सिर्फ हुसैन के लिए नहीं....


बहुत दिनों बाद आज अपनी एक कविता....




माफीनामा

मैं एक सीधी रेखा खींचना चाहता हूँ
मैं अपने शब्दों में थोड़ी सियाही भरना चाहता हूँ
कुछ आत्मस्वीकृतियाँ करना चाहता हूँ मैं
और अपनी कायरता के लिए माफी माँगने भर का साहस चाहता हूँ

मैं किसी दिन मिलना चाहता हूँ तमाम शहरबदर लोगों से
मैं अपने शहर के फक्कड़ गवैये की मजार पर बैठकर लिखना चाहता हूँ यह कविता
और चाहता हूँ कि रंगून तक पहुंचे मेरा माफीनामा.

मैं लखनऊ के उस होटल की छत पर बैठ किसी सर्द रात ‘रुखसते दिल्ली’ पढ़ना चाहता हूँ
इलाहाबाद की सड़कों पर गर्म हवाओं से बतियाते भेडिये के पंजे गिनना चाहता हूँ
मैं जे एन यू के उस कमरे में बैठ रामसजीवन से माफी मांगना चाहता हूँ
मैं पंजाब की सड़कों पर पाश के हिस्से की गोली
और मणिपुर की जेल में इरोम के हिस्से की भूख खाना चाहता हूँ  

मैं साइबेरिया की बर्फ से माफी मांगना चाहता हूँ
मैं एक शुक्राना लिखना चाहता हूँ
हुकूमत-ए-बर्तानिया और बादशाह-ए-कतर के नाम 

टिप्पणियाँ

Dr.Ajit ने कहा…
बेहतरीन कविता अशोक भाई...लेकिन इतने दिनों का गैप क्यों आ जाता है? हम तो आपके पुराने मुरीद है 'हुलस' कर कविता लिखते रहा करो!
डॉ.अजीत
समीर यादव ने कहा…
स्वीकृती तामील हुई. आत्म स्वीकृतियां करा दिया आपने.
siddheshwar singh ने कहा…
अच्छी कविता , मुझे लगता है थोड़ा विस्तार भी माँगती है यह अभी।
Shamshad Elahee "Shams" ने कहा…
बहुत नुकीली कविता है, बहुत हिम्मत चाहिये आत्मस्वीकृतियों के लिये...गिरेबान में और कौन कौन झांक कर देखेगा...?देखना शेष है...जल्दी जल्दी कलम चलाया कीजिये..इस अनुरोध के साथ, आपका
rajani kant ने कहा…
यह कविता वाकई और विस्तार चाहती है । साइबेरिया की बर्फ और रंगून(यांगून)से माफीनामे एक-एक लाइन में नहीं निपट सकते ।
सिद्धेश्‍वर जी की बात पर ध्‍यान दे सकते हैं।
कविता ध्‍यानाकर्षण करती है।
neera ने कहा…
एक संवेदनशील दिल की कशिश को परवान चढ़ाते शब्द...बेहद खूबसूरत!!
firoj khan ने कहा…
bahut achchi kavita he bhai.
बेहद शुरूआत....ये तो बीज ही है....वाक़ई वि‍स्‍तार चाहि‍ए....चाहे बरसों-बरस लगे
S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…
शायद ऐसी ही किसी कविता को पढ़कर कहा गया होगा कि "एक कविता चंद पंक्तियों में जहान को समेट लेती है"
सादर...
अरुण अवध ने कहा…
बहुत अच्छी कविता .............एक विश्व-चेतस व्यक्ति ,व्यक्ति नहीं रह जाता बल्कि वह मानवता का प्रतिनिधि हो जाता है और सारे भले-बुरे को स्वयं पर झेलता है और उसके लिए स्वयं को ज़िम्मेदार भी मनाता है ! ऐसा ही है यह ज़िम्मेदार माफीनामा !
Santosh ने कहा…
सिर्फ दो शब्द कहूँगा ! वाह साथी !
बेनामी ने कहा…
Suman Keshari Agrawal बहुत अच्छी कविता अशोक... सचमुच संवेदनशील...पर कविता से आगे बढ़कर उस पालिटिक्स से भी- संवेदना के स्तर पर भी दो-दो हाथ करने पड़ेंगे जो अस्मिता के नजरिए से ही सारी चीजें देखना चाहती है...एक मूलभूत मानवीय संवेदना और सरोकार का रेखांकन जरूरी है...
Pramod Dhital ने कहा…
hridaya hilanewala kavita likha aapne sukrya..
सागर ने कहा…
जोश दिलाते दिलाते ठंढा कर गयी.... बहुत उम्मीद हो रही थी इस कविता से... इसे फिर से लिखें.... इसने उकसा कर छोड़ दिया.

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