चाय, अब्दुल और मोबाइल



(कोई तीन साल पहले यह कविता कथन में छपी थी। आज इसे संकलन तैयार करते हुए दुबारा पढा तो लगा आप सब से शेयर करना चाहिए)

रोज़ की तरह था वह दिन
और दफ़्तर भी चेहरों के अलावा
कुछ नहीं बदला था जहां
वर्षों से थके हुये पंखे
बिखेर रहे थे ऊब और उदासी
फाईलें काई की बदरंग परतों की तरह बिखरीं थीं बेतरतीब
अपनी अपार निष्क्रियता में सक्रिय आत्माओं का सामूहिक वधस्थल।


रोज़ की तरह घड़ी की सुईयों के एक खास संयोग पर
वर्षों के अभ्यस्त पांव
ठीक सताइस सीढ़ियों और छियालिस क़दमो के बाद
पहुंचे अब्दुल की दुकान पर
चाय पीना भी आदत थी हमारी ऊब की तरह!
रोज़ की तरह करना था उसे नमस्कार
रोज़ की तरह लगभग मुस्कुराते हुये कहना था हमें- पांच कट
फिर जुट जाना था कुर्सियों और अख़बार के जुगाड़ में
रोज़ की तरह जताना था अफ़सोस बढ़ती क़ीमतों पर
दुखी होना था बच्चों की पढाई से बीबी की बीमारी
और दफ़्तर की परेशानियों से देश की राजनीति तक पर
तिरछी निगाहों से देखते हुये तीसरे पेज़ के चित्र
कि अचानक दाल में आ गये कंकड़ सी
बिख़र गई एक पालीफ़ोनिक स्वरलहरी !




हमारी रोज़ की आदतों में शामिल नहीं था यह दृश्य
उबलती चाय के भगोने को किसी सिद्धहस्त कलाकार की तरह
आंच के ऊपर नीचे नचाने
और फिर गिलासों में बराबर बराबर छानने के बीच
पहले कविता पाठ में उत्तेजित कवि सा बतियाता अब्दुल
सरकारी डाक्यूमेण्टरी के बीच बज उठे सितार सा
भंग कर रहा था हमारी तंद्रायें

चौंकना सही विशेषण तो नहीं
पर विकल्प के अभाव में कर सकते हैं आप
उस अजीब सी भंगिमा के लिये प्रयोग
जो बस आकर बस गयी उस एक क्षण में हमारे चेहरों पर
और फिर नहीं रहा सब कुछ पहले सा
बदल गये हमारी नियमित चर्चाओं के विषय

पहली बार महसूस किया हमने
कि घटी क़ीमतें भी हो सकती हैं दुख का सबब!
हमारी कमीज़ की ज़ेबों में
सम्मानसूचक बिल्लों से सजे
मोबाईल की स्वरलहरियों से झर गया सम्मोहन...
मानो हमारे ठीक सामने की छोटी लकीर
अचानक हुई हमारे बराबर-और हम हो गये बौने
हालांकि बदस्तूर ज़ारी है हमारा
सताइस सीढ़ियों और छियालिस क़दमो का सफ़र
अब भी रोज़ की तरह अब्दुल करता है नमस्कार
पहले सा ही है पत्ती-शक्कर-दूध-अदरक का अनुपात
पर कप और होंठों के बीच मुंह के छालों सा चुभता है
मोबाईल पर चाय के आर्डर लेता अब्दुल

आजकल हम सब कर रहे हैं इंतज़ार
कैमरे वाले मोबाईल के भाव गिरने का !

टिप्पणियाँ

मध्यमवर्गीय मानसिकता की विस्तार से पड़ताल करती एक महत्वपूर्ण कविता...

