कागज पर कलम से लगे उसके हाथ…
यह कविता बहुत पहले लिखी थी…फिर वर्तमान साहित्य में छपी भी…पर इसे लेकर हमेशा संशय रहा…पता नहीं इसका शिल्प इसे कविता होने भी देता है या नहीं…आप देखिये…
काम पर कांता
सुबह पांच बजे...
रात
बस अभी निकली है देहरी से
नींद
गांव की सीम तक
विदा करना चाहती है मेहमान को
पर....
साढ़े छह पर आती है राजू की बस !
साढ़े आठ बजे...
सब जा चुके हैं !
काम पर निकलने से पहले ही
दर्द उतरने लगा है नसों में
ये किसकी शक्ल है आइने में ?
वर्षों हो गये ख़ुद का देखे हुए
अरे....पौने नौ बज गये !
दस बजे...
कौन सी जगह है यह?
बरसों पहले आई थी जहां
थोड़े से खुले आसमान की तलाश में
परम्परा के उफनते नालों को लांघ
और आज तक हूं अपरिचित !
कसाईघर तक में अधिकार है
कोसने का्… सरापने का
पर यहां सिर्फ़ मुस्करा सकती हूं
तब भी
जब उस टकले अफ़सर की आंखे
गले के नीचे सरक रही होती हैं
या वो कल का छोकरा चपरासी
सहला देता है उंगलियां फाईल देते-देते
और तब भी
जब सारी मेहनत बौनी पड़ जाती है
शाम की काॅफी ठुकरा देने पर !
शाम छह बजे...
जहां लौट कर जाना है
मेरा अपना स्वर्ग
इंतज़ार मंे होगा
बेटे का होमवर्क
जूठे बर्तन / रात का मेनू
और शायद कोई मेहमान भी !
रात ग्यारह बजे...
सुबह नसों में उतरा दर्द
पूरे बदन में फैल चुका है
नींद अपने पूरे आवेग से
दे रही है दस्तक
अचानक करीब आ गए हैं
सुबह से नाराज़ पति
सांप की तरह रेंगता है
ज़िस्म पर उनका हाथ
आश्चर्य होता है
कभी स्वर्गिक लगा था यह सुख !
नींद में अक्सर...
आज देर से हुई सुबह
नहीं आई राजू की बस
नाश्ता इन्होने बनाया
देर तक बैठी आईने के सामने
नहीं मुस्कराई दफ़्तर में
मुह नोच लिया उस टकले का
एक झापड़ दिया उस छोकरे को
लौटी तो चमक रहा था घर
चाय दी इन्होने
साथ बैठकर खाए सब
आंखो से पूछा
और....
काग़ज़ पर क़लम से लगे उसके हांथ !
टिप्पणियाँ
अपनी यह रचना वटवृक्ष के लिए भेजें rasprabha@gmail.com पर
अपने अस्तित्व को तलाशती मगर स्वयं को खोती कांता की मनोदशा को बहुत खूबी से अभिव्यक्त किया है ..!
वर्षों हो गये ख़ुद का देखे हुए
काम पर जाती हर कांता के मन की हलचल को बखूबी उकेरा शब्दों में
पूरी कहानी को बख़ूबी उकेरते हुए...
बेहतरीन कविता...