विपिन चौधरी की कविताएँ
विपिन चौधरी हिन्दी की उन युवा कवियत्रियों में से हैं जिन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है. 'दस्यु सुंदरी' जैसी कविता समकालीन स्त्री विषयक कविताओं की भीड़ में अलग से पहचानी जा सकती है. विपिन न केवल स्त्री विषयों का अतिक्रमण कर समकालीन समय की तमाम विडंबनाओं को प्रश्नांकित करती हैं. असुविधा पर उन्हें पहली बार प्रकाशित करते हुए हम उनका एहतराम करते हैं.
1 दस्यु सुंदरी
किसी रोज़ हम एक दस्यु सुन्दरी से मिलने गए थे
सदी यही थी
तारीख और साल दिमाग की तंत्रिकाओ में गुम हो गए हैं
उस रोज़ दस्यु सुंदरी से बाकायदा हमने गर्मजोशी से हाथ भी मिलाया
मुलाकात से पहले जहन मे फिअरलेस नाडिया सी चंचल युवती का अक्स हमारी आखों के दायरे में था
सुंदरी से मिलने पर लगा पुराने फ्रेम मे तस्वीर बदल दी गयी है
वीरान, बेरौनक, अथाह ग़मगीनी मे लिपटी
एक बारीक काया
फिर भी हमें अपने आस पास बीहड जंगल का भान होने लगा
हम डरते नहीं थे पर
मामला दस्यु सुन्दरी का था
एकबारगी यह भी लगा अचानक इस सुन्दरी ने हम पर हमला कर दिया तो
हम निहत्थों की लाश भी अपने ठिकाने नहीं पहुंचेगी
पर उस खामखयाली की उम्र कुछ पलों की थी
सींखचों को थामे दस्यु-सुन्दरी भूतकाल का खोया सिरा तलाशती तो
हर बार उसकी गिनती गड़बड़ा जाती
बार-बार उसे अंधेरी कोठरी में गहरे उतरना पड़ता
ठाकुर, कुंआ, चंबल, बन्दूक, आंसू, चीख
उसके स्लेटी जीवन का पहाडा इन्हीं चीजों ने मिलकर लिखा था
यह ताबीज दादी ने बचपन मे पहनाई थी
पूछने पर उसने बताया
सब कुछ लुटने के बाद यह ताबीज़ उम्मीद की तरह उसके सीने से लगी हुई थी
अपने अकालग्रस्त बचपन की देहरी लांघ कर
वह जवानी के उस बेड़े मे शामिल हुई
जहाँ शामियाने में छुपी हुई कई कीले
उसके जिस्म पर एक साथ चुभी
जवान जहान संसार ने
उसका वह निवस्त्र पागलपन भी देखा
जो पुरुष की छाया के आभास पाते ही अपना सब कुछ उघाड़ कर रख देता था
सुन्दरी के निशाने पर
पहला भी पुरूष
दूसरा भी पुरूष
और आखिरी भी पुरूष ही था
धरती पर मौजूद इस प्रजाति के प्रति वाजिब घृणा के बावजुद
दस्यु सुंदरी अब भी
इक पुरूष के वरण की आस को पाल कर
नारीवादियों की तिरछी नज़र की शिकार बनी हुई थी
इधर हमें भी अपने पुरुष-अवतार पर संदेह रहा होगा
या फिर हमारी चमकीली खानदानी विरासत के चलते
हमारी स्मृतियों ने दस्यु सुन्दरी की भयावह कहानी को भूलने पर मजबूर किया
याद रही तो केवल वह विश्व सुन्दरी
जो प्लास्मा टीवी के भीतर हिलती डुलती थी और
जिसकी विस्तृत नीली आँखों मे कई नक्षत्र गोते लगाने का जोखिम उठाते रहे थे.
