कितने तो रंग हैं - देवयानी भारद्वाज की कविताएँ
देवयानी भारद्वाज से मुलाक़ात सबसे पहले 'कविता समय' पुस्तिका के प्रकाशन के दौरान हुई थी. फिर जयपुर में रु ब रु मिला और उनकी कविताएँ सुनी. उन्हें पढ़ना एक ऐसे अलमस्त कवि को पढ़ना लगा जिसके लिए प्रेम रोजमर्रा के जीवन से बाहर की कोई चीज़ नहीं है, जिसके लिए स्त्री की आजादी का सवाल कोई अकादमिक सवाल नहीं है, जिसके लिए अपनी उस आजादी की तलाश एक मुसलसल जद्दोजेहद ही नहीं बल्कि जिंदगी जीने का सलीका भी है.
एक दिन मैं कर
लूँगी बन्द घर के दरवाज़े
माहिर पतंग बाज
हो तुम
बखूबी जानते हो काटना दूसरों की पतंग
लम्बी ढील में
लट्टू को अपने
इशारों पर नचाना आता है तुम्हें
कायल हैं लोग
तुम्हारे इस हुनर के
तुम्हारे टेढे
सवाल कर देते हैं लाजवाब
रंगों की
अराजकता कोई तुमसे सीखे
एक दिन लोग खोज ही लेंगे कि
ढील में पेच
लडाने वालों की पतंगों को
कब् और कैसे
मारना हैं खेन्च
लट्टू अन्ततः
लट्टू ही है
यदि तुम समझ
बैठे हो कि
ऐसे ही नचा लोगे
धरती को भी अपने इशारों पर
सिर्फ एक डोर्
मे उलझा कर
तो ज़रा सावधान
रहना
कैन्वास कर सकता
हैं ऐताराज़ किसी रोज और कहेगा
इतना ही अराजकता
के साथ् बरतना है यदि रंगों को
तो खोज लो अपने
लिए कोई और ज़मीन
हमारी सफैद पीठ
को मन्जूर नहीं
तुम्हारी यह
धमाचौकड़ी
एक दिन मैं कर
लूँगी बन्द घर के दरवाज़े
उस दिन
कौनसा दरवाज़ा
खटखटाओगे
इस फैले हुए
भुमंडल पर कहाँ पैर टिकाओगे
अगर बच्चों ने
कर दिया इन्कार पह्चानने से
तो क्या करोगे
अपने उस बडे से नाम का
जिसे तुम अपने
इस हुनर से कमाओगे
इस तरह मत टूटना
मुरझाना तो इस
तरह जैसे
मुरझाते हैं
अनार के फूल
एक नए फल को
जन्म देते हुए
जो भरा हो
असंख्य सुर्ख लाल रसीले दानों से
झरो तो इस तरह
जैसे
झरते हैं
हारसिंगार के फूल मुंह अन्धेरे
धरती पर बिछा
देते हैं चादर
जिन्हें चुन
लेती हूँ मैं
सुबह सुबह
टूटना तो इस तरह
जैसे
टूटता है बीज
जब जन्म लेता हैं नया अंकुर
जीवन की
सम्भावना लिए अपार
गिरना किसी झरने
की तरह
सर सब्ज कर देना
धरती
सूखे पत्ते की तरह मत झरना
इस तरह मत टूटना
जैसे टूटता है
हृदय प्रेम में
मरुस्थल की बेटी
क्या तुम्हे याद हैं
बीकानेर की काली
पीली आन्धियाँ
उजले सुनहले दिन
पर
छाने लगती थी
पीली गर्द
देखते ही देखते
स्याह हो जाता था
आसमान
लोग घबराकर बन्द
कर लेते थे
दरवाज़े
खिड़कियाँ
भाग भाग कर
सम्हालाते थे
अहाते मे छूटा
सामान
इतनी दौड भाग के
बाद भी
कुछ तो छूट ही
जाता था जिसे
अन्धड़ के बीत
जाने के बाद
अक्सर खोजते
रहते थे हम
कई दिनों तक
कई बार इस तरह
खोया सामान
मिलता था पडौसी
