उम्र से अधिक दिखना औक़ात से अधिक दिखना होता है क्या?



(गीत चतुर्वेदी अपनी पीढ़ी के मेरे सबसे प्रिय कवियों में है। उसकी कवितायें बोलती हैं और वह अक्सर चुप रहता है। खोजने वाले उस पर तमाम लोगों का असर खोज सकते हैं पर मुझे उसमें एक ऐसी विशिष्ट मौलिकता दिखती है जिसके सहारे कोई उसकी कवितायें बिना नाम के भी पहचान सकता है। अभी राजकमल से उसका संकलन आया है आलाप में गिरह…कीमत है २०० रुपये। यहां कवर पेज़ और संकलन से तीन कवितायें)

(1) ’ मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और अपनी नस्ल का शुरुआती जूता ’

राजकुमारी महल के बाग़ में विचर रही थीं कि एक कांटे ने उनके पैरों के साथ गुस्ताख़ी की और बजाय उसे दंडित करने के राजकुमारी बहुत रोईं और बहुत छटपटाईं और बड़े जतन से उन्हें पालने वाले राजा पिता तड़पकर रह गए और महल के गलियारों और बार्जों में खड़े हो धीरे-धीरे बड़ी हो रही राजकुमारी के पैरों से किसी तरह कांटा निकलवाया और हुक्मनामा जारी करवाया कि राज्य में कांटों की गुस्ताख़ी हद से ज़्यादा हो गई है और उन्‍हें समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी जाए पर योजनाओं के असफल रहने और मुहिमों के बांझ रह जाने की शुरुआत के रूप में ढाक बचा और ढाक के तीन पात बचे तो राजा ने आदेश दिया कि सारे राज्य की सड़कों और महल के पूरे हिस्से की ज़मीन पर फूलों की चादर बिछा दी जाए पर चूंकि फूल बहुत जल्दी मुरझा जाते हैं सो यह संभव न हुआ तो राजा ने अपने एक भरोसमंद मंत्री को इसका इलाज निकालने की जिम्मेवारी दी तो उस मंत्री ने बजाय सारी ज़मीन पर फूल बिछाने के राजकुमारी के पैरों पर ध्यान जमाया और नर्म कपड़े की कई तहों को चिपकाकर मोटी.सी कोई चीज़ बनाई और राजकुमारी को पहना दी जिसके पार कांटा क्याए कांटे का बाप भी नहीं पहुंच सकता था और इस तरह एक आदिम जूते का निर्माण हुआ हालांकि जूतेनुमा एक चीज़ बनाने वाले उसे मंत्री कि़स्म के मानव ने राजकुमारी कि़स्म की किसी महिला के पैरों को कांटों से बचाने के लिए इलाज ढूंढ़ने से पहले ख़ुद भी कई बार कांटों को भुगता था और दूसरे तमाम लोगों के भी कांटा चुभते देखा था पर नौकर की जमात का वह व्यक्ति मात्र स्वामिभक्ति के पारितोषिक के लिए ही जूता बना पाया


(१९९८)


() ’ मुंबई नगरिया में मेरा ख़ानदान

पिता पचपन के हैं पैंसठ से ज़्यादा लगते हैं
पच्चीस का भाई पैंतीस से कम का
क्या इक्कीस का मैं तीस-बत्तीस का दिखता हूं


मां-भाभी भी बुढ़ौती की देहरी पर खड़े
बिल्‍कुल छोटी भतीजी है ढाई साल की
लोग पूछते हैं पांच की हो गई होगी


पता नहीं क्या है परिवार की आनुवंशिकता
जीन्स डब्ल्यूबीसी हीमोग्लोबीन हार्मोन्स ऊतक फूतक सूतक
क्या कम है क्या ज़्यादा


धूप में रखते हैं बदन का पसीना
या पहले-चौथे ग्रह में बैठे वृद्ध ग्रह का कमाल
चिकने चेहरों से भरी इस मुंबई नगरिया में
मेरा ख़ानदान कितना संघर्षशील है सो असुंदर है


अभी कल ही तो भुजंग मेश्राम पूछकर गया था
उम्र से अधिक दिखना औक़ात से अधिक दिखना होता है क्या?

अभी कल ही तो पूछ कर गया था भुजंग मेश्राम
माईला… ये पचास साल का लोकतंत्र
उन लोगों को कायको पांच हज़ार का है लगता?