2- हमारा डम्मी
किसी अलमस्त बेहोशी में हम नेक काम कर दिया करते हैं गाय को आटा
या काले कुते को दो सुखी बासी रोटी डालने का बेजोड काम इसी तरह
धुप मे पेन बेचती लडकी से १० रुपये का पेन खरीद कर
हम समाज के प्रति अपना उतरदायित्व निभाते आये थे
हम अपने आप मे कम अजूबे नहीं हैं
पर एक सामान्य आदमी की काया की सीमा मे बंधे
हम बौने हो गए हैं
दुनिया का बड़ा से बड़ा अजायबखाना हमे जगह दे कर धन्य हो जाता
हमे दुनिया के राहों पर खुला छोड़ दिया गया
किसी चमत्कारिक काम को अंजाम देने के लिये
पर हम हारे हुए शतरंज के खिलाड़ी ही साबित हुए
सुबह नहा धो कर तरोताजा हो दफ्तर जाते
शाम को मुह लटकाये महगाई को गाली देते हुए
गाल बजाते हुए घर लौट आते
हमारे इस संकीर्ण टाइम टेबल से खुदा सबक ले तो बेहतर हो
संभव है कि वह मनुष्य पर एकतरफ़ा तरस खाते हुए
आगे से मनुष्यता के लिये निर्धारित समय सारिणी भी भेजे
हम बंधी बंधाई रूढिगत चीजों के घोर आदि हैं
यह अलग बात है कि हमे होश आने से पहले बेडियो मे बाँध दिया गया था
हम दुबारा इस्तेमाल न आ सकने वाली प्लास्टिक की थैली की तरह थे
हमारे बंधुओं की योग्यता को सींच कर ऊँचे लोगों ने अपने अपने घडे भर लिये
पर हम मिटटी के माधो ही बने रहे
हमारा "यूज एंड थ्रो" के संशाधन में सिमट
कूड़े के ढेर पर फैंका जाना लगभग तय था
हम बेमौत मारे जाने वाले थे
फिर भी हम थे
और थे
और हैं
और रहेंगे
अपनी अरबो खरबो की जनसँख्या में महफूज़
3- अपनी एकता के बलिहारी
तुम्हारी भूख और मेरी प्यास एक नहीं थी
फिर भी एक ही सिक्के की उलट-पलट थे हम
चाहे किसी भी कोण से दिखे
हमे एक जैसा ही दिखना था
भिन्डी, तोरी, प्याज़, मोटर कार, चप्पल उसी सहज भाव से खरीदने थे
जिस सहज भाव से हम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे के दरों पर सजदा करते आये थे
हमे स्वतंत्र देश के गुलाम नागरिकों की तरह झूठी एकता मे बंधे नज़र आना था
वैमनस्य के सूक्ष्मतर कीटाणुओं को अपने भीतर किसी सुरक्षित तल मे छुपाते हुए
हमारे जबडे को इस कदर बंद दिया गया कि हम
इधर उधर मुह न मार सके
उस पर सड़ी गली धारणाएं हमारे भीतर उड़ेल दी गयी
ताकि हर वक़्त हम सिर हिलाते हुए जुगाली करते रहे
यही हाल हमारे रिश्तों का था
हमारे ऊपर एक औरत को बिठा दिया गया था
जो हमे घर गृहस्थी के कायदे क़ानून सिखाती थी
और जो पुरुष था वह
अपने पुरुषत्व से ही इतना परेशान था
कि यही परेशानी उसके आस-पास को जला डालती थी
हम सबके घर-बार थे
फिर भी हमे बहार का रास्ता अज़ीज़ था
जब हम घर में होते तो
बाहर की रंगरेजी खुशियाँ खिडकीयों, रोशनदानो से छन- छन कर आती थी
और जब हम उनकी उत्पति के नज़दीक जाते तो वे मायावी चीज़े
बिना विस्फोट के अंतर्ध्यान हो जाती
कई बार अपने-आप की चौकीदारी करते-करते
परेशान और बेकाबू हो
दूसरे घरों के दरवाजे खटखटाते हुए पाए गए
जिन पर हमारा अधिकार नहीं था उन्हे अपने अधिकार के घेरे में लाने
के जोखिम में हमने अपना खून पसीना एक कर दिया
पर बात तब भी नहीं बनती दिखाई पडी
तब हम बनैले पशु में तब्दील हो गए
दिन-रात हम अपने आप से लडते जाते
और लहू लुहान होते जाते
भारी तादाद में असलहा-.बारूद इकट्ठा हो चला था हमारे भीतर
उसकी कालिमा की प्रतिछाया को हर रोज़ हम अपने आईने में स्पष्ट देखते
अपने हमशक्ल को हम हमेशा अपने बगल में दबाये रहते
यह ऐसा सुविधा का रास्ता था जो किसी किताब मे दर्ज होने से छूट गया था
इस अविष्कार पर हमारा अपना पेटेंट था
आवश्यकता आविष्कार की जननी है
तो हमे आवश्यकता की इसी शह पर
अपने लिये इस आविष्कार को अंजाम दिया
जिसने कल अदालत मे झूठा बयान दिया
और कल जो नायक से खलनायक बना था
वह भी किसी हमशक्ल का ही कारनामा था
नकली हमशक्ल आदमी तो बार मे नशे में टुन्न रह ऐश काटता और
जो खालिस था वह अपनी टूटी रबर की चप्पल से साएकिल पर पैडल मार
कोसों मील का सफर तय कर
कारखाने की ९ से ५ की समय सारिणी मे खटता आया था.
