बसंत जेटली की कविताएँ
इस बार असुविधा में वरिष्ठ रंगकर्मी बसंत जेटली की कुछ ताज़ा कविताएँ
समय की साज़िश के बाद
मेरे और उस नगर के संबंधों की
जिसकी दीवारें
आँखों में घुले सपनों से
आ- आकर टकराती हैं,
अपने आप को पहचानने से
इनकार कर देता हूँ मैं.
शहर से बेतरह
नफरत हो जाती है |
इस सब से अलग
मेरा परिवेश
हाथों में सूखे कनेर का गुच्छा लिए
ढहते दुर्ग की प्राचीर पर
धुंए के छल्ले बनाता रहता है |
अन्दर कहीं गहरे दबा
विद्रोही चेतना का कोई अंश
और गहरे पैठ कर
सिर्फ चर्चाएँ करता है,
किसी अग्निपक्षी के पंख
अपनी ही आग से
झुलसते रहते हैं |
रक्त भीगे हाथों से
घोंघे और सीपियाँ बटोरता
एक व्यक्ति,
मन भर कर
अपने आचरण का रस पी लेने के बाद,
रंग-बिरंगे गुब्बारे फोड़ता हुआ
किसी गहरे गर्त में
कूद पड़ता है |
घिर आता है चारों ओर
बारूद के महीन कणों सा
गहरा कुहासा
और मैं
शब्दों को अर्थ
और अर्थों को शब्द देने की प्रक्रिया में
भूल जाता हूँ
अपना व्याकरण |
सारे वर्तमान को
कल्पित यज्ञ में होम कर
रक्तबीज आशा की राख में
नेवलों की तरह
लोटने लगते हैं लोग
" किसी का भी बदन
सुनहरा नहीं होता | "
क्रमशः
थरथराता है आकाश
बढ़ता है अन्धकार,
रौशनी...... रौशनी
चीखता है
हताश चेहरों का हुजूम,
हज़ार टुकड़ों में बंट गया सूर्य
सिर्फ पश्चिमी देशों पर उगता है |
व्याप गए अन्धकार का
लाभ उठाता है
मेरा व्यभिचारी आदिमानव
फिर
पाप न करने की
कसम खाता हुआ
भीड़ में खो जाता है |
मजबूर पिताओं का दल
टोकरियाँ भर-भर कर
ढोता रहता है
अपने बेटों की अस्थियाँ,
जीवन और मृत्यु
चुपचाप
मायने बदल लेते हैं,
हथेलियों की
उलझी- सुलझी रेखाएं
किसी निश्चित भवितव्य की
सूचना नहीं देतीं |
अब न यह तुम्हे पता है
न मुझे
कि समय की इस साज़िश के बाद
अस्तित्व के लिए बैसाखियाँ
और बैसाखियों के लिए अस्तित्व
कौन सी दिशा बांटेगी |
सूर्यास्त
खिड़की के शीशे में
आयत सी उतर रही शाम|
यादों के झुरमुट में
अभी - अभी डूबेगी
बिसराई बातों सी
धुंधलाती शाम |
याद
लाल हो जाता है
कोई सन्दर्भ ,
कौंध उठती है तुम्हारी याद।
किसी कागज़ का
सफ़ेद क्षितिज
भरता रहता है
आड़ी - तिरछी रेखाओं से
जो शायद किसी बिंदु पर
आपस में मिलती हैं।
तुम्हारा नाम लिख
बगल में
एक और नाम
करता हूँ अंकित
जिससे तुम्हे चिद थी ,
उस पर टेकता हूँ होंठ
कोई विरोध नहीं होता।
दुहराता हूँ वह सभी
जो सुनना भी
नापसंद था तुम्हे,
फिर - फिर सुनता हूँ
जतन से संभाल कर रखा
पुराना रिकॉर्ड
जो तुमको भाता था।
शून्य में निहारता हूँ
देर तक ,
दिन में भी
ढूँढता हूँ अरुंधती
नीले आकाश में।
बाहर निकल
हवा को लिपटने देता हूँ ,
चिर परिचित
सिहरन की लहरों में
महसूसता हूँ तुम्हे
बार - बार।
ईप्सित
कि उगे ही नहीं सूर्य
और देख न सकें आँखें
खिलते हुए अमलतास ।
पास ही कहीं
हवा की तेज़ लहरों में
झनझनाती रहे
कोई गुमनाम सी फली
और मैं महसूस करूँ
एक ध्वनित संस्पर्श ।
बगल में ही
फूट पड़े एक काँस
और कोई अनचीन्ही गौरैय्या
मेरे अंतस की गहराई तक
उसे झुकाती रहे बार-बार।
समूचे शहर को
ढाँप ले एक कोहरा ,
दो समानान्तर रेखाओं के मध्य
उग आये पर्वत
पल भर को हो जाएँ दूर,
एक विचित्र कसमसाहट से
टूट जाये मेरा अहम्।
कुछ तो ऐसा हो
कि शिराओं पर खिले
बर्फ के फूल
झरने लगें अनायास
और लेने लगे साँस
कहीं कोने में पडा अतीत ।
एक शीर्षकहीन कविता
कि अँधेरे -उजाले में होती हत्याएं
और न हों ,
कुंठाओं और आत्मवर्जनाओं
से बना आकाश
किसी बोझ की तरह
हमारे कन्धों पर झूले नहीं ।
पानी से निकाल
सूखे में फ़ेंक दें
सारी मछलियाँ
और समुद्र के वक्ष पर बांधें
रेत का एक बाँध !
