फ़िलहाल जम रहा है मेरा समय
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जमशेदपुर में रहने वाले युवा कवि प्रशांत श्रीवास्तव की कविताएँ आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं. प्रशांत उन कवियों में से हैं जिनकी कविताएँ अभी प्रिंट में उतनी नहीं आई हैं लेकिन ब्लॉग जगत के पाठक उनसे बखूबी परिचित हैं. प्रशांत की कविताएँ एक ऐसे युवा की कविताएँ हैं जो दुनिया को अपनी निगाह से देखते हुए बड़ी आसानी से अपने चारों ओर उपस्थित दृश्यों को कविता में दर्ज करता चलता है. यहाँ किसी तरह की जल्दबाजी, चमत्कृत कर देने का अतिरिक्त प्रयास या फिर बडबोलापन नहीं दिखाई देता. उनकी कविता की दुनिया बेहद मामूली चीजों के बहाने बड़े सवालों तक पहुँचने से बनती है. आप देखेंगे कि वह चादरों पर लिखते हुए उस बहुश्रुत मुहाविरे से टकराने के बहाने अपने समय की विडंबनाओं से टकराते हुए कितनी आसानी से लिख जाते हैं कि 'चादरें सिकुड़ने का हुनर जानती हैं'. प्रशांत का यह हुनर एक प्रतिभाशाली तथा संभावनाशील कवि के आगमन की सूचना देता है.
चादरें
चादरें
सिकुड़ने का हुनर जानती हैं
वे हमारी महत्वकांक्षाओं के अनुपात में
हो जाती हैं छोटी
कुछ चादरें आजीवन छोटी ही रहती हैं
मगर तब उनकी उम्र बढ़ जाती है
चादरें जब हमारी औकात से अधिक फैलती हैं
तो दबा दी जाती हैं गद्दों से
वे कसमसा के रह जाती हैं बस
रात के अंधेरों में जब हमारे बच्चों के साथ
सो जाती हैं दीवारें
चादरें कान लगा कर सुनती हैं हमारी फुसफुसाहट
देख लेती हैं हमारे मस्तिष्क में घूमता वो दूसरा चेहरा
और मौका मिलते ही हमारे अभिसार में शामिल हो जाती हैं वे भी
सुबह उनकी सलवटों में सुनाई देती है उनकी खिलखिलाहट
तब डपट कर उन्हें ठीक कर दिया जाता है फ़ौरन ही
चादरें वैसे तो मौसमों से अंजान दिखती हैं
मगर उनकी याददाश्त तेज होती है
अपने पास बैठे किसी भी व्यक्ती से
वो दबी जुबान में करने लग जाती हैं बातें
और हमें लगने लगती हैं संदिग्ध
जब बहुत दिनों तक रह आती हैं हमारे घर
तब वे कमरों पर कब्जा-सा करती प्रतीत होती हैं
मगर चाहे वो कैसा भी हक समझें
पर्दों, मेजपोशों और पुरुषों से भी पहले
हमारी स्त्रियों की अभिजात्य ऊब का शिकार हो जाती हैं
चादरें.
वह था वहीं
(अशोक वाजपेयी के गद्य ’आकाश तब भी था’ को पढ़ कर)
वह था वहीं
गद्य में कहता है कवि.
अपनी अनंतता में निमग्न
साक्षी हमारे वैभव
हमारी लिप्सा हमारी यातनाओं का.
अग्नी की कोख में जब बढ़ रहा था हमारा भयवह था वहीं
उसके ही ओट में उग रही थीं आँखें ईश्वर की
हमारे हर भय से उग आतीं नई आँखें
वहीं से छुप कर ईश्वर ने हमें प्यार किया -
सफेद कोमल बर्फ के फाहों-सा
उसने ये झूठ बरसा दिया
वह नहीं कर सकता था कुछ
’उसके लिये कहीं नहीं है’, नहीं होगा
व्योम में घुला वो हमें देखता रहेगा
समय की शर-शैय्या पर
अपने ही इतिहास से बिद्ध
संभव नहीं था कि ईश्वर तक पहुंचती कोई आवाज
न इतना अवकाश था उसे
कि हमारी अंत्येष्टियों में हो पाता शामिल
आकाश था वहीं
देख रहा था अपनी भावशून्य आँखों से
घुलते हमारा नमक पानी में
उसके पास हैं स्मृतियाँ हमारे उजाले की
हमारे अंधेरों पे वो ढक देता है चादर
जिसमें टंके हैं पुर्वज
सदाचार के किस्से सुनाते हमारे बच्चों को
जो तब्दिल हुए सितारों में
हमारी भटकन को उन बूढ़ों पर छोड़
निश्चिंतवह था वहीं तब भी
अब भी
’आकाश तब भी था’,
जब ईश्वर लिख रहा था अपनी वसीयत
और उसमें छूट जा रहे थे कई नाम
चुपचाप
अपनी अनंतता में निमग्न
वह तब भी
था वहीं.
