किस्सा उस कम्बख्त औरत का


सिलसिला शुरू तो खैर दया से ही हुआ था

उस उदास सी सुबह

जब पहली बार झिझकते कदमो से आयी वह

नम आंखे गड़ाये जमीन पर

और सूनी उंगलियों में फंसी

दुख सी नीली कलम खोलते-खोलते फूट ही पडी आखिरकार

तो जैसे उसका दुख कोलतार सा पसर गया सबके भीतर

कुछ पल के लिए ढीले हो गये नियमों के बंधन

कुछ पल के लिये ठहर गये कागज़ के टट्टू

कुछ पल के लिये हुई आत्माओं में हरकत

हमारे साथ की कुर्सी पर बैठी वह

सहकर्मी बनने से पहले कई दिनों तक रही

हमारे दिवंगत सहकर्मी की हतभागी विधवा











सच मानिये

हम तो बदलना भी नहीं चाहते थे

उसकी मांग की सफ़ेदी सी स्थायी थी हमारी सहानूभूति

लेकिन जो हुआ उसके बाद

क्या करते आप जो होते हमारी जगह?



अभी महीना भी नहीं बीता था पूरा

कि आंखे खिल गईं ओस से धुली जाड़े की सुबहों सी

हम चिताभष्म से सिक्के ढ़ूंढ़ने वाले कंगलों की तरह

ढ़ूंढ़ते रहे उनमे अश्रु और आत्मदया की कतरने

पर वहां धूप से टुकड़े थे आत्मविश्वास के

और उस दिन तो मानो बिज़ली गिरी हमपर

जब किसी चुटकुले पर हंस पड़ी वह ठठाकर

और धुल गया चेहरे से उदासी का आखि़री धब्बा











वैसे गनीमत थी अब भी

और जिंदा था हमारा विश्वास

कि चलो अब हंसी वसी तो कोई कहां तक रोके

पर कम तो नहीं होते आत्मा के साथ शरीर लिपटे शोक चिह्न

उसकी सूनी कलाईयों और एकरंगी साड़ियों से पसीज जाते हम भीतर तक

अपनी पत्नियों को चूमते हुए रात के अंधेरों में

बुदबुदाते मन नही मन ‘ ईश्वर इसे मत दिखाना कभी ऐसे दिन’

अक्सर ख़ुद ही भर देते उनकी मांगो में सिन्दूर

पायल और बिछुए बदलवा दिये वक़्त से पहले ही

बस सोच ही रहे थे अगले बोनस से नई कांजीवरम के बारे में

कि उस दिन दशहरे की छुट्टियों के ठीक बाद

विश्वास ही नहीं हुआ अपनी आंखों पर





...जैसे मांग का सिन्दूर उतर आया हो साड़ी की किनारी पर

और आंसू सज गये हों मध्यमा पर मोती की शक्ल में

चप्पलों पर उग आई थी हील

बाल विजय पताका से लहरा रहे थे कंधो पर

बेतरतीबी कतर दी गई थी भौहों से

और चिबुक के तिल की अनुकृति उभर आई थी उनके बीचोबीच









ठीक उसी पल लगा हमें

कुछ ज़्यादा ही बतियाती है वह दफ़्तर के इकलौते कुंआरे क्लर्क से

ठीक उसी पल दिखा हमें उसकी आंखों में आमंत्रण

ठीक उसी पल खाली-खाली लगी उसकी मेज़

ठीक उसी पल घड़ी पर गयी हमारी निगाह

मत पूछिये कैसी यंत्रणा थी उस एक पल में

ढह गया हमारी आस्था का अंतिम अवलम्ब

और हम रह गये किंकर्तव्यविमूढ़ - अवसन्न







बोनस के पैसे पड़े रहे बैंको में

और झल्लाये पत्लियों पर यूंही

मन किया ढ़ूंढ़ निकाले किसी पुराने बक्से में पड़ी उनकी डिग्रियां

और चिंदी-चिंदी कर उड़ा दें हवा में

बदल दें हर जगह नामांकन

और कहें

दिखाओ तो एक बार कैसे रहोगी जब नहीं रहेंगे हम









मत पूछिये क्या-क्या किया हमने

उसकी सूनी मेज़ पर टिका दिये सारे टट्टू

उसकी क़लम सुनहरा चाबुक हो गयी

जकड़ दिया उसको नियमो की रज्जु से

वह अल्हड़ पुरवा हो गयी

उसके पांवो से बांध दी घड़ी की सुईयां

वह पहाड़ी नदी हो गयी

और क्या करते अब इससे ज्यादा?










