उमेश चौहान की कविताएँ
उमेश चौहान |
9 अप्रैल, 1959 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद के ग्राम दादूपुर में जन्में उमेश चौहान ने एम. एससी. (वनस्पति विज्ञान), एम. ए. (हिन्दी), पी. जी. डिप्लोमा (पत्रकारिता व जनसंचार) करने के बाद लखनऊ मेडिकल कॉलेज में मेडिकल जेनेटिक्स पर तीन वर्ष का शोध-कार्य (1980-83) किया और फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा में आ गए. वर्ष 1993-94 में जापान सरकार द्वारा आयोजित ‘शिप फॉर वर्ल्ड यूथ’ कार्यक्रम में भारतीय युवाओं के दल का नेतृत्व भी किया। केरल व भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए यू. एस. ए., यू. के., जापान, जर्मनी, स्विटजरलैन्ड, ग्रीस, यू. ए. ई., सिंगापुर, श्रीलंका, मालदीव्स, दक्षिण अफ्रीका, इथियोपिआ, नामीबिया, केन्या आदि देशों की यात्राएं की। वर्तमान में नई दिल्ली में केरल सरकार के रेजिडेन्ट कमिश्नर के रूप में तैनात हैं।
हिन्दी व मलयालम की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविताएं, कहानियाँ व लेख प्रकाशित। प्रेम-गीतों का संकलन, ‘गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी’ वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ। कविता-संग्रह ‘दाना चुगते मुरगे’ वर्ष 2004 में छपा। वर्ष 2009 में अगला कविता-संग्रह ‘जिन्हें डर नहीं लगता’ प्रकाशित हुआ। मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि अक्कित्तम की प्रतिनिधि कविताओं के हिन्दी-अनुवाद का एक संकलन भी वर्ष 2009 में ही भारतीय ज्ञानपीठ से छपा। मलयालम के अन्य प्रमुख कवि, जी. शंकर कुरुप्प, वैलोपिल्ली श्रीधर मेनन, चेन्गम्पुड़ा, ओ. एन. वी. कुरुप्प, सुगता कुमारी, राधाकृष्णन तड़करा आदि की कविताओं का भी हिन्दी-अनुवाद किया है। वर्ष 2009 में भाषा समन्वय वेदी, कालीकट द्वारा ‘अभय देव स्मारक भाषा समन्वय पुरस्कार’ तथा 2011 में इफ्को द्वारा ‘राजभाषा सम्मान’ प्रदान किया गया। अगला कविता-संग्रह ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ शीघ्र प्रकाश्य.
सूर्यघड़ी
बड़े जोश में आते हैं
तरह-तरह के लोग
देश के कोने-कोने से
भाँति-भाँति के बैनर व तख्तियाँ थामे,
विस्थापित कश्मीरी पंडित
अधिकारों से वंचित आदिवासी
घर से उजड़े नर्मदा घाटी के निवासी
भूखे-प्यासे मजदूर-किसान
जंतर-मंतर के इस मोड़ पर
अपनी-अपनी मांगें पूरी कराने के लिए धरना-प्रदर्शन करने।
लेकिन यहाँ से गूँजते नारों की आवाज़
नहीं पहुँचती प्रायः पास में ही स्थित संसद-भवन के गलियारों तक
या फिर शायद सुन कर भी इन आवाजों को
अनसुनी कर देने की ही ठाने रहते हैं
भारत के भाग्य-विधाता,
ये बेचारे जन-गण
अपने मन को मसोस कर रह जाते हैं
'जय हे!' की ड्रम-बीट पर तने खड़े जवानों से डर कर
इस आशा में अपने आक्रोश को ज़ब्त करते हुए कि
उनके अधिनायकों का बहरापन कभी तो ख़त्म होगा ही।
जंतर-मंतर की सूर्यघड़ी
नित्य साक्षी बनती है
समय के उन पड़ावों की
जहाँ पर तख़्तियों और बैनरों पर लटकी होती हैं
उस समय के तमाम सताए हुए लोगों की उम्मीदें और विश्वास,
लेकिन भारत के भाग्य-विधाताओं की तरह ही
यह सूर्यघड़ी भी दिन के किसी भी पहर नहीं थमती
समय के किसी भी ऐसे पड़ाव पर सहानुभूति से भर कर,
भले ही शहर में कितनी भी दहला देने वाली वाली कोई दुर्घटना घटित हो
जिसमें सहम कर थम जाएं
बाकी की सभी कलाई अथवा दीवार की घड़ियां।
अगर देश के कोने-कोने से आने वाले लोगों को
दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए
थाम लेना है जंतर-मंतर की सूर्यघड़ी को
समय के किसी भी महत्वपूर्ण पड़ाव पर
तो या तो उन्हें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लेना होगा लपक कर सूर्य के रथ को
या फिर इंतज़ार करना होगा सूरज के डूब जाने का
क्योंकि अँधेरे में जरूर थम जाती है यह सूर्यघड़ी
और फिर चालू होती है नए सिरे से
पुनः सूर्योदय होने पर
