वे इसे सुख कहते हैं

पवित्र परिवार!

साथ साथ रहते हैं दोनो
एक ही घर में
जैसे यूंही रहते आये हों
पवित्र  उद्यान से निष्काषन के बाद से ही
अंतरंग इतने कि अक्सर
यूं ही निकल आती है सद्यस्नात स्त्री
जैसे कमरे में पुरूष नहीं निर्वात हो अशरीरी

चौदह वर्षों से रह रहे हैं
एक ही छत के नीचे
प्रेम नहीं
अग्नि के चतुर्दिक लिये वचनो से बंधे
अनावश्यक थे जो तब
और अब अप्रासंगिक

मित्रता का तो ख़ैर सवाल ही नहीं था
ठीक ठीक शत्रु भी नहीं कहे जा सकते
पर शीतयुद्ध सा कुछ चलता रहता है निरन्तर
और युद्धभूमि भी अद्भुत !

वह बेहद मुलायम आलीशान सा सोफा
जिसे साथ साथ चुना था दोनो ने
वह बड़ी सी मेज़
जिस पर साथ ही खाते रहे हैं दोनो
वर्षों से बिला नागा
और वह बिस्तर
जो किसी एक के न होने से रहता ही नहीं बिस्तर

प्रेम की वह सबसे घनीभूत क्रीड़ा
जिक्र तक जिसका दहका देता था
रगों में दौड़ते लहू को ताज़ा बुरूंश सा
चुभती है बुढ़ाई आंखों की मोतियाबिंद सी

स्तनों के बीच गड़े चेहरे पर उग आते हैं नुकीले सींग
और पीठ पर रेंगती उंगलियों में विशाक्त नाखून
शक्कर मिलों के उच्छिष्ट सी गंधाती हैं सांसे
खुली आंखों से टपकती है कुत्ते की लार सी दयनीय हिंसा
और बंद पलकों में पलती है ऊब और हताषा में लिथड़ी वितृष्णा
पहाड़ सा लगता है उत्तेजना और स्खलन का अंतराल

फिर लौटते हैं मध्ययुगीन घायल योद्धाओं से
अपने अपने सुरक्षा चक्रों में
और नियंत्रण रेखा सा ठीक बीचोबीच
सुला दिया जाता है शिशु

चैदह वर्षों का धुंध पसरा है दोनो के बीच
खर पतवार बन चुके हैं घने कंटीले जंगल
दहाड़ता रहता है असंतोष का महासागर
कोई पगडंडी ... कोई पुल नहीं बचा अब
बस शिशु रूपी डोंगी है एक थरथराती
जिसके सहारे एक दूसरे तक
किसी तरह डूबते उतराते पहुंचते हैं
... वे इसे सुख कहते हैं।

टिप्पणियाँ

सागर ने कहा…
असुविधा अपने नाम के मुताबिक ही है. यह तकलीफ दे देती है पर इस तकलीफ से हम अनजाने में प्यार करते हैं... बहुत अलग सा शिल्प में लिखा है... अलग सा टेस्ट... शुक्रिया...
दिलीप ने कहा…
waah Ashok ji bahut sundar
इतने लंबे साहचर्य पर यदि शत्रुता नहीं पनपी तो प्रेम अवश्य ही उग आता है कांटो भरे गुलाब के पौधे सा। या फिर प्रेमचंद गलत हैं।
neera ने कहा…
प्रेम समय के साथ कब शत्रुता की चपेट में आ जाता है... इस सुख-दुःख की गहराई को चुन-चुन कर शब्दों में पिरोया है... बहुत सुंदर...
यथार्थ और सत्य आपकी कविताओं के विशेष तत्व हैं...
शरद कोकास ने कहा…
परिवार की परम्परिक परिभाषा से अलग यह कविता जीवन की वास्तविकताओं से साक्षात्कार करवाती है ।अच्छा लगा पढ़कर ।
परिवार संस्था पर गज़ब का हाथ फेरा है...
अंत में लगा एकतरफ़ा अतिकथन सा हो गया है..तभी ना द्विवेदी जी आपको सकपकाएं है...

एक बेहतर कविता...जिससे आंखें मिलाने में असुविधा सी होती है...
L.Goswami ने कहा…
हाँ यह सच है की अंत कविता में अतिकथन सा हुआ लग रहा है पर एक सच यह भी है जिसे नजरंदाज नही किया जा सकता. शायद मैं एक मनोविज्ञान की अध्येता की दृष्टि से देख रही हूँ इस कारन मुझे असहज नही लग रहा.


याद रहे जहाँ प्रेमचंद एक और द्विवेदी जी द्वारा उल्लखित भावों को शब्द देते हैं वही ..दूसरी ओर उसी कहानी में खन्ना की विरोधाभास भरे वैवाहिक स्थिति का भी चित्रण करते हैं. अधिक लिखूंगी प्रतिक्रिया लम्बी हो जाएगी इसलिए बंद करती हूँ ..
जो भी हो जीव के रूप में मानव मन की परतों को बेरहमी से अनावृत कर रही है कविता ...बेहतर
Pinaakpaani ने कहा…
अशोक जी,लगभग ऐसे ही होते जा रहे हैं 'परिवार'.आपने बड़ा निर्मम पर सच्चा चित्र प्रस्तुत किया.शिल्प के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं.बहुत सुन्दर.
प्रदीप कांत ने कहा…
समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार की एक आम समस्या की गहन पडताल।
निर्ममता पूर्वक आपने परिवार के सुख की सच्चाई को अभिव्यक्त किया है..
अरुण अवध ने कहा…
थोपे गए असहज संबंधों का कटु सत्य !

भिन्न दिशाओं के यात्री ,जिनके लिए घर
स्टेशन का प्रतीक्षालय है !

बहुत प्रभावशाली कविता है ,पूरी ईमानदारी
से लिखी !
KISHORE DIWASE ने कहा…
सच का एक जीवंत पहलू है यह कविता.रिश्तो में सकारात्मकता भी होती है जिसके अक्स समय सापेक्ष जीवन से चुराए जाने चाहिए.
यह कविता मेरे टेस्ट की है..। यह ऐसा विषय है जिसपर बहुत लिखा गया है..लेकिन आपने थोड़ा अलग तरह से लिखा है। मैं लिखता तो शायद ऐसा नहीं लिख पाता। कविता में कटू यथार्थ हैं और कई जगहों पर इस यथार्थ ने कविता की कोमलता पर आघात भा किया है। लेकिन कविता अच्छी कही जाएगी। पूरी कविता में कई पदबंध खासे आकर्षक और मार्मिक बन पड़े हैं। अन्त में जो आपने कह दिया है वे इसे सुख कहते हैं..( कविता यहां आकर बन जाती है)... मेरी बधाई स्वीकार करें भाई...

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