अगर सावधान नहीं हैं आप



उनके हाथों में नहीं होगा कोई हथियार
कोई गणवेश नहीं शरीर पर
शब्दों से खेलते हुए आयेंगे आपके बिल्कुल करीब
बोलते-बतियाते एकदम आपकी ही भाषा में

इतने क़रीब होंगे वे
कि पड़ोसी से अधिक मित्रता के भ्रम उपजेंगे
किसी सुबह जब अलसाई आंखों से देखेंगे उन्हें
लगेगा आईने में देख रहे हैं आप अपना ही अक्स

चुपचाप रख देंगे काँधे पर हाथ
और गहरा हो जायेगा आपका दुख
मुस्कुरायेंगे इतने अपनेपन से
कि उजली हो जायेगी आपकी हँसी
सुनते हुए कवितायें
कुछ ऐसे फैल जायेंगी उनकी आँखें कि धन्य हो जायेंगे आप

विरोध अनुपस्थित उनके शब्दकोश में
प्रशंसाओं से कर देंगे अवश
फिर चुपचाप कविताओं में रख देंगे कुछ शब्द
और आप चाह कर भी नहीं कर पायेंगे प्रतिवाद

जहाँ आपने लिखा होगा हत्यारा
वहाँ लिख देंगे इंसान
जहां आपने हत्यालिखी होगी वहाँ क़ानून
शहीदों की जगह मृतक बैठ जायेंगे चुपचाप
और जहां प्रतिरोध लिखा होगा आपने जमाकर
वहां चुनाव लिखकर मुस्करा देंगे वे

और इस तरह धीरे-धीरे करेंगे वे आपकी काया में प्रवेश
हत्यारे आजकल सिर्फ़ हत्या नहीं करते…

टिप्पणियाँ

mukti ने कहा…
बहुत गहरी कविता है. सच में आजकल हत्यारे सिर्फ़ हत्या नहीं करते, आपके विचारों को कुंद कर देते हैं, अपने प्रभाव में लेकर अवश कर देते हैं.
असल में चारों तरफ छाए अंधरे में हमें रोशनी की जो भी किरण दिखाई देती है, हम उसी ओर चल पड़ते हैं। शायद कुछ देर भटकने के बाद समझ आता है कि यह रोशनी का केवल भ्रम है।
*
सच तो यह है कि यही हो रहा है। आखिर सावधान कौन है।
रवि कुमार ने कहा…
जरूरी चेतावनी...
एक बेहतरीन कविता...
Pratibha Katiyar ने कहा…
कमाल की कविता है अशोक जी. वाकई.
इस कविता के भीतर से मुझे ऐसा आवाहन भी मिल रहा है कि हम ऐसा होने नहीं देंगे...जहाँ लिखना होगा हत्यारा वहां हत्यारा ही लिखा जायेगा. शहीदों कि जगह मृतक हरगिज नहीं. पत्थर पे लिखेंगे सच और कोई उसे बदल भी नहीं पायेगा...
कटु सत्य कह दिया आपने ...
Vandana ने कहा…
शातिर दिमागों की चतुराइयों को इंगित और दिल दिमाग को कब्जा लेने के खतरनाक षड्यंत्रों से सावधान करती कविता ..स्त्रियों और भारतीय वेशभूषा में संसद और सरकारी इमारतों में घुसते आतंकवादी ही नही ..मन मस्तिष्क में जमते ये परकाया प्रवेश के एक्सपर्ट भी बहुत खतरनाक हैं ..कविता साफ़ साफ़ चेताती चलती है ..बढ़िया ..
Daddu ने कहा…
और से और बेहतर होती हुई .....
सच को और भी पैना कर दिया
हम जानकर भी अंजान बने रहते हैं....और कोई हत्या कर देता हैं हमारे विचारो की
हमारे उन भावनाओ की जो अब सिर्फ बाज़ार के लिए बची हैं.
बहुत बहुत धन्यवाद इस कविता के लिए
neera ने कहा…
बेहतरीन कविता...दिल- दीमाग के द्वार खोलती ... विचारों- भावनाओं के हत्यारों से आगाह करती ... किस कदर यह हत्यारे पनप रहे हैं ...कमजोरी इंसानों की है जिनमें उन्हे पहचानने क्षमता नहीं ...
vicharo aur charitr kee hatya ek jaghany apraadh hai. aur trasadi yah hai ke adhiktar jeet hatyaare kee hoti hai aur vah doshi bhi nahi karar diya jaata.
Bookishqan ने कहा…
ओह... अभिभूत हूं... अंदर तक हिला देने वाली कविता है अपने समकाल का इससे बेहतर प्रतिबिंब और कहीं नहीं। दिली मुबारकबाद

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