मैं इतना ऊब गया कि मैंने मोबाईल उठाकर फोन लगाना शुरू कर दिया
पिछले दिनों कलकत्ते से भाई प्रियंकर पालीवाल के संपादन में निकली पत्रिका अक्षर का प्रवेशांक मिला . कविता विरोधी समय में पूरी तरह कविता पर केंद्रित इस पत्रिका में प्रियंकर भाई ने न केवल हिन्दी तथा अन्य भाषाओं की हिन्दी में अनूदित उत्कृष्ट कविताएँ दी हैं बल्कि इसके इर्द-गिर्द अनेक उत्कृष्ट चीजों का एक ऐसा सम्मोहनकारी वितान रचा है कि आप उसे पढ़े बिना नहीं रह सकते. यहाँ पेश है इसी पत्रिका से हमारे समय के विशिष्ट कवि कुमार अम्बुज की डायरी का एक हिस्सा जो कविता जैसा ही सुख देता है. पत्रिका के लिए सचिव, मित्र मंदिर, 5 कबीर रोड, कोलकाता - 700 026 से संपर्क किया जा सकता है
जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था
- कुमार अंबुज
2008 के दिनों में रहते हुए कुछ शब्दः कुछ नोट्स
1- कई बार कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर पाता। न स्मृति, न भविष्य की कल्पना और न ही खिड़की से दिखता दृश्य। न बारिश और न ही तारों भरी रात।न कविता, न कोई मनुष्य और न ही कामोद्दीपन।
संगीत से तुम कुछ आशा करते हो लेकिन थोड़ी देर में वह भी व्यर्थ हो जाता है।
शायद इसी स्थिति को सच्ची असहायता कहा जा सकता है।
बड़े होते शहरों में शायद इसलिए ही खुद पर गर्वीले लेकिन संकुचित दिमागवाले लोगों की बहुतायत होती चली जाती है। उनकी आपाधापी और होड़ आपस में बनी रहती है। पेड़ों, तारों, पहाड़ों, धाराओं और चंद्रमा से, कुल प्रकृति से उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया खत्म होती जाती है और वे निरी भीड़ का ही हिस्सा होते चले जाते हैं। काफी हद तक उजड़े हुए से और रूखे।
मैं भी इधर उजड़ सा गया हूँ।
रूखा हो गया हूँ।
ऊब भी क्या चीज है!
फिर लगता है कि उन्हें खो देना ही अधिक प्राकृतिक और जीवन के लिए स्वस्थ लक्षण है। सप्रयास संबंधों में पुनस्र्थापना संभव नहीं। जैसे उन्हें खोकर ही शेष जीवन संभव है। जैसा भी हो। उन्हें खो देना ही नियति है।
उन्हें पाने की कोशिश यूटोपिया है।
यह किसी दूर टिमटिमाते तारे को पाने की कोशिश है जो खुली जगह की रात में सिर उठाते ही दिखा था और बस जरा सी देर में डूब गया। वह अब मेरी इस जमीन से, मेरे भूगोल से मुझे इस पूरी रात के जीवन में नहीं दिखेगा।
सोच रहा हूँ कि कविता को इस तरह कैसे ग्रहण किया जा सकता है!
9- अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने, जो बीमारी की वजह से नोबेल पुरस्कार लेने स्वयं उपस्थित न हो सके थे, अपने संक्षिप्त धन्यवाद भाषण में लिख भेजा थाः ‘कोई भी लेखक जो ऐसे अनेक महान लेखकों को जानता हो, जिन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल सका, इस पुरस्कार को केवल दीनता के साथ ही स्वीकार कर सकता है। ऐसे लेखकों की सूची देने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ प्रत्येक आदमी अपने ज्ञान और अंतर्विवेक से अपनी सूची बना सकता है।’
यह आत्म परीक्षण, लघुता भाव और विनम्रता हर भाषा के पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं में देखी जाना चाहिए क्योंकि प्रत्येक समय, हर भाषा के महत्वपूर्ण पुरस्कारों में, ऐसे श्रेष्ठ लेखकों की सूची किसी कोने में पड़ी हो सकती है, जिन्हें वे पुरस्कार कबके मिल जाने चाहिए थे। लेकिन हिंदी में हम देख सकते हैं कि जो पुरस्कार लेते हैं उनमें ढीठता और अहमन्यता ही कहीं अधिक प्रकट होती है।
दीनता की जगह गहरा संतोष।
11- सोचकर कुछ हद तक अचरज हो सकता है कि मनुष्य की सभ्यता यात्रा में आविष्कृत कुछ आविष्कार ऐसे हैं, जो आज भी अपने आपमें न केवल अत्यंत उपयोगी है बल्कि जिनका ठीक-ठीक विकल्प भी नहीं बन सका है। खासतौर पर उनमें लगनेवाली ऊर्जा, उपयोगिता एवं धन के अनुपात में उनका कोई भी विकल्प असुविधाजनक और महँगा है। आमजन को सहज ग्राह्य और प्राप्य भी नहीं है। कुछ चीजें याद कर सकते हैं, जैसेः झाड़ू, छाता, चश्मा, मच्छरदानी, झोला, तवा, बेलन, चिमटा, दरी, रस्सी, घड़ा, डंडा।
12- क्या संसार में कोई ऐसा भी है जो रेल्वे प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो और छूटती हुई रेल जिसे उदास न करती हो? प्लेटफॉर्म के ठीक बाहर खड़ा पेड़, जो उसे फिर कुछ याद न दिलाता हो? क्या? क्या??
दिमाग पर जोरे डालकर कुछ सोचना न पड़ता हो।
13- रात मेरी रक्षा के लिए ही आती है।
सब तरफ शांति फैल रही है। अब मेरे सामने विशाल मैदान है। इस रात को मैं द्वीप की तरह, उम्मीद की तरह देखता हूँ जिसमें मेरे कुछ करते रहने, लिखते-पढ़ते रहने की गुंजाईश है, अवकाश है। इस रात्रि-प्रेम ने मुझसे मेरी सुबहें छीन ली हैं, यह दुख मनाया जा सकता है लेकिन इस रात की विशाल जगह ने मुझे कितना कुछ उपलब्ध कराया है यह बात तारों का एकांत जानता है, गली में जलती रोशनियाँ और टुकड़े-टुकड़े होता चाँद।
ऑफिस से लौटता हूँ। फूहड़ताएँ और थकान साथ में लौटती है। शाम से ही कई बार अगले दिन की नीरसता और थकान दिखने लगती है। अभी कुछ देर पहले एक फाईल से, एक रिटर्न से उलझ रहा था और अब कविता पढ़ रहा हूँ या कुछ लिखने की कोशिश है। बड़ा घालमेल हो जाता है।
लेकिन यह सुख है कि अभी यह चढ़ती हुई रात है।
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