तवांग के खूबसूरत पहाड़ों से उपजते हुए..
2 जून, 1986 को गोंडा , उत्तर प्रदेश में जन्में घनश्याम कुमार देवांश से मेरा परिचय उन दिनों हुआ जब वह
परिकथा से जुड़े हुए थे. उन्हीं दिनों उनकी कुछ कविताएँ पहली बार पढ़ी थीं और एक
स्पार्क दिखाई दिया था. इन दिनों वह देश के उत्तर-पूर्वी इलाकों में हैं और ये
कविताएँ उन्होंने वहीं से भेजीं हैं. इनमें प्रकृति के खूबसूरत चित्र हैं तो इसके
साथ ही वहाँ के मनुष्यों के दैनंदिन संघर्षों के चित्र भी. देवांश के पास एक ताज़ा
काव्यात्मक भाषा भी है और नए तथा मानीखेज बिम्ब भी. उनकी कविताएँ पहली बार असुविधा
पर प्रस्तुत करते हुए मैं उनके कवि के निरंतर विस्तार और उन्नयन की कामना करता
हूँ.
१.इन पहाड़ों पर....
( तवांग के खूबसूरत पहाड़ों से उपजते हुए.. )
( एक )
सामने पहाड़ दिनभर
बादलों के तकिये पर
सर रखे ऊंघते हैं
और सूरज रखता है
उनके माथे पर
नरम नरम गुलाबी होंठ
तेज़ हवाओं में बादलों के रोयें उठते हैं
धुएं की तरह..
फिर भी कोई बादल तो छूट ही जाता है
किसी दिन तनहा
बिजली की तार पर बैठी नंगी चिड़िया की तरह
और दिन ख़त्म होते होते
उसके होंठ फूटते हैं
किसी भारी पत्थर की धार से टकराकर
एक ठन्डे काले रक्त की धार लील लेती है सबकुछ
और चारों तरफ एक सन्नाटा
खामोश लाल परदे की तरह छाने लगता है
जो मेरी आत्मा के घायल
छेद में एक सूए की तरह आकर रोज़ ठहर जाता है
एक जंग खाए ताले के
छेद की तरह
दरवाज़े पर मुह बाए लटकी है मेरी आत्मा
इन खूबसूरत पहाड़ों में..
लिए एक बड़ा घायल सूराख ..
रोज़ खोजता हूँ इस
सूराख को भरने की चाभी...
*****
( दो )
आगे - पीछे
ऊपर - नीचे
और तो और
बीच में भी पहाड़ ही है
जिसपर मैं इस वक़्त बैठा हुआ हूँ
सोते - जागते
बाहर - भीतर
पहाड़ ही पहाड़ नज़र आते हैं
बड़े - बड़े बीहड़ पहाड़...
पहाड़,
जिनसे मैंने जिन्दगी भर प्यार किया
गड्डमड्ड हो गई हैं
इन पहाड़ों में आकर
मेरे सुख दुःख की परिभाषाएं
मेरी तमाम इच्छाओं से लेकर
ज्ञान, पीड़ा, और आनंद की अनुभूतियों तक..
सबकुछ..
टटोलता हूँ आजकल
अपने भीतर के उन परिंदों को
जो दिन - रात मेरे भीतर
न जाने कहाँ - कहाँ से आकर बैठते थे
और मुझे फुसलाते थे
कि मैं आँखों पर पट्टी बांधकर
उनके साथ एक 'बदहवास'
उड़ान पर उड़ चलूँ...
आजकल वे परिंदे भी नहीं दीखते कहीं...
रूई के सफ़ेद तकियों के बीच रखे
इन पहाड़ों के बीच
जब कभी बैठता हूँ अकेला
और अपने भीतर झांकता हूँ
तो मेरी नज़रें लौट नहीं पातीं...
भीतर बहती है कहीं एक आकाशगंगा
जिसके बीचों बीच
चक्कर काटता है
एक आकर्षक खतरनाक ब्लैकहोल...
डरता हूँ आजकल
अपने आप से बहुत ज्यादा..