के अहाते मे
कभी सडक के उस
पार फँसा मिलता था
किसी झाडी में
और कुछ बहुत
प्यारी चीजें
खो जाती थीं
हमेशा के लिए
मुझे उन
आन्धियों से डर नहीं लगता था
उन झुल्सा देने
वाले दिनों में
आँधी के साथ्
आने वाले
हवा के ठंडे झोंके बहुत सुहाते थे मुझे
मैं अक्सर चुपके
से खुला छोड देती थी
खिड़की के पल्ले
को
और उससे मुंह
लगा कर बैठी रहती थी आँधी के बीत जाने तक
अक्सर घर के उस
हिस्से मे
सबसे मोटी जमी
होती थी धूल की परत
मैं बुहारती उसे
अक्सर सहती थी
माँ की नाराज़गी
लेकिन मुझे ऐसा
ही करना अच्छा लगता था
बीते इन् बरसों
में
कितने ही ऐसे
झंझावात गुज़रे
मैं बैठी रही
इसी तरह
खिड़की के
पल्लों को खुला छोड
ठण्डी हवा के
मोह मे बंधी
अब जब की बीत गई
है आँधी
बुहार रही हूँ
घर को
समेट रही हूँ
बिखरा सामान
खोज रही हूँ
खो गई कुछ बेहद
प्यारी चीजों को
यदी तुम्हे भी
मिले कोई मेरा प्यारा सामान
तो बताना ज़रूर
मैं मरुस्थल की
बेटी हूँ
मुझे आन्धियों
से प्यार है
मै अगली बार भी
बैठी रहूँगी इसी तरह
ठण्डी हवा की आस
में
मन करता है
मन करता है
धरतीनुमा इस
गेंद को
लात मारकर लुढ़का
दूं
मुट्ठी में कर
लूं बन्द
सुदूर तक फैले
इस आसमान को
या इसके कोनों
को समेटूं चादर की तरह
और गांठ मार कर
रख दूं
घर के किसी कोने
में
नदियों में
कितना पानी
यूं ही व्यर्थ
बहता है
इसे भर लूं मटकी
में
और पी जाऊँ सारा
का सारा
इन परिन्दों के
पंख
क्यूं न लगा दूं
बच्चों की पीठ
पर
और कहूँ उनसे
उड़ो
भर लो उन्मुक्त
उड़ान
चीर दो इस नभ को
इस कायनात में
कोई भी सुख ऐसा न रहे
जिसे तुम पा न
सको
कोई भी दुख ऐसा
न हो
जिसकी परछायी छू
भी सके तुमको
बहुत अदना सी है
मेरी पहचान
बहुत सीमित है
सामर्थ्य
एक माँ के रूप में
लेकिन कोई भी
ताकत इतनी बड़ी नहीं
जो रोक सके
उन्हें
इस जीवन को जीने
से
भरपूर
मेरे रह्ते
नींद से जागती
हूँ
जैसे गोली छूटती
है बन्दूक से
सोती हूँ जैसे
धावक बैठा हो तैयार
दौड के लिए
शुरू होता है
दिन
एक ऐसी दौड की
तरह
जिसमे जीत का
लक्ष्य नहीं
एक ऐसी मैराथन
जिसके लिए
नहीं है सामने
कोई धावक
थामने को मशाल
किसी भी निश्चित
दूरी के बाद
अपनी मशाल को
अपने हाथों मे
थामे मजबूती के साथ्
खत्म होती है
दौड
हर रात
ढ़हती हूँ फिर
नींद के आगोश में
बचपन से सिखाया
गया हमें
रिक्त स्थानों
की पूर्ति करना
भाषा में या
गणित में
विज्ञान और समाज
विज्ञान में
हर विषय में
सिखाया गया
रिक्त स्थानों
की पूर्ति करना
हर सबक के अन्त
में सिखाया गया यह
यहाँ तक कि बाद
के सालों में इतिहास और अर्थशास्त्र के पाठ भी
अछूते नहीं रहे
इस अभ्यास से
घर में भी
सिखाया गया बार बार यही सबक