और वह है

कि बदलती ही जा रही है दिन ब दिन

बात-बात पर आने लगी है मुस्कुराहट

लाख कोशिशों के बावज़ूद नहीं रोती अब फूट-फूटकर

बस उदासी की एक बदली आकर चली जाती है

बतिया लेती है अब किसी से भी बेधड़क

भाई साहब नहीं सर कहने लगी है अब

दो पहियों पर भागती है आज़ादी से

मजे से खाती है समोसे कैंण्टीन में

कई बार सुना है गुनगुनाते अकेले में



द है चिढ़ सी जाती है कम्बख़्त
शादी के नाम पर ही!

टिप्पणियाँ

डॉ .अनुराग ने कहा…
ये उन लम्बी कविताओं में से है जो अपनी लय नहीं खोती...लिखने वाले की विद्धता का आतंक डराता नहीं...अच्छी लगी..निर्भीक .स्पष्ट ओर थोड़ी खुरदुरी सी....
eklavya ने कहा…
अच्छी है
शरद कोकास ने कहा…
इस विषय पर मैं भी काफी दिनो तक सोचता रहा था और मैने भी ऐसे ही कुछ ऑब्ज़र्वेशंस लिये थे । तुमने यह कविता रचकर बहुत अच्छा काम किया है लेकिन इसे और विस्तार दिया जा सकता है इसलिये कि अभी पुरुषों का एक पक्ष इसमे और आना है जो कवि का अपना पक्ष है ।
varsha ने कहा…
‘ ईश्वर इसे मत दिखाना कभी ऐसे दिन’
अक्सर ख़ुद ही भर देते उनकी मांगो में सिन्दूर
पायल और बिछुए बदलवा दिये वक़्त से पहले ही
बस सोच ही रहे थे अगले बोनस से नई कांजीवरम के बारे ....yah insecurity bahut kuch kahti hai... yoon samucha observation lajawab karta hua.
सागर ने कहा…
अद्भुत ... एकबारगी गद्द्यांश का भरम हुआ... कुछ बेहद आश्चर्यजनक दृश्य दिखाए आपने जो व्यथा में लिपटे थे किन्तु अन्तः सत्य और यथार्थ मैं तब्दील हो गए... मैं विशेष कर दुसरे पैरे को कोट करना चाहूँगा जिसे सुबह से कई बार पढ़ चूका हूँ...

अभी महीना भी नहीं बीता था पूरा

कि आंखे खिल गईं ओस से धुली जाड़े की सुबहों सी

हम चिताभष्म से सिक्के ढ़ूंढ़ने वाले कंगलों की तरह

ढ़ूंढ़ते रहे उनमे अश्रु और आत्मदया की कतरने

पर वहां धूप से टुकड़े थे आत्मविश्वास के

और उस दिन तो मानो बिज़ली गिरी हमपर

जब किसी चुटकुले पर हंस पड़ी वह ठठाकर

और धुल गया चेहरे से उदासी का आखि़री धब्बा

यह कैसा नज़ारा है पता नहीं,
और मन के कौन से द्वार को सहलाकर चला गया...
बहुत ही सुंदर कविता है। एक तरफ पुरुष का निर्लज्ज अहम् चोट पर चोट खा रहा है दूसरी ओर चोट खाई जिन्दगी फिर से जीने के रास्ते तलाश रही है और उन पर बढ़ रही है। सही है जीवन महत्वपूर्ण है। अधिक और सब से अधिक।
neera ने कहा…
कुछ लम्बी है कहीं संगीन है तो कहीं रंगीन, कहीं गंभीर तो कहीं व्यंग... नारी के अनंत रूप और पुरीष के अहम् का उल्लेख एक नये और आधुनिक अंदाज़ में नज़र आया...
Anshu Mali Rastogi ने कहा…
कविता में औरत की स्वतंत्रता पर पुरुष-दंभ का प्रलाप है।
इतनी लम्बी कविता लेकिन इतनी लयात्मक और जिज्ञासा से भरपूर कि अन्तिम पंक्ति तक बांधे रखती है. बधाई.
गौतम राजऋषि ने कहा…
कैसा विचित्र संयोग है अशोक भाई कि आज सुबह ही आपका एक आलेख पढ़ा "समयांतर" में पाल सेमुएल्सन पर और आपके लिखे की तारीफ एक मित्र से करता हुआ अचानक से "असुविधा" पर आ ठिठका...तो इस चमत्कारी लेखनी की एक और बानगी दिख गयी।