अपने को परिभाषित करने की सनक में
कहीं उतर न जाऊं
किसी दिन
इस ब्लैकहोल में
'कभी न लौटने के लिए'
****
( तीन )
वो आसमान जिसने
भरे हुए महानगर में दौड़ाया था मुझे
जो अपने महत्त्वाकांक्षी दरातों से
रोज़ मेरी आत्मा में
एक खाई चीरता था
और जो जब शुरू होता था
तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता था
यहाँ आकर देखा मैंने
वह पहाड़ों के कन्धों पर एक शिशु की तरह
पैर लटकाए बैठा हुआ था
उसके पास एक तोतली भाषा तक नहीं थी
जिसमें वह मुझसे बात तक कर सकता
एक चोटी से दूसरी
और दूसरी से तीसरी चोटी के बीच
पहाड़ झाड़ रहे थे उसके लिए
अपनी झक सफ़ेद नरम गुदडियां...
गुदडियां तैर रही थीं
गुदडियां उड़ रही थीं
कभी सूखी
कभी पानी में भिगोई हुई सीं..
गुदड़ियों के नीचे ऊंघतीं - कुनमुनातीं घाटियाँ
और
गुदड़ियों के ऊपर शिशु की तरह सोता आसमान...
यहीं जाना पहली बार
आसमान होने का मतलब..
सुखों और दुखों के टुकड़े,
अधूरी अतृप्त इच्छाएं,
हुंकारती वासनाएं,
दुरूह स्वप्नों के धारावाही चित्र,
जीवन और मृत्यु के गहन रहस्य
सब
मेरे शरीर से मैल की तरह झरकर
गहरी घाटियों में
विलीन हो रहे थे..
आसमान अपने गहन, अलौकिक और प्रकाशमय
अर्थ के साथ
मेरे सामने फूट रहा था निरंतर
और मैं जान रहा था आसमान...
जैसे पैदा होता शिशु..
इस तरह मैं 'मर' रहा था
इस तरह मैं 'नया जन्म' ले रहा था..
इस तरह मैं आसमान हो रहा था...
****
२. याद
कभी कभी बहुत याद आती है
इतनी ज्यादा याद आती है
कि मन करता है कि आँख में
खंज़र कुरेद कुरेदकर
इस कदर रोऊँ की
यह पूरी दुनिया
बाढ़ की नदी में आये झोंपड़े की तरह
बह जाए
लेकिन
फिर चौकड़ी मारकर बैठता हूँ
और पलटता हूँ पुरानी डायरियां
आख़िरकार हर "न"
से परेशान हो उठता हूँ
सोचते सोचते सर के
टुकड़े टुकड़े होने लगते हैं
लेकिन जरा सा भी याद नहीं आता
कि आखिर वह क्या है
जिसकी कभी कभी
बड़ी बेतरह याद आती है....
****
३.बचाया जाना चाहिए तुम्हें
जबकि पूरी दुनिया की जवान लड़कियों
की आँखों में
एक मासूम बच्चे की ह्त्या हो चुकी थी
मैंने देखा तुम्हारे मन
तुम्हारे शरीर और तुम्हारी आत्मा में
किलकारियां लेता एक बच्चा...
इस ग्लोबल युग की यह सबसे बड़ी परिघटना है
जगह मिलनी चाहिए इसे
गिनीज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड्स
में सबसे बड़े जीवित करिश्मे की तरह
और बचाया जाना चाहिए तुम्हें
एक विरासत की तरह
कि सिर्फ तुम्ही हो एकमात्र उम्मीद
कलह और विनाश की तरफ
कदम बढ़ाती मानव सभ्यता के लिए..
खोजी जानी चाहिए
दुनिया के सबसे खूबसूरत पहाड़ पर
फूलों से घिरी एक महकती जगह
जहां उम्मीद से भरा एक बच्चा
सांस ले सके
जी सके
और खेल सके
दुनिया के सबसे पुराने और मासूम खेल...