चुप
बैठ जाते पकड़ कर
किसी लगभग भूल चुकी गज़ल का अधभूला मिसरा
दोहराते बार-बार बकायदा चढ़ा लेते जुबान पर
और क्या बात है के जवाब में
एक मासूम मुस्कान-सा कुछ
करीने से सजे अपने कमरे में लगा कर आग
तड़कती लकड़ीयों की ले आते चिंगारी थोड़ी-सी
पर लाल आँखों में रात बहुत देर खत्म हुई
किसी फ़िल्म का एक हिस्सा होता
तार उलझ जाते इतने कि टुकड़ों और कई
गांठों के बाद भी नहीं आता कोई सिरा हाथ
लग जाते देखने दूर क्षितिज की ओर
शाम का धुंधलका बोझिल-सी हवा
चाँद-तारे घर लौटते पंछी
घुस आते ज़हन में जो बकायदा एक बकवास होती
बेहद खराब लिखावट में कटा-पिटा सा कुछ दर्ज़ होता
नीचे एक हस्ताक्षर एक पता एक नंबर
एक अदृश्य बोतल में कर सीलबंद
निकल जाते दोहराते वही मिसरा
इच्छाओं के समंदर में
फेंकते पूरी ताकत से
चुप रह कहाँ पाते???
एकांत और अकेलापन
वो दो कमरों का घर है
दो निजताओं का घर है
बीच की दीवार उनका साझा है
कमरों में एकांत है
उनका निजी एकांत
हालाकी आवाजें अकसर किसी के भी एकांत को
फलांग जाती हैं
घर चुप रहता है
कमरों से कुछ नहीं कहता
कमरे भी आपस में नहीं कहते कुछ
पर एक का एकांत अकसर बहुत धीमी आवाज में
बात करता दिख जाता है दूसरे के एकांत से
कुछ निजताओं का साझा हो जाता है
जब कभी वो कमरों में छोड़ देते हैं अपना एकांत
तब वक्त हो गया होता है लंबी बातचीत का
उनकी बातचीत से ऊब कर तब उनकी निजताएं भी
चली जाती हैं दूसरे कमरे में
जहाँ सो रहे होते है दोनों के एकांत
उनके होने से खाली नहीं होते हैं कमरे
चुप होता है पर भरा होता है घर
मगर जब नहीं होता है कोई एक
दूसरे कमरे में भी भरने लगती है उसकी अनुपस्थिति
और दो एकांत की जगह
शोर मचाता आ बैठता है
एक अकेलापन
खाली
खाली है जगह -
मगर कुछ है वहाँ
सामान्य ज्ञान कहता
बस हवा है
मगर जुते हुए खाली खेत में जैसे
दबे हो सकते हैं बीज
वैसे ही वहाँ हो सकता है
अंकुरण को तैयार कुछ
दृष्टि की गहराई से परे
जैसे तारों के बीच खालीपन में
हैं कई अदृश्य नक्षत्र
वैसे ही वहाँ
किसी नवयुवती का अदृश्य प्रेम
यथार्थ से छुपता एक सपना
या एक बहुत पुरानी नींद
हो शायद
किसी वृद्ध की नजर
और मौन का घर
अक्सर लगते हैं खाली
हमारी शास्त्रीय परंपरा से विलग
संगीत के स्वर
स्याही चुक जाने के बाद लिखे
अक्षरों के निशान
अंडमान में विलुप्त हुई भाषा के
अंतिम कुछ शब्द
कुछ प्रार्थनाएं, कई मिथक
अनजानी चित्रलिपियों के अर्थ
मृत्यु का रहस्य और
फ़ीनिक्स की राख
हो सकती है वहाँ
वह जो बची है
थोड़ी-सी खाली जगह
उसे यूं ही
रहने दो अभी.