(१९९८)



’(३) तस्वीर में आमिर ख़ान के साथ मेरा एक रिश्तेदार ’


बहुत ख़ुश लगा पड़ा था और यहां-वहां देखते थोड़ा गर्व भी
अग़ल-बग़ल बैठे थे जो थोड़ा-थोड़ा कनखियों से झांक लेते तो
सामने वाला पूरा का पूरा झुक पड़ा था और वह भी छिपाने का छद्मप्रयास कर रहा था
जभी मैंने पूछा उस आदमी ने एक बार भी ना नहीं किया
तुम बता रहे हो जितनी आसानी से वह आ गया था तुम्हारे पास
वह पूरा मुंह खोलकर बोला हां
और जितनी बातें वह बता चुका था फिर-फिर बताने लगा
कैसा लगा तुम्‍हें उस वक़्त
क्या तुम्हारे लिए घड़ी बंद हो गई थी
उसने बताया मैंने उसे बहुत नज़दीक से देखा
और अनमनी नींद के सपने की तरह छुआ
उसकी हथेलियों से पसीना रिसता है
हमेशा मुस्कुराता है और ऑटोग्राफ़ बुक्स का सम्मान करता है
मेरे रिश्तेदार के कंधे पर हाथ रखे आमिर ख़ान शांत था
मेरे रिश्तेदार की ख़ुशी चार बाई छह के फोटो से छलक रही थी
वहां एक फ़ोटोग्राफ़र था जो तुरंत फ़ोटो निकालकर दे रहा था
मुझसे पहले कइयों ने खिंचवाया था
मुझसे मिलते समय वह बिल्‍कुल घर का लगा
वह ईसा नहीं था पर उसके भीतर एक ईसा था
सही है जब भी जाऊंगा उसके पास वह नहीं पहचानेगा मुझे
कुत्ते उसके दरवाज़े पर हुल्लड़ करेंगे
यह तस्वीर दिखाने के बावजूद मुझे घर में नहीं घुसने देंगे
पर यही क्या कम है कि उसने तस्वीर खिंचवाई मेरे साथ
मेरा वह रिश्तेदार अपना स्टेशन आने के बाद लोकल से उतर गया
तो जाते-जाते अपनी प्रसन्नता फिर बांच गया वह
तस्वीर के साथ क़ीमती ख़ुशियां लाया है
जिनकी छांह में चांदी की पट्टी पर नाचेगा
लोकल के धक्कों में लय ढूंढ़ेगा
कुछ दिनों तक सिर्फ़ एक पल में जिएगा

(१९९८)


***पुस्तक मेले से लाई तमाम नयी-पुरानी कविता की किताबों के परिचय की यह सीरीज आगे भी चलेगी। अगली प्रस्तुति मोहन डहेरिया के कविता संकलन 'न लौटे फिर कोई इस तरह'

टिप्पणियाँ

इन सुंदर कविताओं को हम तक पहुँचाने के लिए आभार!
धीरेश ने कहा…
तीनों ही कवितायेँ असरदार लगीं. बाकी विश्लेषकों की टिप्पणियों का इन्तजार करता हूँ. किताब पेपरबेक्स में नहीं आयी क्या?
बहुत अच्छी रचनायें.
बेहतर...
दूसरी कविता ने कवि मन को अंदर से भिगो दिया...लाजवाब...
geet ka saamarthya aage aur bhi khulega. ashok ise aho rupam aho swaram mat maananaa. geet ki kitab jald hi milegi tab use gaur se padhaa jayega.
Parul kanani ने कहा…
aur inko likhte huye dil kitni mushkil mein reha hoga...too gud
Geet Chaturvedi ने कहा…
aap sabka bahut shukria mitro.
dhiresh, paperback me kuchh samay baad.
सोनू ने कहा…
यह जूते वाली कविता की कहानी तो मैंने कई साल पहले नंदन में पढ़ी थी। पर गीतजी ने उसी कहानी से अच्छा निष्कर्ष निकाला।
बहुत ही सुन्दर कविताओ से परिचय हुआ ! सादर
sarita sharma ने कहा…
तीनों कवितायेँ बिलकुल अलग अलग रंग ढंग की हैं.राजकुमार के लिए जूते की कथा दर्शाती है अविष्कार बड़े लोगों की आवश्यकता का परिणाम है.मुंबई में बसे संघर्षरत मध्यवर्गीय परिवार का असुंदर लगना व्यंग्यात्मक है और अमीर खान के साथ फोटो खिंचवाने वाले रिश्तेदार का खुद को भाग्यशाली समझना हीरो को सपनों का असली पात्र मानना है.हम सबकी दिली तमन्ना होती है किसी न किसी तरह जानेमाने आदमी से जुड जाने की हालाँकि उसके लिए फोटो खिंचवा लेना या मुस्कुरा कर बात कर लेना मात्र औपचारिकता है..

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