****
४.मोक्ष
कुछ चीजें चाहीं जिन्दगी में हमेशा
पूरी की पूरी
जो कभी पूरी न हो सकीं
जैसे दो क्षितिजों के बीच नपा तुला आकाश
और कुछ वासनाएं अतृप्तिमय
जो लार बनकर गले के कोटर में
उलझतीं रहीं आपस में गुत्थम गुत्थ
मैं रहा निर्वाक, निर्लेप
उँगलियों से नहीं बनाया एक भी अधूरा चित्र
नहीं लिखी अबूझ क्रमशः के साथ
कहानी कोई
भले मैं रहना चाहता हूँ
एक शून्य की तरह
पूरी दुनिया को भरमाता हुआ
तब तक, कि
जब तक पा ही नहीं लेता
वह महाशून्य का अदम्य अपार महाकाश
जो हो शब्दाभिव्यक्तियों से भी
दूर..दूर..परे
जहां, आँखों के बाहर भीतर
वही एक महाशून्य हो
जानने, देखने और बूझने को
मष्तिष्क की शिरायें भी
जहां शांत हो पड़ जाएँ निस्पंद
और
विचार ग्रस्त स्नायुओं की
मर्मान्तक पीड़ा
टेक दे घुटने हमेशा हमेशा के लिए
और तब
एक ऐसी लम्बी न ख़त्म होने वाली
रेखा से पिरोई जायें
दुष्ट और पवित्र कही जाने वाली आत्माएं एक साथ
कितना अच्छा लगता है यह सोचना ही
कि इस विशाल ब्रहमांड की
आकाशगंगा के जल से
बनाया जाये
इतना बड़ा हम्माम
कि जिसमें
हम सभी हो सकें निर्वस्त्र
और
जिसके किनारों से
ब्रह्मांड की गलियों में घूमते अज्ञात लुटेरे
आकर उठा ले जाएँ
यकायक हमारी सभी खालें, केंचुलें, मुखौटे, दुःख रिसते हृदय
मोहग्रस्त आँखें और तंनावों से ऐंठती
स्नायुओं शिराओं के परमाण्वीय गोले
सबकुछ..मतलब सबकुछ
उठा ले जाएँ वे
और हम
'हम' यानी कि चिरात्मायें
नहाकर निकलें
उज्जवल शरीर व आलोकित
पंखमय होकर
थकान और ऊब से रहित
किसी अज्ञात महाशून्य की
एक महाउड़ान के लिए...
****
५.मुखौटे
उस समय में
जब दुनिया में चारों तरफ
मुखौटों की भर्त्सना की जा रही थी
हर घर की दीवारों पर टंगे
मुखौटे
बहुत उदास थे
क्योंकि सिर्फ वे जानते थे
कि वे बिलकुल भी गलत नहीं थे
कि उनके पीछे कोई चाक़ू
कोई हथियार नहीं छुपे थे
बल्कि
उन्होंने तो दी थी कईयों को जीवित रहने की सुविधा
और छुपा लिए थे
अपनी कोख में
चेहरों के सारे आतंक, हवाएं, और आशंकाएं...
उन्होंने उन सभी लोगों को भी तो
बचा लिया था
जिन्होंने वैभवशाली घरों के कांच तोड़े थे
और सबके सामने कहा था
कि उन्हें किसी का खौफ नहीं
मसलन वे सभी
'जिनकी तय था हत्या होगी '
मुखौटे पहनकर
खो गए थे विशाल जनसमुद्र में
उन्हें खोजना आसान नहीं था
क्योंकि उस जनसमुद्र में
मारनेवाले और मारेजानेवाले
सबके पास एक ही जैसे मुखौटे थे...
****
६.लड़नेवाले लोग
हर दौर में
कुछ ऐसे लोग होते रहे
जो लोगों की आँखों में
आंच फूंकने की कला में माहिर थे
ऐसे लोग
हर युग में नियंता बने
और उन लोगों के माथों पर
असंतोष की
लकीरें खींचते रहे
जिनके चेहरे पर एक चिर अभावग्रस्त उदासी थी
उन चंद लोगों ने
उन अधिकाँश लोगों की सेनायें बना लीं
जो अपनी आँखों में
अमन और बेहतर जिन्दगी के
सुलगते सवाल लिए
इधर उधर
बेतहाशा भाग रहे थे
उन चंद लोगों ने
उन अधिकाँश लोगों को
बड़ी आसानी से यह समझा दिया था
कि हर आग लड़कर ही बुझाई जा सकती है
इसीलिए
युद्ध लड्नेवालों की कुल संख्या में से
करीब नब्बे फीसदी लोग
बहादुर तो थे
लेकिन युद्धप्रेमी कतई नहीं थे
दरअसल
वे तो हमेशा
शान्ति की आकांक्षा में मारे गए...
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