या शीशे की तरह तोड़ दें
सूर्यमुखी आस्था
और उसके टुकड़ों से
लहूलुहान कर लें
अपनी अंगुलियाँ !
बादलों के बीच भटका दें
अस्तित्व का दावेदार
कोई वायुयान
और फिर हँसे
हँसे इतना कि थर्रा उठें
अहम् के प्रतीक
दुर्ग की दीवारें !
या फिर अन्दर
कहीं गहरे धधकते
लावे से घबराकर
द्वार पर टांग दें मुर्दा छिपकिली
और फिर करें घोषणाएं
कि हमने क्या नहीं किया ?
कि हममे और हिटलर में
क्या फर्क है ?
कि हमने पटक दिए हैं
तुम्हारी हथेली पर
नन्हे और मुर्दा
इराक - अफगानिस्तान
और तुम
बदले में दो हमें ज्वालायें
जिनमे झोंक दें
सारे श्वेत कबूतर।
लेकिन
ये दिन ,रात ,
नक़्शे ,सड़के और गलियाँ
जिन पर फैल गयी है
गंधाती बारूद,
जहां हर दिन
रक्तस्नात ही आता है
और रात फैलाती है
हत्याओं की खबर,
वहां भी जन्मेगा कोई ईसा।
तब तुम वहां नहीं होगे ,
फिर भी वो माँगेगा
तुम्हारे गुनाहों का हिसाब
भले ही वह कहे
कहता रहे
" कि घृणा पापी से नहीं
पाप से करो ।"
समापन
ऊंचा हो जाता है आकाश,
तट पर बिखरी
सीपियाँ उठाने बढे हाथों में
रेत भी नहीं छोड़ता समुद्र ,
लेकिन हर क्षण
ज़िंदगी के बेतरतीब क्षणों का जुलूस
एक चौराहा पार कर लेता है.
पीछे सड़ते रहते हैं
अनगिनत शव ,
सब कुछ को नकार
सिगरेट के साथ कॉफ़ी पीते
जोर से बहसते हैं बुद्धिजीवी,
कोई अरस्तु पैदा नहीं होता.
झपझपाने लगती हैं
बूढ़े दुर्ग की आँखें,
गूंजने के बाद
थरथरा कर थम जाता है
अजाना अट्टहास ........ खामोशी
जिसका अर्थ समझने में असफल
बहुतेरी आकृतियाँ
कर लेती हैं आत्महत्या.
झरते हैं उड़ते कबूतरों के पंख
इतनी तीव्रता से
कि घबराकर
आसमान पर
काले कपडे तान देते हैं लोग ..... अन्धकार,
किसी ईसा के जन्मने की संभावना में
सम्भोग करते हैं कुंवारे जिस्म,
बहुत दिनों बाद भी
कोई मरियम गर्भवती नहीं होती,
उभरता है खिजलाया प्रतिबन्ध
' अब सलीब का ज़िक्र नहीं होगा.'
परिवर्तन के नाम पर
दौड़ते हैं
कामनाओं के जंगली अश्व,
मुक्ति के लोभ में
गले में भारी पत्थर बांधे
चिपचिपाती सड़क पर
घिसटती हैं टूटी संज्ञाएँ,
अपना दाय सौंपने को.
तभी कहीं कौंधती है रौशनी,
खाली हाथों का अहसास कर
हांफने लगते हैं
पराजित युग के बुत....... प्यास
दूर चमकती है
नीली धार पानी की.
अचानक पत्थरों को फेंक
चीखने लगते हैं
दूरी से अनजान बुत,
इसी समय
इसे महसूस कर
नकारता है पानी की आवश्यकता एक व्यक्ति
और फिर
धर्म-राजनीति-साहित्य-सैक्स पर
एक साथ बोलता हुआ
नंगा हो जाता है,
अपनी बातों को नए लेबिल से सजा
बांटता है लोगों के बीच.
एक अदना सा व्यक्ति
रोकता है सबको
" ठहरो , पानी की ओर चलो ",
नई उपलब्धि की खुशी में
बहुत से हाथ उसकी ह्त्या कर देते हैं,
मर जाता है मुक्तिबोध.
हवाओं में
बिखरता है शीशा,
भरभरा कर
ढह जाते हैं अनगिन मकान,
खंडहरों में
गूंजती है अचीन्ही ध्वनियाँ,
चक्कर काटते हैं
चीत्कारते गिद्ध,
कांपने लगते हैं
बहुत से भयभीत धड,
अभिशप्त हो जाती है
पूरी शताब्दी,
किसी दूसरे लोक की खोज में
निकल पड़ती है अग्नि
और कोई मातरिश्वा
उसे वापस नहीं लाता.
टिप्पणियाँ
flhaal aapki rachnaaen sabit karti hain ki ek anubhvee aur pripaky vykti men hee svasthy dimaag/soch rhti hai..
बृहस्पतिवार, १८ अगस्त २०११
उनके एहंकार के गुब्बारे जनता के आकाश में ऊंचाई पकड़ते ही फट गए ...
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Friday, August 19, 2011
संसद में चेहरा बनके आओ माइक बनके नहीं .
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