क्योकि कोई भी रात इतनी लम्बी नहीं होती -राम जी तिवारी
रामजी तिवारी की कविताएँ आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. आज उनका जन्मदिन है तो हमारी शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है आज उनकी कुछ और ताज़ा कविताएँ.
सूत्र की तलाश
चेहरे का सूरज दिन को तानता हुआ
सिर पर चढ़ने वाला है,
पथराने लगी हैं आँखें
साफ कपड़े वालों को निहारती हुयी
तीन घंटे से ठन ठन गोपाला है ,
चार बासी रोटियाँ, एक प्याज और दो मिर्च तो बच जायेंगी
लेकिन रात की तरकारी चली है
किस्मत की राह अरुआने को
आह ..! उसे कौन बचाने वाला है ..?
भटकती है माँ मोतियाबिन्द के साथ उसकी आँखों में
बलगम के बीच बाबू के फंसे
फेफड़े
एक सांस खातिर भूँकते हैं
,किस रंग का है लुगाई का लुगा
पेवनों से पता नहीं चलता
और अक्षरों की जगह
खिचड़ियाँ खाते बच्चों का खयाल आते ही
उसके उठे हुए चौड़े पुष्ट कन्धे
कमान की तरह झुकते हैं |
सिर तीर जैसा छूटता प्रतीत होता है,
अपनी ही परछाई को बौनी होते
देखते हुए
सिहरन पुरे बदन
में जैसे कोई बोता है
|
जी में आता है इतना रोयेकि यह चौराहा उसके आँसूओं में डूब जाए,
इतना चिल्लाए कि इस शहर की नींद टूट जाए।
सामने मन्दिर की सीढ़ियाँ उतरते भक्तजन
बन्दकर ले जा रहे हैं ईश्वर को
डिब्बों में मिठाई के बहाने ,
बीमार , जो अब चल फिर नहीं
सकता
ना पहुंचे व्यवस्था
के सड़न की बदबू उस
तक
सजा दिया गया है फूलों को
इसीलिए उसके सिरहानें |एक गाड़ी के रूकते ही कानाफूसी बढ़ती है
खिल जाती हैं बाँछे , उम्मीद
परवान चढती है |
कभी नहीं रखे उसने चोटी और टोपी के सवाल
अपने प्रश्न पत्र में,
वरन इतनी सी गुजारिश ‘ काम मिलेगा बाबूजी ?’
किसी भी साईत किसी भी नक्षत्र में |
इस लुँगी और कमीज में वह
धूसर हो गये हैं जिनके रंग
उसके जीवन जैसे ही
अपनी किस्मत गोदता
है ,
इस लेबर चौराहे पर पानी पीने के लिए प्रतिदिन कुआँ खोदता है ।
मैं देखता हूँ सभ्यता के आकाओं को
इस चौराहे से निसदिन
काम करना जिनके लिए पाप हो गया हो ,
वातानुकूलित कार्यालयों की सारी कुर्सियाँ
मुँह उठाये करती है इन्तजार
और साथ ही यह कामना भी
कि मांस के इस पिलपिले ढेर का पेट
आज साफ हो गया हो ।
कैसी विडम्बनाएं ये
झुक जाए कंधें जिनके काम
के नाम से
विश्वास है व्यवस्था को उन्ही
पर ,
जो टूट जाए इनके अभाव में
भटकते फिरें वे दर-ब-दर ।सारी रोटियाँ उनके सामने सजी
जिनकी भट्ठियों की आग को
चर्बियों ने राख बना डाला
लहकी हुई है आग जिनमें
उनकी रोटियों को झपटकर
बिला गये
शिकारी कुत्ते न जाने
किस ब्रह्माण्ड में
हाय..! उन्हें किसने
राख बना डाला |
जिन आँखों की पुतलियाँ
नींद की गोलियों का बाट जोहती
मिली है जिम्मेदारी संजोने की उन्हें सपनें,
अपनी ईच्छाओं के बण्डल
में
नींद की चादर लपेटकर चलने
वालों कोमनाही है देखने तक की
ऊंह..! दो कौड़ी के लोग
चले हैं उन्हें सोचने समझनें |
नंगापन उनका शौक हो
जिनकी फैक्ट्रियों की चुम्बकों में
खिंची चली आए सारी दुनिया
की कपास ,
उगी थी जिनके खेतों में
बनें रहें वे आदिमानव
बजाता रहे तराना हर मौसम
