केशव तिवारी की कविताएँ
अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में 1962 में जन्में केशव तिवारी के दो
कविता संकलन “इस मिट्टी से बना” और “आसान नहीं विदा कहना” प्रकाशित हुए
हैं. उन्हें कविता के लिये 'सूत्र सम्मान' मिला है और उनकी कविताएँ हिन्दी
की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. कुछ कविताओं का
मलयालम, बंगला, मराठी, अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ है. वह सम्प्रति
हिंदुस्तान यू.नी. लीवर लि. में कार्यरत हैं . केशव तिवारी ग्रामीण समाज से अपने गहरे जुड़ाव , उसकी विसंगतियों के यथार्थपरक चित्रण और अपनी गहन प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं.
1. मैं कोई छूट नहीं पा सकता
वे जिस दिन जागेंगे
मुझसे भी मांगेंगे हिसाब
मेरे कहे हर शब्द को
रखेंगे कटघरे में
इन पर कविता लिखकर
मैं कोई छूट नहीं पा सकता
मित्रों ! यदि कलम को सलीब से
अपनी गर्दन को बचाने का
औजार बना रहे हो
तो तुम तलवार को
ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहते हो
और याद रखना ढाल कभी भी
तलवार नहीं बन सकती |
2. इन्हीं से की जाती हैं ईमान की बातें
इतने रंगों में एक रंग है
गहरे अवसाद का
बबुल के काले खुरदरे तने-सा
छिमिया रही है अगहनी
हरी अरहर पीले फूलों की
धज के साथ
पर एक ही रंग सबसे
गहरा और स्थाई है
न ही काल्ले में ताकत कम है
न ही मिट्टी में उपज
सुखों की पैमाईश में
इनका हिस्सा
औरों के नाम चढ़ा दिया है
बेईमान पटवारी ने
इन्होने पिलाया प्यासों को पानी
भूखों को दिया भोजन
जीवन-भर डटे रहे
दुखों के सामने
इन्हीं से की जाती हैं
ईमान की बातें
इन्हीं से धीरज की
इन्हीं को दिलाया जाता है
ईश्वर पर भरोसा |
3. भरथरी गायक
जाने कहाँ-कहाँ से भटकते-भटकते
आ जाते हैं ये भरथरी गायक
काँधे पर अघारी
हाथ में चिकारा थामे
हमारे अच्छे दिनों की तरह ही ये
देर तक टिकते नहीं
पर जितनी देर भी रुकते हैं
झांक जाते हैं
आत्मा की गहराईयों तक
घुमंतू-फिरंतू ये
जब टेरते हैं चिकारे पर
रानी पिंगला का दुःख
सब काम छोड़
दीवारों की ओट से
चिपक जाती हैं स्त्रियां
यह वही समय होता है
जब आप सुन सकते हैं
समूची सृष्टि का विलाप |
4. वे
वे जो लंबी यात्राओं से
थककर चूर हैं उनसे कहो
कि सो जाएँ और सपने देखें
वे जो अभी-अभी
निकलने का मंसूबा ही
बांध रहे हैं
उनसे कहो कि
तुरंत निकल पड़ें
वे जो बंजर भूमि को
उपजाऊ बना रहे हैं
उनसे कहो कि
अपनी खुरदरी हथेलियाँ
छिपाएँ नहीं
इनसे खूबसूरत इस दुनिया में
कुछ नहीं है
5. जोगी
इक तारा का तार तो
सुरो से बंधा है
तुम्हारा मन कहां बंधा है जोगी
इस अनाशक्ति के पीछे
झांक रही है एक गहरी आशक्ति
यह विराग जिसमें रह - रह
गा उठता है
तुम्हारा जीवन राग
तुम्हारे पैर तो भटकन से बंधे है
ये निर्लिप्त आंखे कहां
देखती रहती है जोगी
प्रेम यही करता है जोगी
डुबाता है उबारता है
भरमता है भरमाता है
तुम्हारा निर्गुन तो
कुछ और कह रहा है
पर तुम्हारी सांसे
तो कुछ और पढ़ रही हैं जोगी।
6. दिल्ली में एक दिल्ली यह भी
कंपनी के काम से छूटते ही
पहाडगंज के एक होटल से
दिल्ली के मित्रों
को मिलाया फोन
यह जानते ही कि दिल्ली से बोल रहा हूं
बदल गयी कुछ आवाजें
कुछ ने कहला दिया
दिल्ली से बाहर है