4- उन खाली दिनों के नाम
जब जीवन की धीमी रफ्तार भी पकड़ में नहीं आ सकी थी
नामालूम सी गतिविधियाँ
बेबस परेशानियां खुद हलकान थी
मन के घुड़सवारों को ठीक से दाना-पानी नहीं मिला था
उन्हीं मंद दिनों ने बैरागी बनने की प्रबल इच्छा जगा दी थी
उदास दिनों में मन खुद ब खुद हिमालय का मानचित्र तैयार करने लगा था
बेरौनक और साफ़ अहाते में बिना दुशाले के निकल आते थे उन दिनों हम
पिता के संरक्षण और माँ की ममता से महरूम
वे दिन अपने हाल पर जीने के अनाथ दिन थे
प्रेम की नरमाई और असमंजस से परे
बिखरे, छितरे दूर तक पसरे हुए दिन
औने-पौने दिनों की फफूंदी से कही दूर
हर रोज़ की गुत्थमगुत्था की उधेड़बुन से अलग
साफ़ सुथरे, सुलझे
अलगनी पर टंगे कपड़ो जैसे दिन फैले हुए दिन
उस दिनों के सिरे पर टंगी रातो को सपने भी राह भूल गए थे
तभी दुनिया और सपनो का सांझी रणनीति का पता चला
दुनियादारी की तरफ पीठ मोड़ कर बैठे थे हम उन दिनों
और सपनो और दुनियादारी का कोई गुप्त समझौता था
हर दस्तक को अनसुना कर एकांत हठयोगी से दिन
चिन्ताओ का पिंडदान कर दिया था तब हमने
मेजपोश सी सीधी बिछी हुई प्रतीक्षा से
समुचित दूरी बना कर
उन दिनों हमने ढलती गुलाबी शाम को भरपेट पिया
सफ़ेद चादर के चारों कोनों को मजबूती से गाँठ बाँध कर सोये
पाषाण युग की निर्ममता पर निशाना साध कर
उन दिनों हम अपने पालतू सपनों को एक एक कर उड़ा देना चाहते थे
यह भी देखना चाहते थे कि उन सपनो को कितना बड़ा आस्मां मिलता है
बरसो खून टपकता आया था इन सपनो का हमारी रूह के आँगन मे
और इनके फलित न होने का मलाल, मलाल बन कर ही रह गया था
फिर भी ये सपने जाते-जाते अपने पदचिन्ह छोड गए थे
जब कुछ चुनने की बारी आई तो
कतारबद्ध दिनों की कभी न छोटी पड़ने वाली श्रंखला मे
हमने उन्ही बेजोड दिनों को चुना
अब तक जिनका एक टुकड़ा भी हमने नहीं चबाया था
सर पर गमछा बांधे वे दिन
गिलहरी की चपलता को देखते देखते ही गुज़र जाते और
फिर भी दिन के किसी पहर को खोने का भी मलाल नहीं होता
गैस की गंध धमनियों मे उतरती रहती और हम निश्चित
और कोई दिन होते तो मारे डर के हमारी गठरी बंध गयी होती
पर ये नायब दिन थे
हम उन दिनों के नज़दीक जा बैठने का सुख भी अनचखा और सौंधा था
जब कभी दिनों के दर्ज करने की कयावाद होगी तो
हमारे खाते मे वे दिन ही शोर मचाएंगे
टिप्पणियाँ
vipinji ko badhai...
aur ashok bhai ko shukriya...
http://srishtiekkalpana.blogspot.in/
सुधीर कुमार सोनी