कुफ़्र कुछ हुआ चाहिये उर्फ गिरिराज किराडू
गिरिराज किराडू किसी परिचय के मोहताज नहीं. अब
यारों का यार वगैरह कहूँ तो जानने वालों के लिए यह पुरानी खबर होगी और न जानने
वालों को इससे क्या फर्क पड़ता है? हिन्दी के इस ‘बालीवुडी’ सभ्यता वाले संसार में अकसर
आपके लिखे और आपके जिए से अधिक आपकी स्थापित इमेज से काम चलाया जाता है और पढ़ने की
जहमत उठाये बिना तमगे थमा कर आलोचना का धर्म निभा लिया जाता है. ऐसे माहौल में उसे
भी समय-कुसमय तमाम उपाधियां दी जाती रही हैं.
मुझे अकसर
लगता है कि हिन्दी का समकालीन आलोचक कुछ ज़्यादा ही काहिल है. जहाँ कविता में थोड़ा
अंडरटोन, कलात्मक अभिव्यक्ति या फिर अपरिचित बिम्बों का सृजन दिखाई देता है उसे झट
से खारिज करना शोर मचाती हर कविता को महान जनपक्षधर कविता कह दिए जाने जैसा ही चलन
में है. कविता के भीतर प्रवेश, उसकी अंतर्ध्वनियों की पहचान और फिर उसकी व्यापक
पक्षधरता की शिनाख्त का ज़रूरी काम करने से बचते रहने की परिणिति यह हुई है कि अब
कविता से अधिक कवि पर बात होती है. इसके बरक्स मुझे यह ज़रूरी लगता है कि गिरिराज
जैसे कवियों की एक अधिक गहरी पड़ताल की जाय. उसका संकलन तो ओवरड्यू है ही, साथ ही
अपनी कविताओं के प्रकाशन से अधिक अपने प्रकाशन (प्रतिलिपि) और दूसरी सक्रियताओं में
उसकी रुचि ने इन कविताओं को बहुत ज़्यादा प्रकाश में आने भी नहीं दिया है. खैर बड़ी मशक्कत
के बाद मिली उनकी इन कविताओं को पढते हुए आप उनकी गहन परन्तु स्पष्ट संवेदनाओं का
पता लगा सकते हैं. जैसे पहली ही कविता ‘छत’ जिसे पढते हुए सामने एक तरफ कारगिल तो
दूसरी तरफ शानी की कहानी युद्ध का ब्लैक आउट का दृश्य उभर जाता है या 'हमशक्ल' और 'कुशल' जैसी गुजरात नरसंहार के दौर में लिखी कविताएं जिनका रचनात्मक प्रतिरोध बिना
किसी गर्जन-तर्जन के सिहरन जगा देता है. 'पाँच बत्ती चौराहा और राजमंदिर सिनेमा' अगर बाज़ार के खिलाफ अपनी
आवाज़ दर्ज कराती है तो 'वीनू बंसल सिंगाठिया' इस बाज़ार में कला और कलाकार की स्थिति
पर एक भेदक टिप्पणी करती है.
लेकिन ये सब तो बस
बातें हैं, बातों का क्या? हिन्दी के आधुनिक पुरोहितों के पास इतना समय कहाँ कि वे
कविता जैसी फालतू चीज़ पढकर कवि के बारे में अपना दृष्टिकोण बनाएँ...पर हम और आप तो
पाठक हैं न...तो जो कहेंगे पढ के कहेंगे....
******************************************************
1
छत
अपनी छत
पर अकेले
बैठे लगता
किसी तहखाने
में फंसे
फंसे कई
बैठे हैं
जैसे आँखें
मींचकर कान
बन्द करके
ऊपर से
गुजर जाने
दे रहे
हों कोई
भूरा विमान
वैसे बैठने
पर लगता
संसार की
आवाज़ लगातार
हो रही
फायरिंग की
तरह सुनाई
दे रही
है
आवाज़ जो
कि एक
छत हो
सकती है
उसके नीचे
घर की
छत पर
बैठकर संसार
को अपने
पर हो
रही फायरिंग
की तरह
सुनते हुए
हम धीरे-धीरे उस
तहखाने को
नीचे से
खो रहे
होते थे
जो अकेले
बैठे हमें
छत पर
बनता हुआ
दिखता था
क्या आपने
कभी गिना
है कितने
विमान गुजरते
हैं एक
दिन में
आपके ऊपर
से?
