टूटे तारों की धूल के बीच
टूटे तारों की धूल के बीच
मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में
पितामह किस मृत्यु की बात करते हो
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में
या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगली
सूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुँए में भाँग में लथपथ
सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे
नौनिहालों की
उन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा
या डाक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था
विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढ़ेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर
एक दुख यह भी
इच्छा थी कि
चलूँ तो हरियाए पेड़ साथ लेकर चलूँ
पके बेर
अपनी तरफ के पानी से भरा तरबूज
बहुत-बहुत रौशनी में भकुआ गया उल्लू
और वो बूढ़ा कठफोड़वा लेकर जो अब
केले के पेड़ ढ़ूँढ़ता फिरता है
मगर
जहाँ भी जाता हूँ कोई दीवार साथ लग जाती है
जहाँ कुएँ का जल सूखा वहीं एक दीवार सीना फुलाए
खिड़की से भी आती हवा तो दीवार से पूछकर पता
लज्जा थी कभी कोई कि कोई क्या कहेगा दीवार देखकर
कोई कुछ नहीं कहता
अब तो यह दुख कि कोई कुछ नहीं कहता ।
औसत अंधेरे से सुलह
पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक
सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ
समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह
सभय झाँकती बच्ची नहानघर में
कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश -
कहते उतर गई उस धुँवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे का सारा परिमल
शेष पंखड़ियाँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर ।
बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष
नृत्यलीन बली देह
सधन तम को मथ रही थी
व्योम शिल्पित, धरा शब्दित ।
अपनी आँखें मूँद ली
हुआ पतित औसत अंधेरे के कुँए में
नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में
जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूंढ़नी थी।
इस तरफ से जीना
यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और साँस-साँस भविष्य
वह भी जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
देवताओं, हथेली पर थोड़ी जगह
खुजलानी हैं वहाँ लालसाओं की पाँखें
शेष रखो चाहे पाँव से दबा अपने बुरे दिनों के लिए
घर को क्यों धाँग रहे इच्छाओं के लँगड़े प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिये हैं दरवाजे
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसे तारे से अपनी बीड़ी
इतनी दूर पहुँच पाने पर सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बाँध सकें इस क्षण के छोर ।
टिप्पणियाँ
वाकई उनकी व्यंजनात्मक भाषा की धार अलग है...
जो उन्हें औरों से अलग करती है...
जी भर कर पी सका इन कविताओं को!
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