उनके बदन पर
गर मिले भी तो
उतनी ही
बन जाए जितने में
गले की फांस |
आलीशान कोठियों की दीवारें
दो जोड़ी पथराई आखें वालों को
नौकरों के हवाले देखती हुई भाँय-भाँय रोयें ,
और तीन पीढ़ियों के साथ रहने वाले
बिष्ठा से बजबजाती नालियों पर
तख्ते की धरती और
पालिथीन का आसमान तानकर सोयें ।
तलाशू सूत्र मैं इस धुँधलके में
विडम्बना की इन श्रृंखलाओं का ,
कभी कभी तो आ भी जाए सिरा हाथ में
खोलने लगूं गाँठ उलझावों का |
ओह..! अब समझ में आया
एक चमकीली सुबह की तलाश ,
निराशाओं के भंवर में जरुर उठती है
कोई न कोई आस |
खोली जा चुकी होती गांठ पहले ही
गर वे इतनी सरल होतीं ,
उठो, जगो, कमर कसो मित्रों
होने ही वाली है
वह सुबह
क्योकि कोई भी रात इतनी
लम्बी नहीं होती |परीक्षा
हमारा भ्रम कि खेल है यह राजा का
जो अपने आप खत्म हो जायेगा ,
और उसका कि यह सदा चलता आया है
आगे भी कौन रोक पायेगा |
दौड़ता है काँटों भरे रास्ते पर
हमारा यह परिवार दस का ,
वही हुआ जो ईश्वर की मरजी
थी
निष्कर्ष है सबका
|
हम आठ अभागे मदारियों के हवाले सदमें में ,
जमूरा बन दिखाते हैं करतब मजमें में |
रस्सी कूदने का
कि लगाकर ताकत पेंदी की
बचाता हूँ सलामत नाक को ,
आग पर चलने का
कि पावों के छाले बेहतर हैं
आत्मा पर उठे फफोलों से
निकालता हूँ नरक से अपने आप को |
तार पर चलने का
कि देह का सन्तुलन
जीवन के संतुलन पर पड़ सकता है भारी
साँसों को थामते हुये
पा लेता हूँ किनारी |
शाम होने से पहले
ऐसे कई खेलों से गुजरता मैं
पहुँचता हूँ सिंहासन की कतार में
बिठाता है राजा ,कि डूबती साँसें पूछती हैं
शेष सातों का कुशल क्षेम
पड़े हैं वे आखिर किस पथार में |
तनती है भृकुटि उसकी , मन्त्री ताड़ता है
सिखाने को सलीका इस कतार में बैठने का
आगे बढ़ता है |
करो सवारी इस गुब्बारे की
और लूटते फिरो अशरफियाँ ,
यह जमीन जमूरों के लिए है
तुम तो खास हो इस मुल्क के लिए
मत सोचो हमने इसके लिए आखिर क्या किया |
तुम्हारी लाँघी रस्सी
दो के गले तक आ गयी है ,
आग की मुहर दो के बदन को
साड़ी की जमीन सी भा गयी है |
और देह का सन्तुलन साधते-साधते तारों पर ,
खो दिया है अधिकांशतः ने
अपना मानसिक संतुलन
पहुंचते - पहुंचते किनारों पर |
पर तुम सोचो नहीं , केवल हँसो उन पर
और कोसो उनके भाग्य को तब तक ,
वे खुद न ऐसा मानने लगें
जब तक |
हमने देखी है तुम्हारी प्रतिभा
परन्तु असली खेल तो तब है ,
इस उड़ते हुए गुब्बारे में हवा भरने
और सुई चुभाकर उसे निकालने
के बीच के तालमेल की
परीक्षा तो अब है |
ध्यान रहे हवा गर अधिक निकली
तो अशरफियों की कौन कहेहम भी जमीन पर आ जाएँगे ,
और अधिक भरी तो इसके साथ-साथ
फूटकर बिखर जाएँगे |
अव्वल दिमाग
मिथक है गुमना भी धोखे को छिपाने का ,
एक शातिराना तरीका
उसके लपेटे में आये लोगों को भरमाने का |
कि गुमी है जो यहाँ पड़ी बर्फ आज ही
भाप बनकर बादलों की शक्ल में ,
गिरेगी बारिश या बर्फ बनकर
इतना तो समझ में आता है हमारी अक्ल में |
ऐसे कई रहस्यों से उठाता है पर्दा यह विज्ञान ,
आसानी से समझ सकता है जिसे कोई भी इंसान |
