बिमलेश त्रिपाठी की कवितायें
इस बार प्रस्तुत हैं युवा कवि बिमलेश त्रिपाठी की दो कवितायें। कहानी और कविता में समान रूप से सक्रिय बिमलेश अपनी सूक्ष्म संवेदनाओं तथा गहरी अंतरदृष्टि के लिये जाने जाते हैं। उनसे bimleshm2001@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।
बूढ़े इंतजार नहीं करते
बूढ़े इंतजार नहीं करते
वे अपनी हड्डियों में बचे रह गए अनुभव के सफेद कैल्सियम से
खींच देते हैं एक सफेद और खतरनाक लकीर
और एक हिदायत
कि जो कोई भी पार करेगा उसे
वह बेरहमी से कत्ल कर दिया जाएगा
अपनी ही हथेली की लकीरों की धार से
और उसके मन में सदियों से फेंटा मार कर बैठा
ईश्वर भी उसे बचा नहीं पाएगा
बूढ़े इंतजार नहीं करते
वे कांपते – हिलते उबाऊ समय को बुनते हैं
पूरे विश्वास और अनुभवी तन्मयता के साथ
शब्द-दर-शब्द देते हैं समय को आदमीनुमा ईश्वर का आकार
खड़ा कर देते हैं
उसे नगर के एक चहल-पहल भरे चौराहे पर
इस संकल्प और घोषणा के साथ
कि उसकी परिक्रमा किए बिना
जो कदम बढ़ाएगा आगे की ओर
वह अंधा हो जाएगा एक पारंपरिक
और एक रहस्यमय श्राप से
यह कर चुकने के बाद
उस क्षण उनकी मोतियाबिंदी आँखों के आस-पास
थकान के कुछ तारे टिमटिमाते हैं
और बूढ़े घर लौट आते हैं
कर्तव्य निभा चुकने के सकून से अपने चेहरे की झूर्रियां पोंछते
बूढ़े इंतजार नहीं करते
वे धुंधुआते जा रहे खेतों के झुरमुटों को
तय करते हैं सधे कदमों के साथ
जागती रातों की आंखों में आंखें डाल
बतियाते जाते हैं अंधेरे से अथक
रोज-ब-रोज सिकुड़ती जा रही पृथ्वी के दुख पर करते हैं चर्चा
उजाड़ होते जा रहे अमगछियों के एकांत विलाप के साथ
वे खड़े हो जाते हैं प्रार्थना की मुद्रा में
टिकाए रहते हैं अपनी पारंपरिक बकुलियां
गठिया के दर्द भुलाकर भी
ढहते जा रहे संस्कार की दलानों को बचाने के लिए
बूढ़े इंतजार नहीं करते
हर रात बेसुध होकर सो जाने के पहले
वे बदल देना चाहते हैं अपने फटे लेवे की तरह
अजीब सी लगने लगी पृथ्वी के नक्शे को
औक खूंटियों पर टंगे कैलेण्डर से चुरा कर रख लेते हैं
एकादसी का व्रत
सतुआन और कार्तिक स्नान
अपनी बदबूदार तकिए के नीचे
अपने गाढ़े और बूरे वक्त को याद करते हुए
बूढ़े इंतजार नहीं करते
अपने चिरकुट मन में दर-दर से समेट कर रक्खी
जवानी के दिनों की सपनीली चिट्ठियों
और रूमानी मंत्रों से भरे जादुई पिटारे को
मेज पर रखी हुई पृथ्वी के साथ सौंप जाते हैं
घर के सबसे अबोध
और गुमसुम रहने वाले एक शिशु को
और एक दिन बिना किसी से कुछ कहे
अपनी सारी बूढ़ी इच्छाओं को अधढही दलान की आलमारी में बंद कर
वे चुपचाप चले जाते हैं मानसरोवर की यात्रा पर
याकि अपने पसंद के किसी तीर्थ या धाम पर
और फिर लौट कर नहीं आते...
अकेला आदमी
उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनिया सांस लेती है
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है
अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियां होती हैं
कहीं छूट गए किसी राग की
एक हल्की-सी कंपकंपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बितायी गई रातें
इत्यादि...इत्यादि...
जो हर समय उसके चेहरे पर उभरी हुई दिख सकती हैं
कि उसके चलने में अपने चलने का वैशिष्ट्य
सिद्ध करते हुए स्पष्ट कौंध सकती हैं
लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नजरों में अकेला होता है
हालांकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुंकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ-साफ सुन सकते हैं
अकेले आदमी की ऊंगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अंटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हंसने को साथ सकता है अकेला आदमी
अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकांत में शामिल नहीं हो पाता
और
सहता रहता है किसी अवधूत योगी की तरह वह
हमारे हाथों से फिसलते जा रहे समय के दंश
सिर्फ अपनी छाती पर अकेले
और हमारी पहुंच से दूर
अकेला आदमी कत्तई नहीं होता सहानुभूति का पात्र
जैसा कि अक्सर हम सोच लेते हैं
यह हमारी सोच की एक अनपहचानी सीमा है
नहीं समझते हम
कि अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
तो वह गिन रहा होता है
पृथ्वी के असंख्य घाव
और उनके विरेचन के लिए
कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है।
टिप्पणियाँ
विश्लेषणात्मक सूक्ष्म दृष्टि का पैनापन और
विषय-वस्तु पर ठीक निशाना देखने को मिला
रचनाओं में ! त्रिपाठी जी और अशोक जी आप दोनों को
बहुत बहुत बधाई !
"अकेला आदमी"... किसी भी विचार मग्न इंसान की तस्वीर सी पेश करती सुलझी हुई कविता है, बहुत खूब .
pratuti ke liye aabhar
Janamdin kee bahut bahut haardik shubhkamnayne..