विरूद्ध

नहीं किस-किस के विरूद्ध
कौन सी रणभूमि में निरन्तर कटते-कटाते
संघर्ष रत रोज लौट आते अपने शिविर में
श्रांत-क्लांत रक्त स्वेद मिट्टी में सने
घाव के अनगिन निशान लिये

न जीत के उल्लास में मदमस्त
न हार के नैराष्य से संत्रस्त।



कोई आकस्मिक घटना नहीं है यह युद्ध
न आरम्भ हुआ था हमारे साथ
न हमारी ही किसी नियति के साथ हो जायेगा समाप्त



शिराओं में घुलमिलकर दिनचर्या का कोई अपरिहार्य सा हिस्सा हो ज्यों
बिलकुल असली इन घावों के निशान
लहू बिल्कुल लहू की तरह - गर्म,लाल और गाढ़ा
हथियारों के बारे में नहीं कह सकता पूरे विश्वास से
इससे भी अधिक कठिन है दोस्तों और दुश्मनों के बारे में कह पाना



अंधकार - गहरा और लिजलिजा अंधकार
मानो फट पड़ा हो सूर्य
और निरंतर विस्फोटों के स्फुलिंगों के
अल्पजीवी प्रकाश में कैसे पहचाने कोई चेहरे
बस यंत्रमानवों की तरह-प्रहार-प्रहार-प्रहार



कई बार तो ऐसा लगता है कि
अपने ही हथियारों से कट गिरा हो कोई अंग
अपना ही बारूद छा गया हो दृष्टिपटल पर
अपनी ही आवाज से फट गया हो कर्णपटल
अपना ही कोई स्वप्न भरभराकर गिर पड़ा हो कांधे पर
अपनी ही स्याही घुलमिल गयी हो लहू में
अपना ही कोई गीत बदल गया हो चीत्कार में ...



इस लिजलिजी अंधेरी दलदल में अमीबा की तरह तैरते विचार
जितनी कोशिश करो पकड़ने की उतने ही होते जाते दूर
और पांव है कि धंसता ही जा रहा है
गहरा - और गहरा- और गहरा



किस दिशा में जा रहा है यह समय रथ?
कौन इसका सारथी?
किस रंग की इसकी ध्वजा?
कुछ नहीं - कुछ भी नहीं दीखता स्पष्ट हम स्वघोषित सेनानियों को



लड़ रहे हैं -
बस लड़ रहे हैं अनवरत नियतिबद्ध या कि शायद विकल्पहीन

‘लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खा़मोश
लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं
लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन
लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक’

प्रश्न तो लेकिन यही है - जीत आखिर कौन सी है?
और ऐसे में बतायें आप ही अब

किस तरह लायें उम्मीद कविता की आखिरी पंक्तियों में?

टिप्पणियाँ

बोधिसत्व ने कहा…
लड़ो और मस्त रहो
डॉ .अनुराग ने कहा…
याद नहीं अशोक जी पर बहुत पहले कही पढ़ी थी एक कविता.....उसकी कुछ पंक्तिया थी....
"हर कोई लड़ता है एक युद्घ
कोई निकारगुहा के लिए
कोई एक वक़्त की रोटी के लिए.......

कुल मिलाकर रोज एक दिन जिजीविषा है.... कविता अद्भुत है
varsha ने कहा…
aap bhi to lad hi rahe hain ek kavita ke zariye....yahi umeed hai.
विजय गौड़ ने कहा…
कौन और किसके विरूद्ध लड़ रहा है यहां, दिखता नहीं।
विकल्पहीनता में तो शायद लड़ा ही न जा सके। विकल्प के बिना लड़ने की ललक कैसे पैदा होगी?
लड़ेगा वही जो जो जान जाएगा कि लड़े बिना अब रहा जा सकता नहीं।
neera ने कहा…
इसे पढ़ मेरे अंतर्द्वंद की लड़ाई ज्यादा सक्रिय हो गई है.... आस-पास फैले और निगलते विषाद को आपके शब्दों ने पाठकों की आत्मा पर उतारा है.....

कई बार तो ऐसा लगता है कि

अपने ही हथियारों से कट गिरा हो कोई अंग

अपना ही बारूद छा गया हो दृष्टिपटल पर

अपनी ही आवाज से फट गया हो कर्णपटल

अपना ही कोई स्वप्न भरभराकर गिर पड़ा हो कांधे पर

अपनी ही स्याही घुलमिल गयी हो लहू में

अपना ही कोई गीत बदल गया हो चीत्कार में ...


लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खा़मोश

लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं

लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन

लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक’
जीवन के लिए बहुत संकट हैं। लड़े बिना कोई कैसे जी सकता है?
Bahadur Patel ने कहा…
gahare avasad ki kavita hai.
mehanat se likhi gayi hai.
ladana hamari jarurat hai.
कई बार तो ऐसा लगता है कि अपने ही हथियारों से कट गिरा हो कोई अंग अपना ही
hame apane hi bhitar ka mavad pahale nikalana hoga.
nahin to ang to katega hi aur apane hi hathiyar se.
sankat bada hai isake parinamder se ayenge.
kavit bhaukata me likhi hai.kuchh kat chhant isame bhi karani hogi.
अपूर्व ने कहा…
शायद यही शाश्वत संघर्ष ही मानव जीवन का प्रारब्ध भी है और अपूर्णता भी..मोहरे बदलते रहते हैं..खेल जारी रहता है..अनवरत्‌....
आभार!
शरद कोकास ने कहा…
अच्छी कविता है । लड़ने का जोश इसमें मुखर है और यह स्पार्टकस से लेकर अब तक के पूरे वितान में स्थितियो की अनदेखी न करते हुए एक रास्ते की तलाश में आगे बढती है । इसकी स्थूलता भी अनिवार्य सी प्रतीत होती है ।
vijay kumar sappatti ने कहा…
ashok ji

deri se aane ke liye maafi ..

maine ab tak is kavita ko 3 baar padha hai aur hamesha ki tarah awaak rah gaya hoon.. aapne shabdo ke jariye itna accha chitr banaya hai ki , mere paas koi shabd nahi hai tareef ke liye .. this is most amazing poem of yours. ...

badlaav bahut jaruri hai . jab main shuru me communision ke baare me kahta tha ..to log meri soch par hanste the . lekin ... communisiom ka wo jo work hai agar wo sahi tarike se kiya ja sake to ... is tarah ki gahari baato se door honge hum ..

aapki is kavita ne jagaane ka kaam kiya hai .. pls ise print me deve..

is post ke liye meri badhai sweekar kare..

dhanywad

vijay
www.poemofvijay.blogspot.com
Ashok Kumar pandey ने कहा…
आप सभी का शुक्रिया

विजय भाई…सच है कि विकल्प न हो तो लडे कौन?
पर हमारे समय में ऐसा सरलीकृत माहौल नहीं है। सच में पता नहीं चल रहा कि कौन किससे लड रहा है…इस लडाई में लगे किसी को भी विकल्प पर पूरा भरोषा है मुझे नहीं लगता…ऐसे में कमज़ोर लोग लडते रहते हैं और मज़बूत लोग लगे रहते हैं। पर सवाल केवल मज़बूत होने भर का भी नहीं है।

जिनके पास संवेदना है, उनके मन में सवाल उठते हैं…शंकायें होती हैं…पस्ती भी…आप इसके लिये कोई और बुरा विशेषण ढूंढ सकते हैं…पर होता है कामरेड ऐसा भी होता है।
आदरणीय अशोक जी,
नमस्‍कार
सभी कविताएं उम्‍दा हैं. कविता 'एक सैनिक की मौत' भी उल्‍लेखनीय हैं. मेरी बधाई स्‍वीकारें विशेषकर इन काव्‍य पंक्तियों के लिए -
''अजीब खेल है कि
वजीरों की दोस्ती प्यादों की लाशों पर पनपती है
और जंग तो जंग’ शाति भी लहू पीती है!'

-प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
गौतम राजऋषि ने कहा…
आज बहुत दिनों पे चैन से कुछ पढ़ने बैठा तो आपकी याद आयी...

"शिराओं में घुलमिलकर दिनचर्या का कोई अपरिहार्य सा हिस्सा हो ज्यों..." मैं नहीं जानता किस तरह से और कैसे डूब कर आप ये सब कुछ देख पाते हो और फिर उतना ही डूब कर उसे कागज पे उकेर भी देते हो, कुछ अजीब-सा हो जाता हूँ मैं हर बार आपकी इन, ऐसी कविताओं को पढ़कर...

अभी बेहतर हूँ...टाँकें खुल गये हैं, लेकिन हास्पिटल में अभी रखेंगे कुछेक दिन और।

ये पंक्तियां बहुर दिनों तक साथ रहने वाली हैं "लड़ रहे हैं - बस लड़ रहे हैं अनवरत नियतिबद्ध या कि शायद विकल्पहीन लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खा़मोश लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक’ प्रश्न तो लेकिन यही है - जीत आखिर कौन सी है?"
रजनीश 'साहिल ने कहा…
ashok bhai,
apne link bheji par fir bhi padhne me samay laga diya iske liye mafi chahunga.
Baharhaal kavita nishchay hi bahut achchhi ban padi hai. ummeed lane ka prishn bhi theek-thaak hi hai, par jawab itna mushqil nahi ki talasha na ja sake, bhale hi kavita ke itar hi.
khair ye alag disha me chala jaunga agar zari raha to......
kavita ke sandarbh me kahu to kavita ke achchhe hone ke alawa ek aur baat ki bhi tarif karni hogi. wo hai aapki nayi bhasha. kam-se-kam maine to is nayi bhasha aur shilp me aapki pahli hi kavita padhi hai, apka parishram spasht jhalakta hai.
‘लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खा़मोश

लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं

लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन

लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक’

एक और उम्दा कविता....
ओम आर्य ने कहा…
बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,

इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य
sandhyagupta ने कहा…
Dipawali ki dheron shubkamnayen.
प्रदीप कांत ने कहा…
एक और उम्दा कविता....

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