हरिया जाएगा मन का कोना अंतरा
राकेश पाठक पेशे से पत्रकार हैं. नई दुनिया के ग्वालियर के संपादक. ज़ाहिर है कि इनसे परिचय तमाम कार्यक्रमों के दौरान मेल-मुलाकातों के दौरान ही हुआ था. मेधा प्रकाशन से प्रकाशित उनके संस्मरण "काली चिड़ियों के देश में" पढते हुए लगा कि इस पत्रकार के भीतर कहीं गहरे एक कवि बैठा है. फिर मिलने-जुलने के साथ-साथ उस कवि की कारगुजारियां भी सामने आईं.
राकेश पाठक की कवितायें एक परिपक्व प्रेमी और सहृदय पुरुष की कवितायें हैं जहां राजनीतिक रूप से सही होने पर उतना जोर नहीं जितना एक मनुष्य के रूप में ईमानदार और सहज बने रहने पर है. यहाँ प्रेम है, स्मृतियाँ हैं और मनुष्यता का एक भरा-पूरा संसार. असुविधा पर आ रही उनकी ये कवितायें नेट पर छपी पहली कवितायें हैं. हम इसे अपनी एक और उपलब्धि के रूप में दर्ज कर रहे हैं.
- लौट आना
लौट आना इस बार भी
जैसे लौटती रही हो अब तक
लेकिन लौट आना
वसंत के पहले दिन से पहले
लौट आना
सावन की पहली बारिश में
मिट्टी की सौंधी गंध से पहले
पूस के महीने में जब आसमान
से चांदी की तरह झरने वाली हो ओस
ठीक उससे पहले लौट आना.
जेठ में जब सूरज से
बरसने लगे आग और सुलगने लगे धरती
कुछ भी हो जाए उससे पहले
तुम लौट ही आना.
हमें साथ-साथ ही तो
चुनने हैं वसंत में पहली बार खिले फूल
पहली बारिश के बाद
गीली मिट्टी पर बनाने हैं
दो जोड़ी पांव के निशान
ठिठुरती सर्दी में बरोसी के पास बैठ
करनी हैं ढेर सारी कनबतियां
और जेठ की तपती दुपहरी में
तुम्हारे सुलगते होठों पर
रखनी है गुलाब की पंखुड़ियां
जीवन की वही आस
और चेहरे पर हास लिए
मेरे विश्वास की तरह
तुम जरूर लौट आना.
- लड़की हंसना भूल गई है
संभलकर चला कर
बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं, जिंदगी के रास्ते
लड़की ने कहा
मैं तो हिरनी हूं
कुलांचे मार नाप लूंगी पृथ्वी
और जोर से हंस दी
उसने समझाया लड़की को ¨
छत की मुंडेर पर यूं न बैठे
तब लड़की बोली
मैं तो गौरैया हूं
पंख फैला, उड़ जाऊंगी
आसमान में
और खिलखिलाती रही देर तक
उसने ताकीद की
कि अंधेरा घिरने पर
न आए-जाए सूने रास्तों पर
वह तुनक कर बोली
चांद-सितारे तो मेरी सहेलियां हैं
मैं आकाशगंगा की सैर कर आऊंगी
उसने टोका लड़की को
शहर एक जंगल है जिसमें
आदमी का चेहरा लगाकर
घूमते हैं वनैले पशु
वह कहने लगी
तो क्या हुआ मैं तो गिलहरी हूं
फुदक कर चढ़ जाऊंगी
पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर
हमेशा हंसती और
खिलखिलाती रही लड़की
एक दिन-
जब सूरज छिप रहा था
पश्चिम में पहाड़ के पीछे
शहर से दूर पुरानी पुलिया के पास
लड़की उदास कदमों से ठहरी
लड़के के पास
उसके चेहरे पर फैला था
आसमान का सूनापन
आंखों में उगा हुआ था कटीला जंगल
देर तक खामोश रही वह
फिर, जैसे धरती के गर्भ से
आवाज आई-
तुम ठीक कहते थे.
- स्मृतियां
सहेज कर रखेंगे
हरेक पहली-पहली स्मृति
पहली बात
पहली मुलाकात
पहला स्पर्श
पहला समर्पण
पहली तकरार
पहली मनुहार
पहला उपहार
और वह सब
जो हमने जिया एक साथ
पहली-पहली बार
पहली स्मृतियों की गठरी बनाकर
रख देंगे सबसे ऊंची टांड़, पर
या एक काल-पात्र में
करीने से रखकर दबा देंगे
घर के आंगन में
उम्र के किसी पड़ाव पर
ठहर जाएंगे थोड़ी देर
स्मृतियों की गठरी निकालेंगे
बीते दिनों पर जमी धूल को बुहारेंगे
स्मृतियों का स्लाइड शो देखते हुए
लौट जाएंगे पुराने दिनों में
धुंधला रही आंखों को
मिल जाएगी नई रोशनी
हरिया जाएगा मन का कोना अंतरा
फिर एक-एक कर
तह बनाकर रख देंगे
पहली-पहली स्मृति को
उम्र के किसी अगले पड़ाव पर
दुबारा खोलने के लिए.
टिप्पणियाँ
इस धरती पर प्रेम के ख़त्म होने से पहले...
राकेश जी, प्रेम से भरी कविताओं के लिए बधाई!
Mohan Shrotriya
आवाज आई -
तुम ठीक कहते थे :(
ओह बहुत उदास करती कविता ..स्मर्तियाँ भी अच्छी लगी ..शुक्रिया भाई बधाई राकेश जी !