2
पाँच
बत्ती चौराहा
और राजमंदिर
सिनेमा
यह बचाव तो बिल्कुल शुरू में ही करना होगा कि सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं
एक दिन अचानक पाँच बत्ती चौराहा जयपुर के ठीक ऊपर के आसमान में एक तारा देखते हैं और पाते हैं वही एक द्रश्यमान है जहाँ तक जाती है नज़र
इतनी देर में दृश्य, नीचे भी, बदल जाता है
यह एक खुली प्रदर्शनी है अब और बहुत ठंडे माहौल में कोई सिखा रहा है कि हाथ इस तरह काटा जाए कि खून की बूँद ज़मीन पर नहीं आसमान में गिरे या अँधा करने की ख़ुद को या दूसरों को विधि ये है कि आप लगातार स्वयं ही को दृश्य बनाये रखें
उधर बाँयी ओर राजमंदिर सिनेमा के सामने एक वेश्या से टकरा रहे दो आवारागर्दों को देखिये वे उसे ऐसे पुकारेंगे कि थोड़ी ही देर में आप एक प्रेम-कविता जैसा कुछ सुनाने लगेंगे
अब इसका क्या करें कि पाँच बत्ती चौराहा और राजमंदिर सिनेमा काल्पनिक हो ही नहीं पा रहे
3
हमशक्ल
कैसे भले लोग हैं
अब भी देख रहे हैं मेरी ओर
उसी प्यार उसी गर्मजोशी से हाथ मिला रहे हैं
उसी गहरे विश्वास और उसी कांपती उम्मीद से
सोच रहे हैं अपनी व्यथा कहने की मुझे
कैसे भोले लोग हैं
अकेले खाना तक नहीं खा सकते
इसीलिए थोड़ा बहुत हमेशा ही निकल आता है मेरे लिए
रोटी पूड़ी आचार कभी कभी दाल दही
मौका टटोल रहे हैं
कब बात कहें
कब कंधें पर सर रख दें
कब अपनी गठरी को धीरे से खोलकर
रख दें थोड़ी व्यथा
वहां से सर को हटते हुए
कैसे लोग हैं
इन्हें कोई अंदाज़ नहीं
मैं उस आदमी का हमशक्ल भर हूँ
जिसने कल रात अपने ही घर में ख़ुद को मार दिया था
4
सकुशल
यह कुछ इतनी सादा सरल भोली बात है
की आप इस पर शक करेंगे
मुझे मूर्ख नहीं मक्कार समझेंगे
फिर भी बताना चाहता हूँ
वे जो जला दिये गए
जिन्हें गोली मार दी गई
लटका दिया गया
वे मेरे भीतर आबाद बस्ती में सकुशल हैं
जो डूब गये
नसें काट ली
ज़हर पी लिया
वे वहाँ बिल्कुल ठीक हैं
आपको भरोसा तो नहीं दिला पाऊँगा
लेकिन उनमें से कुछ को रोज़गार मिल गया है
कुछ का घर बस गया है
कईयों की इज्ज़त बन गई है
आप इसे चाहे तो षडयंत्र समझें पर
जो गायब कर दिये गये
भुला दिये गये
फेंक दिये गये
वे वहाँ अपने पूरे कुनबे के साथ राजी खुशी हैं
आपसे नहीं पूछूंगा आपके भीतर ऐसी कोई बस्ती है कि नहीं?
5
वीनू
बंसल सिंगाठिया
जब मुझे कोई चित्र बनाना चाहिए मैं किसी दुल्हन को सजा रही होती हूँ
सीधी-सी बात है इस काम के हजार रुपये मिलते हैं और चित्र बनाने में इतने खर्च हो जाते हैं सच तो ये है कि मुझे यह अच्छा भी लगता है देखिए कभी बाहर निकल कर कितनी लड़कियाँ मेरे फूलों को अपने शरीर से लपेट कर घूम रही हैं कई फूल तो ऐसे हैं जैसे मैंने कभी देखे ही नहीं शायद कहीं होते ही नहीं मैं जब उन्हें देखती हूँ किसी के कुर्ते पर सजे तो मुझे वे दुनिया की सबसे अच्छी पेंटिंग लगते हैं
वैसे मेरे पास इतना समय भी कहाँ और किसी तरह अगर समय निकाल भी लूं तो क्या? सब कहते हैं मेरे पास कोई विचार नहीं और बिना विचार के चित्र कैसे बनेगा भला?
