जिनके बदले लिखा जा सकता है सिर्फ़ एक शब्द – समझौता
परिचय
यहां दर्ज़ करना है अपना नाम
वे डिग्रियां जिन्हें पलट कर भी नहीं देखा वर्षों से
विस्तार से देनी है जानकारी उस दफ़्तर की
जिसमें घुसते ही
यहां दर्ज़ करना है अपना नाम
वे डिग्रियां जिन्हें पलट कर भी नहीं देखा वर्षों से
विस्तार से देनी है जानकारी उस दफ़्तर की
जिसमें घुसते ही
थोड़ा और छोटा हो जाता हूं मैं
पता लिखना है उस घर का
जिसके लिये गिरवी पड़े हैं
मेरी ज़िन्दगी के बीस साल
यहां दर्ज़ करनी है एक जाति
जिसके दांतों पर लहू है हज़ार बरस पुराना
एक धर्म – जिसे वर्षों पहले कर चुका जीवन से बहिष्कृत
लिखना है एक देश का नाम
जो कभी हो ही नहीं सका मेरा
पता लिखना है उस घर का
जिसके लिये गिरवी पड़े हैं
मेरी ज़िन्दगी के बीस साल
यहां दर्ज़ करनी है एक जाति
जिसके दांतों पर लहू है हज़ार बरस पुराना
एक धर्म – जिसे वर्षों पहले कर चुका जीवन से बहिष्कृत
लिखना है एक देश का नाम
जो कभी हो ही नहीं सका मेरा
यहां दर्ज़ करनी हैं तमाम ऐसी कार्यवाहियां
जिनके बदले लिखा जा सकता है
सिर्फ़ एक शब्द – समझौता!
एक तस्वीर चिपकानी है
सबसे अस्वाभाविक मुद्रा में
एक तिथि लिखनी है उस घटना की
जिसके लिये कतई ज़िम्मेदार नहीं मैं
कितना कठिन है
इन सबके बाद
कविता लिखने वाले हाथों से
एक अजनबी भाषा में
दर्ज़ करना अपना हस्ताक्षर
टिप्पणियाँ
जब भी, जब कभी भी इधर-उधर कविता के नाम कुछ अनर्गल रचनायें पढ़ लेने के बाद कविता पर से मेरा भरोसा डगमागाने लगा है, मेरे कुछ प्रिय लोग ऐसी रचना लेकर आ जाते हैं{अक्सर, हर बार} कि कविता में फिर से विश्वास लौट आता है। आप उन कुछ प्रिय लोगों में है अशोक भाई।
कविता को इसी हूंकार, इसी तेवर की दरकार है अपनी पहचान बनाये रखने के लिये।
कितना कठिन है
इन सबके बाद
कविता लिखने वाले हाथों से
एक अजनबी भाषा में
दर्ज़ करना अपना हस्ताक्षर
aadmi, shayad kuchh tukdon ka gatthar hi rah jata hai.
इन सबके बाद
कविता लिखने वाले हाथों से
एक अजनबी भाषा में
दर्ज़ करना अपना हस्ताक्षर
kavita achchi hai...aur ye panktiyan khaas hain.
मैं आपकी लेखनी के आगे नतमस्तक हूँ .. इस कविता को सुबह से करीब १०-२० बार पढ़ चूका हूँ .. मन अशांत सा हो गया है ... आपने पूरे जीवन की किताब को खोलकर एक भयानक सी सच्चाई को सामने ले आये है ... हम सब आखिर किस RAT RACE में है ...खुद को ही भुला बैठे है और बेकार की चीजो में अपनी पहचान ढूंढते रहते है और बनाये रखते है .. मैं बहुत कुछ सोचा था लिखने के लिए ,लेकिन लिख नहीं पा रहा हूँ.. बहुत बरसो के बाद कुछ ऐसा पढ़ा की रुक सा गया हूँ , आज सोच रहा हूँ की SOUL SEARCH की जाए और अपनी पहचान को फिर से ढूँढा जाए ...
मेरा सलाम काबुल करे इस अद्बुत लेखनी के लिए ...
आपका
विजय
फर्स्ट और फोर्थ पैराग्राफ तो आपबीती लगी...
इतनी ऊँची कविता से वास्ता भी कम ही पड़ता है...
यह कविता कहाँ कवि का सर्वकालीन हस्ताक्षर है...
अंतिम पैरे बस मन को समझ आ रही है मैं शब्दों में नहीं ढाल पा रहा...
कितना कठिन है
इन सबके बाद
कविता लिखने वाले हाथों से
एक अजनबी भाषा में
दर्ज़ करना अपना हस्ताक्षर
कविता लिखने वाले हाथों में कविता का कौतुक और जादू हमेशा बना रहे ..
जो सोचने को विवश कर देती है।
"एक तिथि लिखनी है उस घटना की
जिसके लिये कतई ज़िम्मेदार नहीं मैं"
इस हक़ीक़त को जान लेने के बाद किसी समझौते पर उदास होने से अच्छा है अपनी पूरी ताक़त से समझौते को जितना हो सके अपने पक्ष में तय करें और प्रसन्न रहें। जब कोई भी अपने साथ घटी इस घटना के लिये जिम्मेदार नहीं तो हम सबको अपने जैसा मज़बूर समझकर एकत्व समझें।
जन-जन की पीड़ा को आवाज़ देने वाली रचना ही बड़ी होती है। यह कविता भी तुरंत अपने भीतर पहुँचाती है।
सबसे अस्वाभाविक मुद्रा में
एक तिथि लिखनी है उस घटना की
जिसके लिये कतई ज़िम्मेदार नहीं मैं
Ji haan main jimmedaar nahin us ghatana ke liye. Magar ho jimmedar hai use janate hue bhee main kuchh nahin kar paa raha hoon.
जिसमें घुसते ही
थोड़ा और छोटा हो जाता हूं मैं
पता लिखना है उस घर का
जिसके लिये गिरवी पड़े हैं
मेरी ज़िन्दगी के बीस साल
अशोक जी बहुत दिन महरूम रही इस खुबसूरत नज़्म से ....गौतम जी ने सच कहा आपकी लेखनी विश्वास डगमगाने नहीं देती ......!!
हर पाठक झकझोरित, ठहर ही जाता सारा शोक.
सारा शोक ठहर जाता, सच्चाई सामने आती.
अपना परिचय पाने की चाहत फ़िर गहरा जाती.
कह साधक आती है अचानक/अनायास स्वकीय.
यह रचना है अशोक,अलौकिक,अद्भुत,अविस्मरणीय.
ओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती, रंग-रँगीली शुभकामनाएँ!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ", उर्दू कौन सी भाषा का शब्द है?
संपादक : "सरस पायस"
मैं भी गिरवी रखने जा रही हूँ अपने वे बीस साल जो अभी मैंने देखे ही नहीं ...
वे लम्हे जो अभी जिए ही नहीं ,
हाँ,समय को कायदे से निभा सकूं बिना ज्यादा परेशान हुए या किये...इसी में निकल रही है सांसें ... जिन्हें ज़िन्दगी कह सकते हैं.
बस आप ऐसे ही लिखते रहें और ऐसे ही लिखते रहें और... ऐसे ही लिखते रहें ...
"प्रेम पत्रोँ की जगह आवेदन पत्रोँ ने ले ली है ............. अशोक भाई.
सत्या