भाई जब न जाए
लेने सौदा तो
रिक्त स्थान की
पूर्ति करो
बाजार जाओ
सौदा लाओ
काम वाली बाई न
आए
तो झाड़ू लगा कर करो रिक्त स्थान की पूर्ति
माँ को यदि जाना पड़े बाहर गांव
तो सम्भालो घर
खाना बनाओ
कोशिश करो कि कर सको माँ के रिक्त स्थान की पूर्ति
यथासम्भव
हालांकि भरा नहीं जा सकता माँ का खाली स्थान
किसी भी कारोबार से
कितनी ही लगन और मेहनत के बाद भी
कोई सा भी रिक्त स्थान कहाँ भरा जा सकता है
किसी अन्य के द्वारा
और स्वयम आप
जो हमेशा करते रहते हों
रिक्त स्थानों
की पूर्ति
आपका अपना क्या बन पाता है
कहीं भी
कोई स्थान
नौकरी के लिए
निकलो
तो करनी होती है
आपको
किसी अन्य के
रिक्त स्थान की पूर्ति
यह दुनिया एक
बडा सा रिक्त स्थान है
जिसमें आप करते
हैं मनुष्य होने के रिक्त स्थान की पूर्ति
और हर बार कुछ
कमतर ही पाते हैं आप स्वयं को
एक मनुष्य के
रूप में
किसी भी रिक्त
स्थान के लिए
कैसी गुनगुनी थी
जाड़े की वो सुबहें
जो हमने
विश्वविद्यालय से अल्बर्ट हाल तक के रास्तों को
कदमों से नापते
हुए गुजार दीं
जून की तपती
दोपहरों मे बैठे हुए कनक घाटी मे
किसी छतरी के
नीचे
या किसी झाडी की
ओट मे
धूप कभी तीखी
नहीं लगती थी
किस तरह उमड आता
था हिलोरे मारता प्यार
कि हम खुद ही
लजा जाते थे एक दूसरे के आगे
न अपना होश था
न जमाने की
परवाह
कितने खाली हाथ
थे हम
कितने निहत्थे
कोई दावा नही
कोई अधिकार नही
न कोई अपेक्षा
न उम्मीद
बस इतना ही चाहा
था
बस इतना ही सहा
नही गया
बस इतना ही
सम्भाला नही गया
अब यहाँ खिली जाड़े की धूप झुल्सा रही है मन को
और मन के भीतर
उठ रहे हैं अन्धड़
जैसे कि पसरा हो
वहाँ
जून का मरुस्थल
इस बार यह अकाल
कुछ ज्यादा ही जानलेवा गुज़रेगा
मन के कोठार मे
एक दाना भी तो
नही बचा है किसी कोने मे
क्या बुहारूं
क्या समेटूं
खाली घडों के
पेंदे तक मे नही बची है पानी की कोई बूँद
१.
वे रंगों को
बिखेर देते हैं कागज पर
और तलाशते रहते हैं उनमे
औघड रूपाकार
सब चीजों के लिए
कोई नाम है उनके पास
हर आकार के पीछे
कोई कहानी
बनती बुनती रहती है उनके मन में
कभी पूछ कर तो देखो
यह क्या बनाया है तुमने
झरने की तरह बह निकलती हैं बातें
नही, प्रपात की तरह नही
झरने की तरह
मीठी
मन्थर
कहीं थोडा ठहर जाती
और फिर
जहाँ राह देखती
उसी दिशा मे बह निकलती
भाषा जहाँ कम पड़ने लगती है
उचक कर थाम लेते हैं कोई सिरा
मानो
गिलहरी फुदक कर चढ़ गई हो
बेरी के झाड पर
उनसे जब बात करो
तो बोलो इस तरह
जैसे बेरी का झाड
बढा देता है अपनी शाख को
गिलहरी की तरफ
वे
फुदक कर थाम लेंगे
आपके सवालों का सिरा
पर जवाब की भाषा
उनकी अपनी होगी
२.