एक नए दिन की शुरुआत होने के साथ ही।
प्रतिरोध
घुप्प अँधेरा था
सूझता नहीं था हाथ को हाथ,
फिर भी धँसाता रहा वह
पैनी नोक वाला खंज़र
बड़ी ही सावधानी से
ठीक मेरे सीने के बीच,
दिखता नहीं था मुझे
सूझता नहीं था हाथ को हाथ,
फिर भी धँसाता रहा वह
पैनी नोक वाला खंज़र
बड़ी ही सावधानी से
ठीक मेरे सीने के बीच,
दिखता नहीं था मुझे
बहता हुआ रक्त भी अपना,
पीता रहा इसे वह शान से रेड वाइन सा,
साम्राज्य था उसका टिका
इस तमाधिष्टित शल्य-क्रीड़ा के सहारे।
किन्तु आखिर दर्द ने मुझको झिंझोड़ा
पीता रहा इसे वह शान से रेड वाइन सा,
साम्राज्य था उसका टिका
इस तमाधिष्टित शल्य-क्रीड़ा के सहारे।
किन्तु आखिर दर्द ने मुझको झिंझोड़ा
वक़्त ने करवट बदल ली,
लगा, दस्तक दी सुबह ने
रोशनी की किरण फूटी,
देख खुद को रक्त-रंजित
घाव की पीड़ा भुला कर
तन गया प्रतिरोध में मैं
भर गया प्रतिशोध से मैं,
काँपते अब हाथ उसके
चूकता उसका निशाना
हाथ में थामे हुए खूँखार खंज़र
वह उजाले में खड़ा नंगा दिखे अब।
रोशनी की किरण फूटी,
देख खुद को रक्त-रंजित
घाव की पीड़ा भुला कर
तन गया प्रतिरोध में मैं
भर गया प्रतिशोध से मैं,
काँपते अब हाथ उसके
चूकता उसका निशाना
हाथ में थामे हुए खूँखार खंज़र
वह उजाले में खड़ा नंगा दिखे अब।
मैं निडर हो, बढ़ चला हूँ
अब नए संघर्ष-पथ पर,
निहत्थे ही,
सामने निष्प्रभ खड़ा वह
देखता आश्चर्य से भर
हौंसला मेरा निराला।
ढह रहा प्रासाद उसका
भरभराकर ध्वस्त होता
क्योंकि उसकी नींव का पत्थर बना मैं
आज सहसा खिसक आया हूँ वहाँ से
खुद स्वयं की नींव बनने,
वक़्त मुट्ठी में दबोचे, ढेर सी हिम्मत जुटाकर।
देशी कुत्ते
पार्क में रोजाना टहलाया जाने वाला वह कुत्ता
देखने में किसी विदेशी या संकर नस्ल का ही लगता है
उसके गले में हमेशा एक सुन्दर पट्टा होता है
पट्टे में फँसी चेन उसके मालिक के हाथों में होती है
मालिक अपने दूसरे हाथ में दबे दंडे से
पार्क में उसके पीछे लगे देशी कुत्तों के झुंड को लगातार डराए न तो
पार्क के आगंतुकों के उच्छिष्टों पर ही जीने वाले ये देशी कुत्ते
उसकी तराशे बालों वाली शैम्पू से नहलाई गई साफ-सुथरी देह पर
अब तक कितनी ही खूनी खरोंचे बना चुके होते लपक कर
अपने हक़ की रोटी का एक हिस्सा उससे छीन लेने की उतावली में
या फिर अपनी वंचना की पीड़ा के प्रतिकार के आवेश में।
वह श्वान-प्रेमी यूँ ही रोज सुबह पार्क में टहलने आता है
और अपने साथ उस खाए-पिए विदेशी नस्ल के कुत्ते को भी
नित्य दुलराते हुए टहलाता है
उन्हें देखते ही भौंककर पीछे-पीछे दौड़ पड़ने वाले पार्क के देशी कुत्तों को
वह हिक़ारत से मुँह बिचकाकर हमेशा ही दूर भगाता है
कुत्ते फिर भी गुर्रा-गुर्राकर अपना आक्रोश व्यक्त करते ही रहते हैं
क्या करें, देशी जो ठहरे!
मैंने सोचा, “इन्हें तो गाँवों में ही पलना चाहिए था
पता नहीं कहाँ से ये शहर में आ गए!
इस देश में तो किसी भी शहर का कोई भी श्वान-प्रेमी
कभी भी किसी देशी कुत्ते को नहीं पालता
और कभी भूले से गाँव से आकर यहाँ बस गया कोई शहरी पाल भी लेता है
तो वह शर्म के मारे ऐसे किसी कुत्ते के गले में सुन्दर पट्टा डालकर
उसे रोजाना पार्क में टहलाने नहीं ले जाता।”
खैर, इस रोज-रोज के वाकये को देखकर
मुझे अभी तो यही ग़नीमत लगती है कि
विदेशी नस्लों के प्रेमी इन शहरियों के पीछे
इनके उच्छिष्टों के सहारे जीने को मजबूर
झुग्गियों में रहने वाले देशी इन्सानों का कोई झुंड हमलावर नहीं हुआ है,
लेकिन अगर किसी दिन ऐसा हो गया तो फिर
उनसे इन्हें बचाने के लिए कौन फटकाएगा अपना डंडा?
वैसे रोटी के लिए यहाँ अपनी ही नस्ल के लोगों पर
डंडे फटकाने वालों की भी कहीं कोई कमी है क्या?
फुटबाल का खेल
मैदान में फुटबाल का खेल चल रहा था
टिप्पणियाँ
आज सहसा खिसक आया हूँ वहाँ से
खुद स्वयं की नींव बनने,.............shubh sanket
खुद स्वयं की नींव बनने,
वक़्त मुट्ठी में दबोचे, ढेर सी हिम्मत जुटाकर।" निर्णय और संकल्प प्रणम्य!