गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें
(आमतौर पर मान लिया जाता है कि मुक्त छंद लिखने वाले छंद से दूर ही रहते हैं। मेरा मानना है कि हम सबने किशोरावस्था और तरुणाई के पहले सालों में गीत, नज़्म,ग़ज़ल, दोहे लिखे होते हैं…बस एक समय के बाद वह फ़ार्म अपर्याप्त लगने लगता है। आज पढ़िये उसी दौर की एक नज़्मनुमा चीज़! डायरी में वर्ष 1996 का है)
मिलो तो ऐसे मिलो
मिलो तो ऐसे मिलो
कि कल और आज के बीच
वो एक रात जो होती है
वो भी न हो
न कल की फिक्र
न कांधे पे बोझ माज़ी का
बस एक लम्हा
कि जिसमें हम ऐसे मिलें
कि जैसे ज़मीनों आसमान मिले
और एक भरम जो होता है
वो भी न हो
मिले निगाह तो सौ चिराग रौशन हों
और हथेलियों की गर्म आंच तले
पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़
गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें
और एक सांस
जु़दा जो होती है
वो भी न हो
मिलो तो यूं ही मिलो मेरे दोस्त
वरना रहने दो!
टिप्पणियाँ
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
आमीन
बस मस्त कर दिया आपने। जब हृदय सीमाओं को तोड़ता है तो सहज ही काव्यात्मक- संगीतात्मक हो जाता है और असीमता का यह फार्मेट कभी छोटा नहीं पड़ता। आप जानते हैं भूमिका से मेरी अहसहमति के विषय में।
सादर
कि मिलो तो ऐसे मिलो जैसे समंदर हहराता है ...
"वर्ना" की स्पेल्लिंग ठीक करें ! यहाँ इन मिस्टेक्स की सबकी अनुमति नहीं है :)
और कविता बहुत बढ़िया है थोडा और बढ़ाते तो और आनंद आता... 96 की कविता में २०१० किया कुछ और जुड़ता
प्रीतिश भाई आपकी असहमति के अधिकार के लिये यह जान हाज़िर
नीरा जी…सबसे अधिक जान उन पियराते पन्नों में ही है
महेन्द्र जी, शेखर,संदीप्…शुक्रिया
पीले पन्नो से निकली एक ख़ूबसूरत कविता ..
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की ज़रूरत क्या है।
मिले निगाह तो सौ चिराग रौशन हों
और हथेलियों की गर्म आंच तले
पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़
गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें
और एक सांस
जु़दा जो होती है
वो भी न हो
वाह वाह .............बधाई अच्छे लेखन के लिए
un dinon ki kavita
और एक सांस
जु़दा जो होती है
वो भी न हो
vah!
..मिलने की यह ख्वाहिश चिरंतन भी लगती है..एक सतत अनंत दिन की तरह.तो उफ़क की तरह सिर्फ़ खयालों से बावस्ता शै भी..तो सौ रोशन चिराग और हथेलियों की गर्म आँच मिलन की इस शाश्वत अभिलाषा को लाक्षणिकता का परदा भी देती है..हाँ बवरना शब्द तनिक समझ न आया..वगर्ना/वरना का कोई रूप तो नही?
पहले भी पढ़ता रहा हूँ आपके ब्लॉग को बेहद उम्मीदों और हैरत के साथ..मगर इस काव्यानुकूल बौद्धिकता से आक्रांत हो दबे पाँव खिसक लेता रहा तनिक शर्मिंदा सा...हाँ पिछली वाली कविता ’तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश’ को घूँट-घूँट लेता रहा हूँ..उदास शामों की फ़कत दवा की तरह...सो थोड़ी हिम्मत जुटा लाया हूँ अबके बार..और क्या कहूँ!
पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़...
विघ्नकर्ता...
मतलब विघ्नहर्ता आप पर कृपा करें...
हद है...
और हथेलियों की गर्म आंच तले
पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़
गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें
और एक सांस
जु़दा जो होती है
वो भी न हो
oh! Wah!
न कांधे पे बोझ माज़ी का
बस एक लम्हा
कि जिसमें हम ऐसे मिलें
कि जैसे ज़मीनों आसमान मिले
और एक भरम जो होता है
वो भी न हो"..
इन पंक्तियों को लिखते वक्त की गहरी अनुभूति को सहेजने की कोशिश कर रहा हूँ !
कितना कुछ उड़ेलने की कोशिश, सब कुछ कह जाने का मन !
मुग्ध हुआ ! आभार ।
जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है
जरा फासले से मिला करो."..
-पता नहीं क्यों याद आ गया ये शेर !आपकी कविता इसके मुकाबले में सच के ज्यादा करीब लगती है !
बहुत बढ़िया !
जबाब नहीं
प्रसंशनीय प्रस्तुति
satguru-satykikhoj.blogspot.com
aapki ye nazm isi bahti nadi ka naam hai.
ये तो यूं कह दिया
आपने कि रलमिल जाओ
दूध में पानी की तरह
मत मिलो पानी में
तेल की तरह।
दूध में पानी की मिलावट की वकालत करती एक बेहद खूबसूरत कविता।
पीले पन्ने ने मन गीला कर दिया।
और इसी तरह मिलेंगे...
आपके ब्लॉग पर पहली बार आयी हूँ लेकिन यहाँ आकर अच्छा लगा....
शुभ-कामनाएं आपको
गीता