मेरे मन में तो अजीब अजीब चीजें हैं
बेटी की बारात
अपनी मौत का बार बार आने वाला सपना
फैलते हुए फूल
और बार बार
बार बार
बारम्बार
बचपन
और इन सबका भी कोई चित्र मुझसे कहाँ बना आज तक?
6
त्रिलोचन
वही जनपद
जो कला
नहीं जानता
पढ़ता है
तुलसी कृत
रामायण – कवि अपने भूखे,
दूखे जनपद
को मृत्य
की दूरी
से देखता
है,
अब कोई
सुधार नहीं
हो सकता
जीवन में
न कविता में विचित्र
कूट है
दोनों का
हो सकता
है रामकथा
महज़ राम
की कथा
न हो हो सकता
है यह
जनपद एक
अवसन्न छाया
हो मृत्यु
की दूरी
से होती
हो जो
गोचर हो
सकता है
कवि त्रिलोचन
कभी हुए
हों सजल,
उठ बैठे
हों सपनाय
जब वे
नहीं रहेंगे
किस बिधि
होगी होम
कबिता इस
घाट पर
7
कुफ़्र कुछ हुआ चाहिये
यहाँ एक नदी बहती थी अब
रेगिस्तान है गौर से देखिये ये नदी का कब्रिस्तान है कुछ ऐसी शायरी करने वाले और
हम सबको फूटी आँख ना सुहाने वाले श्री कमलकांत “हमसफ़र” चल बसे महज पचपन बरस के थे
तमाखू ने मार ही डाला आखिरकार – हम तो यूं भी दुनिया तक से दफ़ा कर ही देना चाहते
थे सब रेगिस्तान कब्रिस्तान वालों को
आख़िरी ख़्वाहिश की कद्र
जैसे तैसे करते हुए मुक्तिबोध सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार और बिड़ला
फाउन्डेशन से सम्मानित शहर के सबसे बड़े कवि हमसफ़रजी के पुराने चाय कचौड़ी मित्र
भद्रकुमार सिंह आये बोले एक जिंदादिल खुले भरे पूरे मनुष्य थे ठेठ देसी ठाठ वाली ऐसी मनुष्यता का पराभव हमारे
समय और मेरी कविता की सबसे बड़ी चिंता और चुनौती है मैं उनकी आत्मा की शांति के
लिये प्रार्थना करता हूँ मैं ना सही वे तो मेरे ख़याल से करते ही थे आत्मा आदि में
विश्वास
अंत में बोलते हुए हमसफ़रजी
के सिरहाने पिछली कई रातों से रोते रहे उनके अभिन्न अख़्तर अली ‘बेनूर’ ने कहा तू सच कहता था मेरे हमसफ़र यहाँ एक नदी
बहती थी अब रेगिस्तान है ग़ौर से देखिये ये नदी का कब्रिस्तान है
टिप्पणियाँ
bookmark कर लिया है .... मैं कभी कभी ही कुछ bookmark करता हूँ ... लेकिन जब करता हूँ तो उसे ज़रूर पढता हूँ ..... जब इस स्तर की बात अन्दर जा सके, ऎसी मानसिक स्थिति में होता हूँ .......
मगर पहली बार में ही .... छू गयी कहीं ये कवितायें ..... शुक्रिया अशोक भाई ..... इतनी उम्दा कवितायें हम तक पहुंचाने के लिए ...... यह काम जारी रखिये ..... ज़रूरी है !!
हालांकि मैं गद्द्य काव्य का कोई ख़ास प्रशंसक नहीं रहा कभी भी .. और अब भी नहीं हूँ ..... लेकिन जब बात मन तक पहुंचती है .... तो सलाम किये बिना रहा भी नहीं जाता !!!
बधाई गिरिराज जी को और आपका आभार अशोक जी...
"adbhut"