संध्या नवोदिता की कविताएँ
इलाहाबाद में रहने वाली संध्या अपनी तमाम राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता के बीच कविता भी लिखती हैं...अपनी कविताई के साथ उनका सतत अन्याय वाकई खलता है. अरसा पहले हिन्दी की तमाम महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छप चुकने के बाद भी प्रकाशन के स्तर पर उनहोंने कभी कविताई को बहुत गंभीरता से नहीं लिया. अपना ब्लॉग भी बनाया लेकिन वहाँ भी बहुत नियमितता नहीं बना पाईं .... असुविधा के लिए भी कविता मांगने और देने में कोई पाँच-छः माह का अंतराल रहा...खैर देर आयद दुरस्त आयद...
औरतें -1
कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक्त की चमकीली
सलाइयों में
अपने ख्वाबों के फंदे
डालती
घायल उंगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें
एक रात में समूचा युग
पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं
थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा
के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें
अपने दुखों की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से
भेदती
वे हैं कुलांचे मारने
की फिराक में
ओह, सूर्य
किरनों को पकड़ रही हैं औरतें
औरतें – 2
औरतों ने अपने तन का
सारा नमक और रक्त
इकट्ठा किया अपनी
आँखों में
और हर दुख को दिया
उसमें हिस्सा
हज़ारों सालों में
बनाया एक मृत सागर
आँसुओं ने कतरा-कतरा
जुड़कर
कुछ नहीं डूबा जिसमें
औरत के सपनों और
उम्मीदों
के सिवाय
जिस्म ही नहीं हूँ
मैं
जिस्म ही नहीं हूँ
मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग
में
क्षणिक उत्तेजना के
लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी
आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही
नहीं मचलती
हर वक्त मेरे होंठों
पर
बल्कि मेरे समय की
सबसे मज़बूत माँग रहती है
मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी
परम्परा की
जो रचती है इंसानियत
की बुनियाद
मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के
लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के
लिए
एक गुलाम- परिवार के
लिए
मैं तुम्हारी साथी
हूँ
हर मोर्चे पर
तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक
हों हम
हमारे बीच का मुद्दा
हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी
मैं कद्र करती हूँ
संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद
ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था
की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों
का
कैदी नहीं व्यक्तित्व
मेरा
इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं
में
मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों
के खि़लाफ़
मैंने पकड़ा है
तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों
हम
आँखें भावुक प्रेम ही
नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग
की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं
होंठ प्रेमिका को
चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते
हैं
युद्ध का बिगुल भी
बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही
नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ
भी चरमराती हैं
सीने में प्रेम का
उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी
उठता है
आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न
हो
एक साथ बढ़ें अपनी
मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में
नहीं
विचारधारा बनकर
लड़कियाँ
लड़कियाँ
बिलकुल एक-सी होती
हैं
एक-से होते हैं उनके आँसू
एक-सी होती हैं उनकी
हिचकियाँ
और
एक-से होते हैं उनके
दुखों के पहाड़
एक-सी इच्छाएँ
एक-सी चाहतें
एक-सी उमंगें
और एक-सी वीरानियाँ
ज़िन्दगी की
सपनों में वे तैरती
हैं अंतरिक्ष में
गोते लगाती हैं
समुद्र में
लहरों सी उछलती-मचलती
हँसी से झाग-झाग भर
जाती हैं वे
सपनों का राजकुमार
आता है घोड़े पर सवार
और पटक देता है
उन्हें संवेदना रहित
बीहड़ इलाके में
सकते में आ जाती हैं
लड़कियाँ
अवाक् रह जाती हैं
अविश्वास में धार-धार
फूटती हैं
बिलखती हैं
सँभलती हैं,
फिर लड़ती हैं लड़कियाँ
और यों थोड़ा-थोड़ा आगे
बढ़ती हैं
ज़िन्दगी की डोर
अपने हाथ में थामने
की कोशिश करती हैं
टिप्पणियाँ
वक्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख्वाबों के फंदे डालती
घायल उंगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें
kitni sundar bunavat hai..
visheshkar ladkiyan dil ko chhoo gayee...
dhanyavad!!
shukriya! sandhya ko badhai!
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