आपका कवि अंतस से बातचीत करता है...
neera ने कहा…
एक आम से, रोज़मर्रा के दिन के साथ - साथ, आम आदमी के यथार्थ से जुडी सम्वेदनाएँ छलकती हैं शब्दों में ... एक अच्छे कवि की पहचान यही है की वह वो सब देखने और पकड़ने में समक्ष है जिसे और सब देख कर अनदेखा कर देते हैं ....
ख़त्म हो चुका है इंतज़ार आजकल कैमरेवाले मोबाइल के भाव गिर गए हैं!
विजय गौड़ ने कहा…
अशोक एक अच्छी कविता है। सच में अच्छी कविता। ऎसी कि इसे किसी व्याख्या की भी जरूरत नहीं। समय जब रचना में दर्ज हो रहा हो तो मुझे वह रचना भाने लगती है। इसमें भी वह खूबी है। संग्रह की तैयारी जारी है, यह तो अच्छी खबर है। शुभकामनाएं।
बेनामी ने कहा…
तकनालाजी का विकास ही सच में सबसे बड़ी क्रांति है, इसने उन सुविधायों को भी आम कर दिया जो कभी उच्च वर्ग की बपौती समझी जाती थी पर ये भी सच है इस पर पूजीवाद के कब्जे ने उच्च वर्ग को विलासता और शोषण के वो साधन मुहैया करवाए हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ..... खैर मध्यम वर्ग परेशानी में है, जिस भी सुविधा को वो स्टेटस सिम्बल बनाना चाहता है (जीने में कुछ रंग भरने का उसे यही एक तरीका नजर आता है) वो जल्द ही पूरे स्टेट में लगभग सबके पास जरुरत के रूप में होती है (कम से कम उनके पास तो होती ही है जिनसे वो दिन में दो-चार होता है) ..... अब क्या करे वो, शायद इसी लिए वो वक्त का सबसे बड़ा खरीदार है
Rangnath Singh ने कहा…
अच्छी कविता है। संग्रह के लिए शुभकामनाएं।
प्रदीप कांत ने कहा…
मोबाइल रखना बेचारे अब्दुल की मजबूरी है स्टेटस सिम्बोल नहीं. ये और बात है कि अब्दुल का यही मोबाइल हमारे मध्यम वर्गीय मानसिकता को चुभता है.

अच्छी कविता.

और हाँ, केमरे वाले मोबाइल आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं.
गौतम राजऋषि ने कहा…
आपकी कविता पढ़ लेने के बाद बड़ा कठिन होता है मेरे लिये अपनी भावनाओं को यहाँ इस टिप्पणी-बक्से में उकेरना। इसलिये पहली मरतबा तो बस आकर चुपचाप पढ़ कर खिसक लेता हूँ...फिर-फिर आता हूँ सहज हो पढ़ने।

कविता पे लिखूं कि कविता में वर्णित घटना-विशेष पर, ये उलझन भी रहती है हमेशा आपकी कविताओं को पढ़ने के बाद...क्योंकि जैसा कि एक बार और भी लिखा था मैंने आपकी ही एक कविता पर कि ये तमाम घटनायें हम भी देखते हैं, महसूसते हैं लेकिन आपकी कविता हर बार हमारे देखने-महसूसने में कमी का अहसास करा देती है---हर बार!

सच कह रहा हूँ, अशोक जी!

एक और कविता आपकी, दिल को परतों-परतों छूती हुई...शायद इससे पहले किसी और कविता-संकलन की इतनी बेताबी से प्रतिक्षा नहीं की है मैंने, जितनी अब कर रहा हूँ।
varsha ने कहा…
सताइस सीढ़ियों और छियालिस क़दमो का सफ़र

अब भी रोज़ की तरह अब्दुल करता है नमस्कार

पहले सा ही है पत्ती-शक्कर-दूध-अदरक का अनुपात

पर कप और होंठों के बीच मुंह के छालों सा चुभता है

मोबाईल पर चाय के आर्डर लेता अब्दुल

nahin chubhna chahiye ...lekin chubhta hai.jane kyon is kavita mein aur gahre utarne ko ji chahta hai. desh,siyasat mazhab aur ham....
BHAV TO GIR CHUKA HAI AB
HAR TARAH KE ABHAAV KA.
शरद कोकास ने कहा…
हाँ यह कविता "कथन" मे मेरी पढ़ी हुई है
मोबाइल पर चाय का ऑर्डर लेता अब्दुल से याद आया । इस नये आर्थिक परिवेश से जबरन सामंजस्य स्थापित करते हुए मध्यवर्ग का यह चित्रण है ।
अच्छी कविता है
Urmi ने कहा…
बहुत सुंदर और शानदार कविता लिखा है आपने ! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
रजनीश 'साहिल ने कहा…
Ashok Bhai,
Bhale hi 3 saal pahle likhi ho ye kavita, par aaj ke sandarbh me aur bhi satik hai.

uffff... kis kadar haavi hai ye bazaar !
Pawan Kumar ने कहा…
accha hai dear.......keep it up!
भाई मेरी भी बधाई स्‍वीकारें...
खासकर इन पंक्तियों के लिए
''फाईलें काई की बदरंग परतों की तरह बिखरीं थीं बेतरतीब
अपनी अपार निष्क्रियता में सक्रिय आत्माओं का सामूहिक वधस्थल।''
हरकीरत ' हीर' ने कहा…
सबसे पहले संकलन आने की बधाई अशोक जी .....इतने आसान नहीं होते ये संकलन छपवाने ....इन्तजार रहेगा ....!!