वो बेहद आसानी से मर सकते हैं
किसी तेज धार चाकू से
उनकी नाक के आगे
हवा काट दी जाये
तो वो मर सकते हैं
वो हर वक्त रहते हैं खौफ़जदा-
प्रेम करते हुए वे अपनी
धड़कनों को गिनना नहीं भूलते
और न ही सीढ़ीयों को गिनना
उतरते हुए.
कहीं कट न जाये उनकी
बांई हथेली पे खिंची जीवनरेखा
अब वो अपनी मुट्ठीयाँ नहीं बांधते
नींद की गोलीयाँ हैं तज़वीज़ उन्हें
कि अचानक गर खुली नींद
तो वो मर सकते हैं
वैसे ऐसा कोई काम बंद नहीं किया उन्होंने
जिसमें साधारण सी मौत का हमेशा ही इंतजाम रहता है
जैसे सड़क पर चलना या गरजते बादलों के बाद भी
सूखते कपड़ों को छत से उतारना
मगर जरा गौर से देखें तो उन्हें
अपने बच्चों की तरह खुद की उंगलियां
खुद के अदृश्य हाथों में थामे
देख सकते हैं हमेशा
वो बेहद आसानी से मर सकते हैं
ऐसे की जैसे उंगली को आहिस्ता से रख देने पर
एक छोटी सी काली चींटी मर जाती है
आप कह सकते हैं कि
अक्सर उंगली हटाने पर
चींटी मरी हुई नहीं पाई जाती
तिलमिलाई-बौखलाई वो
आड़े-तिरछे टांगों से दौड़ पड़ती है
या बड़ी देर तक तड़पती है तभी मरती है
मगर जनाब मेरी विनती है
आप बाल की खाल न निकालें
मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है
कि सारे संकेत इसी बात के हैं
और वो खुद वाकिफ़ भी हैं इस बात से
कि वो
बड़ी आसानी से मर सकते हैं.
समय
मेरा समय एक पेड़ से छन कर आती धूप नहीं
कि बहुत चमकीले सूरज और
कंपकंपाती हवा से बच कर
बैठ जाया जाए रोशनी के टुकड़ों पर
पानी में बेखटके उथली तैरती
मछली नहीं कि मौन खड़े हो
देखी जाये उसके गलफ़ड़ों की हरकत
किसी लौ की तरह दहकता
लोहे की भट्ठी से लपककर उठी चिंगारी
और बादल पर बिजली की एक लंबी आड़ी-तिरछी लकीर की तरह
नज़र आया है समय
गायब नहीं हुआ वैसे
गले में कच्चे कोयले का स्वाद छोड़
भींची आखों को पानी और थोड़ी-सी जलन दे कर
जैसे हवा में घुल जाता है धुंआ
एक लगभग तय रफ़्तार से पिघल कर
हथेली के छेद से टपकते
मद्धम आंच में उंगलियों को सेंकता
मेरी तलहटी में गर्म मोम सा
फ़िलहाल
जम रहा है मेरा समय
प्रशांत श्रीवास्तव
जन्म - १६ फरवरी, १९७५
फिलहाल जमशेदपुर में नौकरी करते हैं. कविताएँ कई ब्लाग्स पर प्रकाशित और अब कुछ पत्रिकाओं में भी प्रकाश्य
संपर्क - prashantinjsr@gmail. com
टिप्पणियाँ
'चादरें', 'खाली समय', 'वो बड़ी आसानी से मर सकते हैं', 'एकांत और अकेलापन' खासाप्रभाव छोड़ने वाली कविताएं हैं. अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति! अभी तक उनकी कविता 'एकांत और अकेलापन' ही पढ़ी थी.
'चादरें', 'खाली समय', 'वो बड़ी आसानी से मर सकते हैं', 'एकांत और अकेलापन' खासाप्रभाव छोड़ने वाली कविताएं हैं. अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति! अभी तक उनकी कविता 'एकांत और अकेलापन' ही पढ़ी थी.
पहली बार आपके ब्लॉग के दर्शन हुए..
असुविधा भी भायी...सो चुन लिया.
शुभकामनाएँ.