कुछ ने गिनाई दूरी
कुछ ने कल शाम को
बुलाया चाय पर
यह जानते हुये भी कि शाम की
ट्रेन से जाना है वापस
एक फोन डरते डरते मिला ही दिया
विष्णु चन्द्र शर्मा को भी
तुरंत पूछा कहां से रहे हो बोल
दिल्ली सुनते ही तो
वो फट पडे
बोले होटल में नही,
हमारे घर पर होना चाहिये तुम्हे
पूछते पूछते पहुच ही गया
शादत पुर
छः रोटी और सब्जी रखे
ग्यारह बजे रात एक बूढा़
बिल्कुल देवदूतों से ही चेहरे वाला
मिला मेरे इंतजार में
चार रोटी मेरे लिये
दो अपने लिये
अभी अभी पत्नी के बिछड़ने के
दुख से जो उबर
भी न पाया था
मै ताकता ही रह गया उसका मुँह
और वह भी मुझे पढ़ रहा था।
मित्रों मै दिल्ली में
एक बूढे कवि से मिल रहा था
वह राजधानी में एक और
ही दिल्ली को जी रहा था।
7. गवनहार आजी
पूरे बारह गांव में
आजी जैसी गवनहार नही थी
मां का भी नाम
एक दो गांव तक था
बडी बूढीयां कहती थी कि
मछली को ही अपना गला
सौप कर गयी थी आजी
पर एक फर्क था
मां और आजी के बीच
आजी के जो गीतो में था
वह उनके जीवन में भी था
मां के जो गीतो मे था
वह उनके जीवन से
धीरे धीरे छिटक रहा था
उस सब के लिये
जीवन भर मोह बना रहा उनमें
जांत नही रह गये थे पर
जतसर में तुरंत पिसे
गेंहू की महक बाकी थी
एक भी रंगरेज नही बचे थे
पर केसर रंग धोती
रंगाऊ मोरे राजा का आग्रह बना रहा
कुअें कूडेदानो मे तब्दील हो गये थे
पर सोने की गघरी और रेशम की डोरी
के बिना एक भी सोहर
पूरा नही हुआ
बीता बीता जमीन बंट चुकी थी
भाइयों भाइयेां के रिश्तो मे
खटास आ गयी थी
फिर भी जेठ से अपने
झुलने के लिये
जमीन बेच देने की टेक नही गयी
मां के गीतो से सुन कर लगता था
जैसे कोई तेजी से सरकती गीली रस्सी
को भीगे हाथो से पकडने की
कोशिश कर रहा है।
8. इससे ही पहचाना जाता है एक कवि
कितने बरस से रहा रहा हूँ
इस शहर में मैं
फिर भी
अक्सर भटक ही जाता हूँ
इसकी टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में
ठीक वैसे ही जैसे एक कवि
कभी-कभी भटक जाता है
अपने बिम्बों और कथ्य के बीच
इस शहर में घूमना
कविता लिखने जैसा ही
अनुभव है मेरे लिए
जहाँ नदी और पहाड़ ही नहीं
छोटे-छोटे चाय-पान के खोखे
सड़कों पर चल रहे रिक्शे तांगे
इधर-उधर गप्प हांकते लोग
एक कविता ही रच रहे होते हैं
इसके और कविता के
अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने में लगा
एक कवि
इससे ही पहचाना जाता है |
9. छुन्नू खां
छुन्नू खां जी ये आप
फेर रहे हैं सारंगी पर गज
और महसूस हो रहा है
जैसे कोई माँ अपने बच्चे का
सिर सहलाते हुए लोरियाँ सुना रही है
द्रुत में तो लगता है जैसे इस
रस अँधेरी रात में भी बस तुलू-तुलू
होने को है सूरज और
विलम्ब में मन उदास घाटियों की
अतल गहराईयों में खो जाता है |
क्या शान है आपके गट्टे के तान की
कितने ही नृत्य प्रवीणों का
कितनी ही बार लिया होगा
इसने इम्तिहान
तरब के सुर तो बेचैन रहते हैं
आप की उँगलियों के
जब आप आँख बंद कर उतरते हैं
सुरों की झील में तो
चेहरे पर तिरने लगते हैं
रतजगों के अक्स
यह फटा कुर्ता थकी काया
बीड़ी-बीड़ी को मोहताज
छुन्नू खां जी क्या आपके बाद भी
ऐसे ही बजती रहेगी
आपकी सारंगी |
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टिप्पणियाँ
केशव जी और अशोक जी को बढ़िया कवितायें पढवाने के लिए आभार.