जब रहस्यों पर गहराती जाती है पर्दादारी ,
बढती जाती है उन्हें जानने की हमारी ईच्छा
उसी अनुपात में चिंतकों की जिम्मेदारी |
तभी देता है समाज अव्वलता का तमगा ,
इतराती है मानव जाति, होता है भला सबका |
आज जब घिरते जा रहे हैं हम
रहस्यों के जंगल में ,
क्यों नहीं दिखाई देते
उन्हें सुलझाने वाले दिमाग इस दंगल में ?
जब उड़ जाती हैं चीजें भरी दोपहरी में
हमारी आँखों के सामने से ,
क्यों नहीं बताते वे बदलकर कौन सा रूप
किस आँगन में उतरी होंगी
और किसके थामने से ?
कहीं तो जमा होंगे कामगारों के पसीने ,
करोड़ो अवाम के देखे सपने
और उनमे जड़े हुए नगीने |
कहीं तो गयी होगी तैरकर
दो अंको वाली विकास दर ,
छोड़कर इतनी बड़ी भंवर
मजधार में डूबते हुए लोगों की हताश दर |
किसी डाल तो बैठी होगी शक्ति उड़कर
इस देश की जवानी की ,
शब्दों के भवजाल तले कहीं तो छिपी होगी
आत्मा इस कारुणिक कहानी की |
ये जो हाथ में फूल लिए कर रहे हैं अट्टाहास ,
क्यों छिपाते हैं अपना चेहरा
घबराते हैं आने से हमारे पास |
किस तरकीब से अभी तक
छिपता चला आया यह मंजर ,
जानते हैं जबकि हम सब
हाथों पर फूलों के नीचे ही
छिपाया गया है खूनी खंजर |
सुनता हूँ दो पर बारह शून्य की काठी लेकर
बिना थके , बिना रुके
चौबीसों घंटे इस दुनिया के पेट पर
दौड़ता है एक अश्वमेधी घोड़ा ,
जिसके टापों के नीचे आते ही
धरती के किसी भी हिस्से के
किसी भी नागरिक की जमापूंजी
उड़कर समा जाती है जीरा जैसे
शून्य रूपी ऊंटों के मुँह में
पीछे जिसने लाखों करोड़ों के जीवन में
केवल और केवल शून्य ही छोड़ा |
ओह..! इसे थामने की कोई तो तरकीब होगी
कैसे यह खत्म होगी दास्ताँ ,
पहले यह तो पता चले
इतने बड़े भूभाग को रौंदते समय
दिखाता कौन है उसे रास्ता |
झकझोरते हुए मुझे एक मित्र
यह रहस्य खोलता है ,
लगे हैं उड़ाने के इस कारोबार में
हमारी दुनिया के अव्वल दिमाग ही
घोर निराशा में वह बोलता है |
जो जितना बड़ा माहिर है इस खेल का
उड़ा सकता है बिना बताये चुपचाप
सुरीले कंठ की आवाज , होठों की तितलियाँ ,
पैरों तले की जमीन और बाजुओं की मछलियाँ |
हमारी आँखों की नींद और उनमे तैरते सपने ,
कर दे बिलकुल निहत्था
छीन ले भाई बन्धु दोस्त-मित्र
रिश्ते – नाते और सभी अपने |
कहलाता है वही आजकल अव्वल दर्जे का दिमाग
चढ़ा सकता है जो रहस्यों पर लौह आवरण
और उछाल दे हमें बाजार के बीचोबीच
प्रार्थना भूल लगें हम भी उसी का कीर्तन जपने |
ऐसे में पूछती है सुबकते हुए जब
गाँव की रामरती सहुवाईन यह सवाल ,
बिना बातचीत के कैसे उड़ गए
मोबाईल में डाले गए पचास रूपये
बाबू कैसा है यह जवाल |
दियारे से उठाये गए गोबर को
पाथकर जुटाए थे जो उसने ,
परदेशी बेटे का हाल समाचार लेने के लिए
भेजा था जिसे बड़े अरमानो से
संजोये थे अनगिनत सपने |
तो जी में आता है
बुहारकर सारे अव्वल दिमागों को
झोंक दूं उसी सहुवाईन की भरसायं में
तो इस व्यवस्था के अनाज का लावा
चनचनाकर फूट जाए ,
देखे यह समाज भी
कहाँ छिपे हैं सारे गहरे रहस्य
और दुनिया पर तारी हुआ तिलिस्म भी
एक झटके में ही टूट जाए |
टिप्पणियाँ
प्रस्तुति हेतु आभार!