उसने अपनी
उँगलियों के पोरों को
डुबोया हरे रंग मे
और
खींच दी हैं लकीरें
हृदय पर
उसने गाढ़े नीले से
रंग दिया है फलक को
सुर्ख लाल रंग को
बिखेर दिया है उसने
घर के आँगन मे
पीले फूलों से ढक दिया है उसने
आस पास की वनस्पतियों को
उसे हर बार चाहिए
नया सफैद कागज
जिसे हर बार
सराबोर कर देना चाह्ता है वह रंगों से
बच्चा रंगरेज़
३.
धूप और बारिश के बीच
आसमान मे तना इन्द्रधनुष हैं
मेरे बच्चे
आच्छादित है फलक
उनकी सतरंगी आभा से
जिसके आर पार पसरा है
हरा सब ओर
उनके पीछे
कहीं ज्यादा गाढा हो जाता है
आसमान का नीला
कहीं ज्यादा
सरसब्ज हो जाती है धरती
हरे के कितने तो
रंग हैं
एक हरा जो पेड की सबसे ऊँची शाख से झाँकता है
एक जिसे छू सकते हैं आप
बढ़ाते ही अपना हाथ
एक दूर झुरमुटों के बीच से दिखाई देता है
एक नयी फूटती कोंपल का हरापन है
एक हरा बूढ़े पके हुए पेड़ का
एक हरा काई का होता है
और एक
पानी के रंग का हरा
कितने ही तो हैं आसमानी के रंग
रात का आसमान भी आसमानी है
सुबह के आसमान का भी नहीं है कोई दूसरा रंग
ढलती साँझ का हो
या हो भोर का आसमान
अपनी अलग रंगत के बावजूद
आसमानी ही होता है उसका रंग
मन के भी तो कितने हैं रंग
एक रंग जो डूबा है प्रेम में
एक जो टूटा और आहत है
एक पर छाई है घनघोर निराशा
फिर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता
एक तलाशता है खुशी
छोटी छोटी बातों में
छाई रहती है एक पर उदासी फिर भी
एक मन वो भी है
जिसे कुछ भी समझ नहीं आता है
जो कहिं सुख और दुख के बीच में राह भटका है
यह समय गुमराह
करने का समय है
आप तय नहीं कर सकते
कि आपको किसके साथ खड़े होना है
अनुमान करना असम्भव जान पड़ता है
कि आप खड़े हों सूरज की ओर
और शामिल न कर लिया जाए
आपको अन्धेरे के हक में
रंगों ने बदल ली है
अपनी रंगत इन दिनो
कितना कठिन है यह अनुमान भी कर पाना
कि जिसे आप समझ रहे हैं
मशाल
उसको जलाने के लिए आग
धरती के गर्भ में पैदा हुई थी
या उसे चुराया गया है
सूरज की जलती हुई रोशनी से
यह चिन्गारी किसी चूल्हे की आग से उठाई गई है
या चिता से
या जलती हुई झुग्गियों से
जान नहीं सकते हैं आप
कि यह किसी हवन में आहूती है
या आग में घी डाल रहे हैं आप
यह आग कहीं आपको
गोधरा के स्टेशन पर तो
खड़ा नहीं कर देगी
इसका पता कौन देगा
जान
तुम्हारी
कवितायेँ मेरे भीतर एक कोहराम मचा देती हैं
मैं जैसी भी हूँ
ठीक ही हूँ
हवाएं अब भी
सहलाती हैं मुझे
बस तुम्हारी
छूअन नहीं तो क्या
धूप अब भी उतनी
ही तीखी है
बस अब बारिशों
का इंतज़ार नहीं रहा
एक रास्ता है
एक रास्ता है
जो दूर अनंत तक
जाता है
एक चाह है
जो उस अनंत के