हमारी रोज़ की आदतों में शामिल नहीं था यह दृश्य

उबलती चाय के भगोने को किसी सिद्धहस्त कलाकार की तरह

आंच के ऊपर नीचे नचाने

और फिर गिलासों में बराबर बराबर छानने के बीच

पहले कविता पाठ में उत्तेजित कवि सा बतियाता अब्दुल

सरकारी डाक्यूमेण्टरी के बीच बज उठे सितार सा

भंग कर रहा था हमारी तंद्रायें



आपकी लेखनी तो कमाल ही करती है बस ...आपने तो पूरी डाक्यूमेण्टरी फिल्म बना दी अपने आफिस की .....बधाई ...!!
कुश ने कहा…
वाकई कमाल लिखा है आपने..
M VERMA ने कहा…
पहली बार महसूस किया हमने
कि घटी क़ीमतें भी हो सकती हैं दुख का सबब!'
वाह! शुरू से आखिर तक सूक्ष्म निरीक्षण और फिर उस मर्म को महसूस करना.
वाकई अद्भुत है यह आपकी रचना
अपने आप से बात करती सुंदर कविता।
रंजू भाटिया ने कहा…
दिल की बात कहती सुन्दर कविता ..खुद से बात चीत करती लगती है शुक्रिया
Himanshu Pandey ने कहा…
बेहद खूबसूरत कविता । बहुत से इशारे देती कविता ।
आभार ।
अब भी रोज़ की तरह अब्दुल करता है नमस्कार

पहले सा ही है पत्ती-शक्कर-दूध-अदरक का अनुपात

पर कप और होंठों के बीच मुंह के छालों सा चुभता है

मोबाईल पर चाय के आर्डर लेता अब्दुल


आजकल हम सब कर रहे हैं इंतज़ार

कैमरे वाले मोबाईल के भाव गिरने का !
ज़िन्दगी के बहुत से पन्ने समेटे हुये हर इन्सान से जुडे य्थार्थ को साथ ले कर चलती कविता शब्द प्रवाह हमे बहाये ले जा रहा था बहुत ही उम्दा रचना है बधाई
Smart Indian ने कहा…
बहुत खूब - यही ज़िंदगी है.
आपका अंदाज़े बयां दिलकश है...छोटी सी घटना के माध्यम से बहुत गहरी बात करने की कला खूब आती है आपको...वाह...
नीरज
तीन साल के नजरिये से देखा जाय तो मध्यमवर्गीय हसरत का बढ़िया नमूना है !!

बाकी भाव तो रोज के रोज गिरते जा रहे हैं पर हसरतें कहाँ गिरती हैं ????
शोभित जैन ने कहा…
bahut badhiya...
behtareen kavita
यथार्थवादी सुन्दर कविता.
"अर्श" ने कहा…
बहुत आसान नहीं होता घटित विषय को शब्दों में ढालना और वो
भी कविता जैसे शब्दों में और इस तरह से ताजगी और नफीसी के साथ
कविता वाकई बेहद खुबसूरत बनी है ... आपकी संकलन आरही है
इंतज़ार करूँगा ... बढ़ाई इस खुबसूरत कविता के लिए...


अर्श
साधना वैद ने कहा…
बहुत सुन्दर रचना है । अपनी लकीर सदैव ऊँची रखने की मध्यमवर्गीय मानसिकता और उस ऊँचाई से नीचे फिसल जाने के डर को बड़ी खूबी से शब्दों में बाँधा है आपने । ऑफिस कल्चर की निष्क्रियता में सक्रियता को भी बहुत सधे हुए ढंग से चित्रित किया है । मेरी बधाई स्वीकार करें ।
sandeep sharma ने कहा…
bahut hi khoobsurat kavita...
मुकेश ने कहा…
ऐसी घटना को कौतुहल और हंसी-मज़ाक का विषय बनते तो देखा है लेकिन इससे कोई दुःखी हो जाता हो ऐसे घटिया मध्यवर्ग के दर्शनों से अभीतक वंचित थे। लेकिन शायद वह है!!!
Ashok Kumar pandey ने कहा…
आप सबका आभार

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