व्यवस्था बहुत असहाय है उसे अव्यवस्थित मत बनाइये
हिमांशु पांड्या ने कल रात यह कविता मुझे तमाम संशयों के साथ पढ़ने के लिए भेजी थी, छापने की अनुमति आज सुबह मिली वह भी इस सवाल के साथ कि 'वैसे एक ड्राफ्ट को कितने दिन रखना चाहिए कवि को ? :) लिखते ही छपा देना जल्दबाजी नहीं होगी ? '' .. ज़ाहिर तौर पर आलस्य और धैर्य कवियों के लिए एक ज़रूरी गुन है. लेकिन अच्छी चीज़ को बासी नहीं करना चाहिए (असल में इसे पढ़िए कि मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था:). यह कविता न केवल हमारे समय के कुछ बेहद ज़रूरी सवाल उठाती है बल्कि उसे इतने रोचक तरीके पेश करती है कि आप पूरी कविता एक बैठक में पढकर एक साथ रोमांचित और खिन्न होते हैं. बाक़ी सब आप खुद देखिये
हमें पूरा का पूरा नहीं चाहिए
जो मिल गया हम उससे संतुष्ट हैं.
इस ज़माने में
जब सबको इतना भी नहीं मिलता
हमें इतना मिला,ये क्या कम है.
इतना एक सापेक्षिक शब्द है.
(कम तो कम नहीं होता, दो हज़ार ग्यारह में यह भ्रम भी दूर हुआ और द्वापर से दिल्ली विश्वविद्यालय में आ गया 'माफलेषुकदाचनः ')
इतना एक सापेक्षिक शब्द है
और आइन्स्टाइन और आर्कमिडीज को
घुलाने मिलाने पर वह घुलनशील
यूरेका क्षण सामने आता है
जब इतना का असंतोष
संभावित वंचना के भय से
प्रस्थापित हो जाता है .
आपने नहीं सुनी थी वह कहानी
बोल मेरी मछली कितना पानी !
इतना पानी इतना पानी !
योग गुरू के प्रशिक्षण से अर्जित
लंबी सांस लीजिए और कहिये
इतना ! इतना ! इतना !
झुमरीतलैया कंकडबाग पटना !
पूरा का पूरा एक सपना है .
( सापेक्षिकता के अधिभार से प्रस्थापित हुए आदिवासी को नहीं मिल पायी इस कविता में जगह क्योंकि तुकांतता अश्लील है और अतुकान्तता प्रतिशोध कोष्ठक में )
पूरा का पूरा एक सपना है
और दो हज़ार ग्यारह में
सपना रतन टाटा से चलकर
नीरा राडिया से होता हुआ
बरखा दत्त से गुजरकर
ए. राजा तक आता है.
सीधे सपना ?
आप कुमारमंगलम से शुरू कीजिये
( राज की बात/ कान इधर )
व्यवस्था बहुत असहाय है
उसे अव्यवस्थित मत बनाइये
जहां जितनी जैसी जगह मिले
समा जाइए !
समायोजन व्यवस्था को मजबूत बनाता है
समायोजन दरिद्र को सुख संतोष सिखाता है
समायोजन अनुशासन पर्व है
रघुवीर सहाय क्षमा करें, तुकांत धर्म निभाने के लिए
समायोजन पर हमें गर्व है.
(यानी कि तर्क के लिए जब मैं पूछता हूं मुन्नी और शीला क्यों बदनाम हुई ? उत्तर डार्लिंग तेरे लिए , तो इसमें शीला समायोजित हो जाती हैं और इसमें सबको खुशी मिलती है , देखिये, कितना आसान है )
इस तरह रामशरण
शरणागति को प्राप्त हुए
जय हो भैया रामशरण !
सात फीसदी की विकास दर
और भूमि का अधिग्रहण !
सलवा सलवा जुडूम जुडूम !
यानी जन का जन से
कहो विश्वरंजन से
( नयनों का नयनों से )
गोपन प्रिय संभाषण
जय जन गण मन !
अधिनायक !
जय हे !
जय हे !
जय हे !
टिप्पणियाँ
व्यवस्था बहुत असहाय है
उसे अव्यवस्थित मत बनाइये ,
जहाँ जितनी जैसी जगह मिले
समा जाइये ........................
हास्य का पुट लिए जबरदस्त व्यंग किया है हिमांशु जी ने ! अशोक जी प्रस्तुति के लिए आभार !
आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति" से नवीनतर टिप्पणी (सभी टिप्पणियां देखने के लिए नीचे स्क्रोल करें)
क्या खूब लिखा है---
व्यवस्था बहुत असहाय है
उसे अव्यवस्थित मत बनाइये
जहां जितनी जैसी जगह मिले
समा जाइए !
सुधार कर दिया है.