पार देखती है हमे साथ
तुम बैठे हो
मूढे पर
तुम्हारी गोद
में मेरी देह ढुलक रही है
तुम्हारे हाथ
गुदगुदा रहे हैं मुझे
और मेरे चेहरे
पर तैर रही रही हंसी का अक्स
झलक रहा है
तुम्हारी आँखों में
और तुम्हारी
उँगलियों की सरगम में भी
यह तुम्हें
फंसाने कि साजिश नहीं
याद है विशुद्ध
जिसका छाता तान
चलना सोचा है
मैंने
इस लम्बी तपती
राह पर
जो अनंत तक जाती
है
जिस अनंत के छोर
पर
हम खड़े हैं साथ
तुम्हारे सीने
में धंसा लिया है
मैंने अपना
चेहरा
तुमने कस कर भर
लिया है मुझे अपने बाहों में
यह बात दीगर है
कि
शेष प्राण नहीं
हैं उस देह में
यह अंतिम विदा
का क्षण है
हमने सडकों पर
पागलपन में भटकते हुए बिताई है रातें
करते हुए ऐलान
अपने पागलपन का
हमने बिस्तर में
झगड़ते हुए बिताई है कई दोपहरें
ढूँढते हुए
प्यार
हमारी यही नियति
है
कि हम लिखें इस
तरह
कि कर दे लहू
लुहान
और देखें एक
दूसरे कि देह पर
अपने दिए
नख दन्त क्षत के
निशान
हम प्रेम और
घृणा को अलग अलग देखना चाहते हैं
हमारे ह्रदय में
जब उमड़ रहा होता है प्रेम
उस वक़्त पाया
है मैंने
सबसे ज्यादा
पैने होते हैं हमारे नाखून
तीखे होते हैं
दांत उसी वक़्त सबसे ज्यादा
प्रेम तुम्हारी
यही नियति है
तुम निरपेक्ष
नहीं होने देते
न होने देते हो
निस्पृह
तुम क्यों घेर
लेते हो इस तरह
कि खो जाता है
अपना आप
कि उसे पाया
नहीं जा सकता फिर कभी
मुझे कभी कभी उस
बावली औरत कि याद आती है
जो भरी
दोपहरियों में भटकती थी सडकों पर
भांजती रहती थी
लाठी यहाँ वहां
किसी के भी माथे
पर उठा कर मार देती थी पत्थर
उसका पति खो गया
था इस शहर में
जिससे उसने किया
था बेहद प्यार
उसकी याद में
उसे सारा शहर सौतन सा नज़र आता था
प्रेम में इंसान
कितना निरीह हो जाता है
कितना निरुपाय
और निहत्था
जान
इस बार मत करना
किसी से प्यार
यदि करो भी तो
कम से कम उसे
यकीन मत दिलाना
बार बार इस तरह
किसी का दिल दुखाना
तुम्हारे चेहरे
पर जंचता नहीं है
या कम से कम
इतना करना
कि बस थोड़े से
सरल हो जाना
टिप्पणियाँ
bahut achchhi kavitayen hain.
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हरे के कितने तो रंग हैं?
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पहली बार देवायानी को पढा -
और इन कविताओं में भी कई रंग हैं - आशा, निराशा, प्रेम, सपने, यथार्थ ...
बधाई - देवयानी को कविताओं के लिये और आपको ये कविताएँ सामने लाने के लिये -
आपकी बेबाक टिप्पणियों का स्वागत है।
आईये अहो रूपम अहो स्वरम से आगे निकल ख़ुलकर कहने की हिम्मत करें
अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा
आपका स्वागत :)