गज़ब की कविता है। सब कुछ...जैसे सब कुछ उधेड कर रख दिया इस वैधव्य की तस्वीर्र खींचते हुये आपने और सबसे बड़ी बात कि वो "कविता" जैसी चीज को बरकरार रखते हुये।

" बुदबुदाते मन ही मन ‘ ईश्वर इसे मत दिखाना कभी ऐसे दिन’...." वाली पंक्तियों ने कितने ही करुण रोदन के दृश्य अपने शहीद हुये मित्रों की विधवाओं के समक्ष उत्पन्न हुये मनोभावों की याद दिला गये।

ब्लौग-जगत पर पढ़ी गयी चंद उत्कृष्ठ कविताओं में एक।
अजेय ने कहा…
अरे , पुरुष ?

आईना दिखा दिया भाई......
कल से झेली जा रही बीमारी के कारण सोचा था कि आज बस बिस्तर पर पड़ी पढ़ती हुई निकल जाऊँगी सबको....! मगर ये पढ़ने के बाद रुके नही हाथ...! आपकी वो दाल में नमक के बराबर करती रहना शक़ वाली कविता दिमाग में फीड है... और शायद अब ये भी हो जायेगी....!!

हम असल में कुछ लोगो को उदास ही देखना चाहते हैं, जिससे उन्हे सांत्वना दे कर खुद को दया का पुतला बता सकें। मगर जब वे हमारी अपेक्षा के विपरीत खुश दिखाई देते हैं, तो लगता है कि अपनी दया बेकार चली गई।

आफिस के कुछ किस्से आँखों के आगे से निकल गये...!!

प्रशंसा के लिये शब्द मिलना मुश्किल है यहाँ...!!!
कई दिनों बाद आया...
एक जरूरी कविता छूटी जा रही थी...

इसी के प्रभाव में हूं...
रावेंद्रकुमार:
किस्सा उस कम्बख्त औरत का - लंबी कविता पढ़ने से बचता हूँ - इसे पढ़कर समझने की कोशिश कर रहा हूँ!

अशोक:
जी

रावेंद्रकुमार:
उसका दुख कोलतार सा पसर गया सबके भीतर - प्रभावशाली - अब आगे पढ़ता हूँ -

अशोक:
जी
आराम से पढ़िये लंबी है पर शायद रोचक भी

रावेंद्रकुमार:
कागज़ के टट्टू - प्रयेग अच्छा लगा - सचमुच रोचक है - अब आगे पढ़ता हूँ -
क्या बात है - बुदबुदाते मन नही मन ‘ ईश्वर इसे मत दिखाना कभी ऐसे दिन’ - बहुत चुटीला कटाक्ष - स्वयं पर - अब आगे पढ़ता हूँ -
...जैसे मांग का सिन्दूर उतर आया हो साड़ी की किनारी पर

और आंसू सज गये हों मध्यमा पर मोती की शक्ल में

चप्पलों पर उग आई थी हील

बाल विजय पताका से लहरा रहे थे कंधो पर

बेतरतीबी कतर दी गई थी भौहों से

और चिबुक के तिल की अनुकृति उभर आई थी उनके बीचोबीच - यह वर्णन भी रोचक है - ....

Sent at 12:40 on Sunday
रावेंद्रकुमार:
वह पहाड़ी नदी हो गयी - बहुधा लोग लंबी कविता (विधागत) का मतलब नहीं समझते - यह तो सचमुच "लंबी कविता" है! - ..........

अशोक:
शुकिया
आपका अनुशीलन प्रभावी है

रावेंद्रकुमार:
मज़ा आ गया -
हद है चिढ़ सी जाती है कम्बख़्त

शादी के नाम पर ही! - अंत भी बहुत बढ़िया है!
आपने बहुत मेहनत और सूक्ष्म विश्लेषण के बाद इसे रचा है!
मुझे बहुत ख़ुशी हुई!
कविता के साथ अब क्या कमेंट दूँ - समझ नहीं पा रहा?

आप तो नि:शब्द हो गए - कुछ कहिए - इस वार्ता को ही कमेंट में दे रहा हूँ!
प्रदीप कांत ने कहा…
स्त्री की स्वतंत्रता और उसमे उसकी प्रसन्नता

पुरुष मानसिकता को चोट नहीं पहुँचेगी तो और क्या होगा?


बेहतरीन ....

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