मार्क स्ट्रैण्ड की कुछ कवितायें
मार्क स्ट्रैण्ड का जन्म 11 अप्रैल, 1934 को कनाडा के प्रिंस एडवर्ड आईलैण्ड में हुआ था। उन्होंने बी ए की डिग्री ओहियो के एन्टियाक कालेज़ से 1957 में प्राप्त की थी और आगे की पढ़ाई येल कालेज़ से की, जहाँ उन्हें ‘कुक पुरस्कार’ और ‘बर्गिन पुरस्कार’ प्राप्त हुए। बाद में फुलब्राइट छात्रवृत्ति पाकर उन्होंने आयोवा विश्विद्यालय में अध्ययन किया।
उनके प्रमुख कविता संग्रहों में ‘मैन एण्ड कैमेल (2006), बिज़ार्ड आफ़ वन (1998), डार्क हार्बर (1993), द कान्टिनिवस लाइफ़ (1990), सेलेक्टेड पोएम्स (1980), द स्टोरी आफ़ अवर लाईफ़ (1973) और रीजन्स फार मूविंग (1968) शामिल हैं।
उन्हें ‘बिज़ार्ड आफ़ वन’ के लिये प्रतिष्ठित पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा बोलिंन्जेन पुरस्कार, राकफेलर फ़ाउण्डेशन पुरस्कार, एडगर एलन पो पुरस्कार सहित तमाम पुरस्कारों और सम्मानों से उन्हें नवाजा गया है। आजकल वह न्यू यार्क के कोलंबिया विश्विद्यालय में पढ़ाते हैं। अनुवाद मेरा है।
अनुपस्थिति
मैदान में
मैदान की अनुपस्थिति हूँ मै
ऐसा ही होता है हमेशा
मै जहाँ भी होता हूँ
वही होता हूँ
कमी ख़ल रही होती है जिसकी
जब चल रहा होता हूं मै
बांट देता हूं हवा को दो हिस्सों में
और फिर हवा भर देती है उस जगह को
जहां था मेरा शरीर
सबके पास होतीं हैं
चलने की अपनी वज़हें
मैं चलता हूं
चीज़ों को पूरा बनाये रखने के लिये
हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के
हम पढ़ रहे हैं किस्से अपनी जिंदगी के
जो बनते हैं एक बंद कमरे में
कमरा झांकता है एक गली में
कोई नहीं है वहां
किसी चीज़ की आवाज़ नहीं
पेड़ लदे हैं पत्तों से
खडी कारें चलती ही नहीं कभी
हम कुछ होने की उम्मीद में
पलटते रहते हैं पन्ने
जैसे कि दया या परिवर्तन
एक स्याह पंक्ति जो जोड देगी हमें
या कर देगी अलग
जिस तरह है सबकुछ
लगता है
ख़ाली है हमारी ज़िंदगी कि किताब
कभी नहीं बदली गयी
घर के फर्नीचरों की जगह
और उन पर पडे बिछावन
हमारी छायाओं के गुज़रने से
हर बार हो जाते हैं और स्याह
यह वैसे ही है कमोबेश
कि जैसे कमरा ही था पूरी दुनिया
पढते हुए पलंग के बारे में
हम बैठे हैं पलंग पर अगल-बगल
हम कहते हैं - आदर्श है यह
आदर्श है यह!
लंबी उदास पार्टी से
कोई कह रहा था
मैदानों को घेरती छायाओं के बारे में इस बारे में
कि कैसे बीतती हैं चीज़ें, कैसे सोया रह जाता है कोई सुबह तक
और बीत जाती है वह सुबह
कोई कह रहा था कि
कैसे थमती जाती है हवा लेकिन लौट आती है
कैसे गोले ताबूत हैं हवा के
लेकिन मौसम ज़ारी रहता है
लंबी रात थी वह
और किसी ने ठंढे मैदानों में
चाँद से झरती सफ़ेदी के बारे में कहा कुछ
कहा कि कुछ और नहीं है इसके आगे
बस यही और अधिक
किसी ने ज़िक्र किया
उस शहर का जहाँ गयी थी वह युद्ध के पहले, एक कमरा
दो मोमबत्तियाँ जिसमें
दीवाल के सहारे खड़े, कोई नाच रहा था, कोई देख रहा था
हमें विश्वास होने लगा
कि कभी ख़त्म नहीं होगी यह रात
कोई कह रहा था कि ख़त्म हो गया संगीत और किसी ने ध्यान
नहीं दिया इस पर
फिर किसी ने कहा कुछ ग्रहों के बारे में, तारों के बारे में
कितने छोटे थे वे और कितनी दूर
आना रौशनी का
आना प्रेम का, आना रौशनी का
इतनी रात गये भी होता है यह
आप जगते हैं और देखते हैं कि जल रही हैं मोमबत्तियाँ जैसे अपने-आप
इकठ्ठा हो जाते हैं तारे,
हवा के ख़ुशमिजाज़ गुलदस्ते देते हुए
सपने उड़ेल देते हैं आपकी तकिया में
इस रात में भी जगमगाती है हड्डियाँ देह की
और कल की धूल झिलमिलाती है सांसों में
टिप्पणियाँ
thanx @ congrets ashok ji
सर्दी के लिए पंक्तियां
जब ठंड पड़ने लगे और हवा से कोहरा गिरने लगे तो
खुद से कहो
कि तुम आगे बढ़ते रहोगे
वही धुन सुनते हुए चलते जाओगे
चाहे खुद को कहीं भी पाओ--
अंधेरे के गुंबद के भीतर
या बर्फ की घाटी में चंद्रमा की टकटकी की
धवल रोशनी में।
आज की रात जब ठंड पड़ने लगे
तुम चलते जाओ तो
अपने आपसे कहो जो तुम जानते हो जो
तुम्हारी हड्डियों में गूंजती धुन के सिवाय कुछ भी नहीं है।
और तुम एक बार
सर्दियों के सितारों की छाँव में
धीमी आग के पास लेट सकोगे।
और अगर ऐसा हो जाये कि
तुम न तो आगे बढ़ते रह सको न ही मुड़ पाओ तो
तुम खुद को वहां पाओगे जहां अंत है
शरीर में बहते ठंड के अंतिम झोंके के समय
अपने आपसे कहना
कि तुम जैसे हो उसी रूप में खुद से प्यार करते हो।
सर्दी के लिए पंक्तियां
जब ठंड पड़ने लगे और हवा से कोहरा गिरने लगे तो
खुद से कहो
कि तुम आगे बढ़ते रहोगे
वही धुन सुनते हुए चलते जाओगे
चाहे खुद को कहीं भी पाओ--
अंधेरे के गुंबद के भीतर
या बर्फ की घाटी में चंद्रमा की टकटकी की
धवल रोशनी में।
आज की रात जब ठंड पड़ने लगे
तुम चलते जाओ तो
अपने आपसे कहो जो तुम जानते हो जो
तुम्हारी हड्डियों में गूंजती धुन के सिवाय कुछ भी नहीं है।
और तुम एक बार
सर्दियों के सितारों की छाँव में
धीमी आग के पास लेट सकोगे।
और अगर ऐसा हो जाये कि
तुम न तो आगे बढ़ते रह सको न ही मुड़ पाओ तो
तुम खुद को वहां पाओगे जहां अंत है
शरीर में बहते ठंड के अंतिम झोंके के समय
अपने आपसे कहना
कि तुम जैसे हो उसी रूप में खुद से प्यार करते हो।