तुम्हारी दुनिया में इस तरह
सिंदूर बनकर तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूं
न बिछुआ बन कर डस लेना चाहता हूं
तुम्हारे कदमों की उड़ान
चूड़ियों की जंजीर में नहीं जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाईयों की लय
न मंगलसूत्र बन झुका देना चाहता हूं
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
किसी वचन की बर्फ़ में
नही सोखना चाहता तुम्हारी देह का ताप
बस आंखो से
बीजना चाहता हूं विश्वास
और दाख़िल हो जाना चाहता हूं
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आंखों में दाख़िल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाख़िल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाख़िल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाख़िल हो जाती हैं उम्मीदें
टिप्पणियाँ
aap apne andar ki stree ko bahut achchhe se pehhan gye hai ashok ji !
khair iski prerna koun hai ?
agar batana chahe to jarur bataye
साधुवाद
It seems that your Mind & Heart is very true.
What u want to say is very clear.
I must say this is Like "Nari Mukti".
Too good...
If every man thinks like this with true heart there where no need to fight for Womens Liberty...
घुघूती बासूती
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"शब्द-शिखर" पर देखें- "सावन के बहाने कजरी के बोल"...और आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं !!
स्त्री का अस्तित्व लौटाती, सार्थक करती, सम्पूर्णता देती,
हमेशा याद रहनी वाली कविताओं में से एक है.
"हिन्दीकुंज"
इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई ........
namaskar ...
aapki ye kavita bahut hi saartakh hai...stree ke prati aadar darshati hui ,unka maan badathi hui ..aur unhe ek gauravshaali staan deti hui ye rachna hai ..
maatr solah shringaar hi nahi apitu ..ek viswaas aur umeed bhi tiki hoti hai apni stree se ....
aapka ye sandesh ,bahut hi sashakt shabdo me vyakt hua hai ..
aapko bahut abhaar is post ke liye ..
aapka
vijay
कविता की शुरूआती अंश तो गजब का है।
कोकास जी ने जो टिप्पणी की है उस पर ध्यान देते हुए कुछ एडिटिंग कर देंगे तो कविता और भी चुस्त हो जाएगी। खास तौर पर अंत की लाईनें कविता के शरूआती टेंपर से मेल नहीं खातीं।
शानदार कविता के लिए एक बार फिर से बधाई
शरद भाई की सलाह तो पहले ही लागू की जा चुकी है।फिर भी आपकी सलाह पर गौर करुंगा।
आंकाक्षा जी
आप जैसे लोग टिप्पणीयों को मज़ाक बना देते हैं कि एक बार लिखी और कट कापी करके 50 जगह लगा दीं…कारण सब जानते हैं।
या तो गम्भीरता से पढ कर टिप्पणी दें या माफ़ करें। हम 50-60 की दौड मे नहीं।
waise aapki kavita padhkar aisa nahi lagta hai ki aapko koi asuvidha hai...
ब्लाग पर आने के लिये धन्यवाद
मेरे लिये कविता लिखना निरन्तर एकालाप की सुविधा नहीं बल्कि ख़ुद से मुसलसल ज़द्दोज़ेहद की असुविधा है … बस इसीलिये
ak achi soch aur rchna ke liye badhai swekare.
रूढियों और परंपराओं को वाकई "असुविधा" पैदा कर रहे हैं आप...
दृष्टिकोणों में खलबली जरूर मचाएंगे, जो भी इनसे गुजरेगा।
जैसे नींद में दाख़िल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाख़िल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाख़िल हो जाती हैं उम्मीदें
BAHUT BADHIYA ASHOK BHAI