मै कलमा पढ़कर सुरैया नही बनना चाहती
( यह कविता गुजराती की मशहूर कवियत्री और सामाजिक कार्यकर्ता सरूप बेन की है। इसे गुजराती से हिन्दी में अनुदित मैंने किया है...बाकी तो बात ही बोले तो बेहतर )
क्या है वज़ह मेरे जीने की
नहीं
मै क़लमा पढकर सुरैया नहीं बनना चाहती
कि इस देश की तमाम सुरैया, फ़ातिमा, शहनाज़ या अमीना से
अलग नहीं मैं, असंबद्ध नहीं,जुदा नहीं
जब-जब इस देश के दुःशासनों के हाथों
सरेआम खींचा जाता है उनका दुपट्टा
मै निर्वस्त्र हो जाती हूं
जब-जब हिंस्त्र पशु छूते हैं उनकी देह
मसलते हैं, उधेडते हैं
चींथते हैं, रौदतें हैं, चूसते हैं
जबरन करते हैं प्रवेश
तार-तार कर लहूलुहान कर डालते हैं
तब-तब मैं भी घायल होती हूं
उन सैकडों हज़ारों सांप्रदायिक अष्त्रों से
जब-जब चीरकर सगर्भाओं के पेट
ये बाहर खींच लाते हैं मानवजाति का बीज
तब-तब मैं भी कट जाती हूं
उजड जाती हूं और नष्ट हो जाती हूं समूल
जब-जब गैस के सिलिण्डर
अन्नपूर्णा से नरभक्षी पशु बन जाते हैं
तब-तब मै भी जार-जार हो जाती हूं
भष्मीभूत, राख-झडती हुई राख
जब-जब अनाथ बच्चे कलपते हैं दूध के लिये
तब-तब मेरी छाती छलकती है इन सबके लिये
जब-जब ये लोग तलवार, कुल्हाडी या आरी से चीर डालते हैं
रहमान, सुलेमान,इरफ़ान,अमान या इमरान को
तब-तब सूना हो जाता है मेरा आंचल, बिस्तर ख़ाली
और मेंहदी भरे हाथों से रंग के साथ-साथ
उतर जाती है मेरी त्वचा भी
मेरे अहमदाबाद के
शाहपुर,दरियापुर,ज़ुहापुरा,ज़ार्डनरोड
बेहराम्पुरा और आलमपुरा से लेकर
बडोदा के हालोल, चांपानेर, पानवड, गोधरा तक
सुलग रही है पूरी पूर्वी पट्टी
फिर क्या वज़ह बचती है मेरे जीने की?
सब्र करो
तुम क्यों मरोगे कवि
तुम्हारा तो नहीं हुआ सर्वनाश
किसी सुरैया, सलमान या शाहपुर की तरह
तुम तो सरूप हो ना-- सरुपबेन योगेशभाई ध्रुव
सुख ही सुख हैं तुम्हें
इतनी बढिया सुविधा मिली है जीने और लिखने की
फिर इतना तो करो कम से कम
सुरैया, सलमान और शाहपुर के भविष्य की सुरक्षा के लिये
अब तो उठाओ हाथों में क़लम हथियार की तरह
कवि! कहो…हो तैयार!
टिप्पणियाँ
kavita sashkt haen agar original padhna aata to keh saktey anuvaad achcha yaa bura haen par hindi prastuti behtar haen yae kehsatae haen , bandh kar raktee haen
महत्वपूर्ण कविता है।
अनुवाद में कहीं शब्दों का संग्यावाचक अतिवाद दिखता है. हो सकता ये वास्तविक संवेदना की मांग हो तभी तो कविता खुल कर बाहर आई है.
अन्नपूर्णा से नरभक्षी पशु बन जाते हैं
तब-तब मै भी जार-जार हो जाती हूं
भष्मीभूत, राख-झडती हुई राख
जब-जब अनाथ बच्चे कलपते हैं दूध के लिये
तब-तब मेरी छाती छलकती है इन सबके लिये
नतमस्तक हूँ ......!!
कविता बात तो कह रही है जो कहना चाहती है और बड़े तेवर से कह रही है झकझोरती हुई पूरे वजूद को.....लेकिन कहीं कोई लय, कोई प्रवाह है जो टूट रहा है, जो इस पूरे तेवर को कविता होने से रोक रहा है। शायद इसलिये मैं खुद को विदेशी कविता या अन्य भाषाओं की कविता को पढ़ने से रोकता हूँ...एक तो हिंदी में ही इतना कुछ पढ़ने को शेष है और फिर शायद अनुवाद कविता का असल प्रवाह खो देते हैं....।
"कवि! कहो…हो तैयार!"-इस उठापटक के लिए ?