
sattu patel
bizooka film club
indore
9826091605
प्रदीप कांत ने कहा…
कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में ?
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने ?

जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है

और हम न जाने कब तक
झेलेंगे इसी हिन्दुस्तान को?

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