आह, त्रिलोचन को भूला मैं
शिरीष कुमार मौर्य हिन्दी की युवा कविता को पहचान देने वाले कवि हैं. उनकी कविताओं से तो हम सब परिचित हैं ही, लेकिन गद्य में भी उन्होंने खूब काम किया है. शिरीष भाई की आलोचना की एक बड़ी खूबी यह है कि वह एक बोझिल प्राध्यापकीय भाषा और उद्धरणों के सहारे बौद्धिकता का आतंक पैदा करने की जगह अपनी कविताओं की तरह ही गद्य में भी एक आत्मीय वातावरण रचते है. इधर एक अच्छा काम उन्होंने यह किया है कि अब तक के लिखे को एक किताब के रूप में ले आए हैं. भला हो उनके मित्र का जिसने उनसे यह काम करा लिया. अब खबर यह है कि किताब का पहला संस्करण पहले तीन महीनों में बिक चुका है और अब अगला संस्करण शिल्पायन से शीघ्र होगा. हम जैसे ढीठ और कभी न संतुष्ट होने वाले दुष्ट दोस्तों के (दु)आग्रह को मानते हुए उन्होंने इसे परिवर्धित करने का भी निर्णय लिया है. ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ उनकी इस किताब - "लिखत-पढ़त" से त्रिलोचन पर लिखा एक आत्मीय आलेख. किताब " शाइनिंग स्टार " प्रकाशन से आई है और ज़्यादा जानकारी के लिए प्रकाशन प्रबंधक डी एस नेगी से 8954341365 पर संपर्क किया जा सकता है.
नीचे एक कमेन्ट के जरिये नेगी साहब ने कहा है - आदरणीय अशोक जी आपके ब्लाग में हमारे प्रकाशन की सूचना देने के लिए धन्यवाद। निवेदन है कि थोड़ा सा सुधार कर दीजिए- किताब का दूसरा संस्करण शिल्पायन से मुद्रित और वितरित होगा पर प्रकाशक 'शाइनिंग स्टार' ही रहेगा। हम एक निहायत छोटी जगह से प्रकाशन चला रहे हैं, मुद्रण और वितरण के लिए हमने शिल्पायन के श्री ललित शर्मा जी से सहयोग का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। हमारी पहली किताब श्री चन्द्रकान्त देवताले जी का संग्रह 'धनुष पर चिडिया' भी शिल्पायन से ही मुद्रित और वितरित हुआ है। ललित जी के सहयोग से ही हम अच्छी किताबें ला पा रहे हैं।
आप सभी के सहयोग की भी आकांक्षा है।
आह, त्रिलोचन को भूला मैं
टिप्पणी का शीर्षक `आह, त्रिलोचन को भूले ह म´ भी हो सकता था पर मैंने महज अपनी जिम्मेदारी लेना स्वीकार किया है, अपनी समूची कविपीढ़ी की नहीं। हो सकता है कुछ साथियों को त्रिलोचन याद हों....हालांकि ऐसा दिखता तो नहीं.... तब भी....
त्रिलोचन को भूल जाना मेरे कविजीवन की एक बड़ी त्रासदी है। उन्हें काफ़ी पढ़ा पर समय रहते ठीक से गुना नहीं। मेरे लिए एक तरफ नागार्जुन का खांटी आकर्षण था तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध के बनाए क्रूर वास्तविकताओं के भयावह भवन - बीच में कहीं छूट गए त्रिलोचन। पता नहीं कैसे यह तथ्य विस्मृति की गर्त में जाता रहा कि प्रगतिशील कविता में त्रिलोचन ने एक सर्वथा नया संसार बसाया। एक संस्कृत पढ़ा हुआ बहुभाषाविद् शास्त्री अपने समय की कविता में ऐसी भाषा लाया, जो जन(वादी) परम्परा की सबसे सरल, समीप और सटीक किन्तु कविता के लिए बिल्कुल नई भाषा थी। आधुनिकता से परे जाकर भी अपने भीतर एक अधुनातन भावबोध को सम्भाल पाने और जीवित रखने वाली भाषा। हैरत होती है कि इस मामले में बिम्बविधान के आचार्य हमारे वो अत्यन्त प्रिय कवि भी पिछड़े, जो आजीवन त्रिलोचन का आभार जताते उन्हें अपना कविगुरू बताते रहे- मुझ जैसे कम पढे़ युवाओं की तो बात और औक़ात ही क्या? सोचता हूँ अब कोई भूलसुधार सम्भव है? शायद नहीं! असद ज़ैदी के शब्दों में -
कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती एक स्थाई दुर्घटना है !