श्री रामजी तिवारी जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!
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वर्तमान के घनघोर अंधकार में जब लेखकों में या तो निरशा का भाव तारी है या फिर संकटों से विमुखता का,उस अँधेरे दौर में ब्रेख्त के सनातन प्रश्न 'क्या अँधेरे दौर में भी गीत जायेंगे ?'का उत्तर तलाश करने का हौसला जुटाकर कलम को कालिमा के विरुद्ध हथियार की तरह साधते रामजी तिवारी यक़ीनन आस बंधाते हैं .वे आश्वस्त हैं कि'एक चमकीली सुबह की तलाश /निराशायों के भंवर में ज़रूर उठती है /कोई न कोई आस .और यहीं से वे हमारे वर्तमान के लेखन से अलग धारा में चल पड़ते हैं .'इतना चिल्लाएं कि शहर की नींद टूट जाये 'के आत्मविश्वास से जब लेखन में प्रवृत होते हैं तो उनके सामने का मार्ग स्पष्ट हो जाता है .वे हर परीक्षा के लिए तत्पर हैं ,जानते हैं कि हरकदम पर परीक्षा है .ज़ालिम व्यवस्था के चेहरे को बेनकाब करते कहते हैं 'हमने देखीहै तुम्हारी प्रतिभा /परन्तु असली खेल तो तब है /इस उड़ते हुए गुबारे में हवा भरने /और सुई चुभाकर उसे निकालने के बीच के तालमेल की/परीक्षा तो अब है ...और इसी तरह हमारे वक्त का क्रूरतम चेहरा सामने लाने के प्रयास में वे हमारी वर्तमान की स्थापित मान्यतायों को ध्वस्त करके उसके असली स्वरूप से परिचित करवाते हैं 'अव्वली दिमाग 'में बहुत तीखा व्यंग्य करते कहते हैं 'जो जितना बड़ा माहिर है इस खेल का /उड़ा सकता है बिना बताये चुपचाप /सुरीले कंठ की आवाज़ ,होंठों की तितलियाँ /पैरों तले की ज़मीन और बाजुयों की मछलियाँ /हमारी आँखों की नींद और इनमे तैरते सपने ...इन अव्वल दिमागों के चेहरे को इस तरह बेनकाब कर सकने की शक्ति राम जी तिवारी की कवितायों में मौजूद है .सबसे बड़ा आश्वस्ति का भाव इन कवितायों में यह है कि ये हमें हमारे वक्त की विद्रूपता के रूबरू करवाने के बावजूद हमें निराशा के गहरे कुयों में धकेलने से रोकने का सचेत तौर प्रयास करती हैं ,ये कवितायेँ हमें हमारे समय का आईना भी दिखाती हैं और अपने वर्तमान के विद्रूप चेहरे को संवारने की प्रतिज्ञा भी करती हैं .इस कोशिश को सलाम ....परमानंद शास्त्री
नीरज