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
दिमाग़ में अचानक आयी यह टिप्पणी हालांकि त्रिलोचन पर है लेकिन अगर इसमें ऊपर बताई स्थाई दुर्घटना की गूँज भी सुनाई देती रही तो कोई आश्चर्य नहीं। त्रिलोचन की इस भाषा को मैं अज्ञेय की एक विख्यात काव्यपंक्ति से तुरत प्रकट कर सकता हूँ। बकौल अज्ञेय `मौन भी अभिव्यजंना है´ - अब यही बात त्रिलोचन के जनपदीय संस्कारों में `अनकहनी भी कुछ कहनी है´ में बदल जाती है और हम देख सकते हैं कि जनता और कविता, दोनों के लिए कौन-सी पंक्ति अधिक आत्मीय है। यहां से भाषा के दो अलग संस्कार साफ़ पहचाने जा सकते हैं। मैं तो त्रिलोचन के संस्कार के साथ जाऊंगा। इस संस्कार के साथ एक चुनौती भी है, जिसे ख़ुद त्रिलोचन ने कुछ यूं व्यक्त किया है कि `कैसे और कहां से शब्द अनाहत पाऊं´। अज्ञेय के संस्कार में अनाहत शब्द पाना बहुत सरल है लेकिन त्रिलोचन के संस्कार में, जहां समूचा जीवन ही आहत है, यह एक असम्भव युक्ति है। `मौन´ बेबसी के साथ-साथ कवि की इच्छा या अभिमान को भी प्रकट करता है पर `अनकहनी´ में एक ऐतिहासिक विवशता है। मौन स्वेच्छा से भी हो सकता है पर अनकहनी में तो कुछ ऐसा है, जिसे कहा जाना था पर कहने से रोक दिया गया हो। इसमें उन अनाचारी ताकतों की भी छाया है, जिन्होंने सैकड़ों साल से सही बात को कहे जाने से रोका है और दबाव या सेंसरशिप इतनी ज़्यादा हो गई है कि अब अनकहनी भी कुछ कहनी है।
हिन्दी कविता में सबसे बड़ी विडम्बना यह हुई है कि कवि आगे आ गए और वह लोक या जन पीछे रह गया, जिसके लिए और जिसकी वजह से कविता सम्भव हो पायी - अब किसी ने अज्ञेय की भांति लोक या जन से कटकर ही रहना और कहना स्वीकार किया हो तो उसकी अलग बात है। यह विडम्बना मेरे जैसे युवाओं के लिए अधिक है, जिन्हें पॉलिटिकली करेक्ट होने की भी चिन्ता हो। त्रिलोचन ने `उस जनपद का कवि हूँ´ में संकलित एक सानेट में एक सीधी-सरल किन्तु कविता के शिल्प में जटिल और चुनौतीपूर्ण कामना की थी -
यह तो सदा कामना थी, इस तरह से लिखूँजिन पर लिखूँ, वही यों अपने स् वर में बोलें
परिचित जन पहचान सकें, फिर भले ही दिखूँ....
परिचित जन पहचान सकें, फिर भले
इधर अलग मुहावरे की मार ने कविता को इस तरह आहत किया है कि हम यही मूल बात भूल गए हैं। अलग होने-दिखने से कोई आपत्ति नहीं। ख़ुद त्रिलोचन ने कहा है कि मैं बहुत अलग कहीं और हूँ ..
डर लगता है जीवन में उनसे जो अप ने
होते हैं, अपनेपन का ज्ञापन करते हैं
भावों और अभावों का मापन करते हैं
तुलना द्वारा और अनंजित दृग के सपने
मुखरेखा से जान लिया करते हैं, छपने
से पहले ही उनका विज्ञापन करते हैं
होते हैं, अपनेपन का ज्ञापन करते हैं
भावों और अभावों का मापन करते हैं
तुलना द्वारा और अनंजित दृग के
मुखरेखा से जान लिया करते हैं,
से पहले ही उनका विज्ञापन करते
त्रिलोचन की इस चेतावनी को समझ सकें तो हमारी महान मित्रताओं के बीच यह एक संकट की घड़ी है। छपने से पहले ही विज्ञापन के कुछ अद्भुत प्रकरण अभी बिल्कुल अभी की कविता में हमारे सामने हैं।
फिलहाल इस संक्षिप्त टिप्पणी को अतिसंक्षिप्त रखते हुए त्रिलोचन के ही शब्दों की उधारी से काम चलाऊंगा -
जीवन जिस धरती का है, कविता भी उसकी
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की !
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की !
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शिरीष कुमार मौर्य
जन्म 13 दिसंबर 1973 को. शैशव नागपुर, पिपरिया, इलाहाबाद और बनारस में बीता। प्राथमिक से माध्यमिक तक की शिक्षा और संस्कार उत्तराखंड के एक सुदूरवर्ती गांव नौगाँवखाल में। बी.एस-सी. तथा एम.ए. हिंदी नैनीताल के राजकीय परास्नातक महाविद्यालय रामनगर से। 1994 में एक काव्य-पुस्तिका तथा 2004 में पहला कविता-संग्रह इलाहाबाद से प्रकाशित। दूसरा संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह' । तीसरा संग्रह 'जैसे कोई सुनता हो मुझे' शीघ्र प्रकाश्य। चंद्रकांत देवताले की प्रेम कविताओं के चयन " धनुष पर चिड़िया" का संपादन. विश्व-कविता से येहूदा आमीखाई , कू-सेंग, हंस मानूस एंजेंत्सबर्जर और टॉमस ट्राँसट्रोमर की कविताओं के अनुवाद। येहूदा के अनुवाद संवाद प्रकाशन से पुस्तक रूप में 'धरती जानती है' नाम से प्रकाशित। अनुवाद और काले-सफेद रेखांकन में भी रुचि। 2004 में प्रथम अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार से सम्मानित। 2009 का लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान । फिलहाल उत्तराखंड के नैनीताल शहर में कुमाऊं विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हिंदी के पद पर कार्यरत।
टिप्पणियाँ
आप सभी के सहयोग की भी आकांक्षा है।
साभार
डी.एस.नेगी
शाइनिंग स्टार