नीलोत्पल की कविताएँ




२३ जून १९७५ को उज्जैन में जन्में नीलोत्पल को कविता के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिला है और उनका पहला संकलन 'अनाज पकने का समय' वहीं से प्रकाशित हुआ है. लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नीलोत्पल की कविताएँ निरंजन श्रोत्रिय द्वारा संपादित 'युवा द्वादश' में भी शामिल हैं. वर्ष २००९ का विनय दुबे स्मृति सम्मान भी उन्हें दिया गया था. राजधानियों के शोर-ओ-गुल से दूर रहकर चुपचाप और लगातार लिखने वाले नीलोत्पल की कविताओं की दुनिया उनके आसपास के परिवेश से तो बनती है, लेकिन अपनी अर्थपूर्ण भाषा और सब्लाइम शिल्प के सहारे वह व्यापक  समय और समाज में लगातार हस्तक्षेप करते चलते हैं. उनकी ये कविताएँ उनकी विशिष्ट काव्य क्षमता की गवाही देती हैं.    


क्या होगी वक़्त की सही आवाज़

कैसी होंगी सदी की वे पंक्तियां
जो बिना शोर और हड़बड़ी के लिखी जाएंगी

वह झूठ के बारे में होंगी
या किसी बड़े हादसे के

क्या उसमें बच्चे होंगे
और वे पेड़ जिन्हें अभी तक जलाया नहीं गया

औरतें तो अमूमन वही होंगी
लेकिन वे पंचायते
जिनमें गौत्र, जाति, धर्म की रस्म अदायगी टूटी नहीं
वे कितनी औरतों के मालिक होंगे, कितनों के भक्षक

क्या वह दलितों के उन मसीहाओं के लिए होंगी
जिन्होंने ख़ुद अपनी मूर्ति गढ़ी और गाथा रची
या वे जो उनके यहां भोजन करके
निकल जाते हैं किसी अगली सभा की ओर

क्या होगी इस वक़्त की सही आवाज़
जो हमारे चुप रहने से
ज़्यादा ज़रूरी होगी

वह शेरों के बारे में तो नहीं होगी
कम-से-कम
जो बचे हुए 456, ख़ुद शिकार हैं

क्या वह फ़तवों-फ़रमानों के बारे में
लिख जाएगी
या होगी उन पत्थरों के लिए
जो पूजे, तोड़े और फेंके जाते हैं

क्या होगा इस दुनिया में सदी का सच
हम पेड़ो, गुफाओं और अपनी असभ्य खोल के भीतर
जीवित रहेंगे
आखिरकार
हमारे पास तय करने के लिए कुछ नहीं होगा
सिवाए जख़्मों और निराशा के


ज़िदगी श्वेत वस्त्रों की तरह नहीं

ज़िंदगी श्वेत वस्त्रों की तरह नहीं हो सकती

उसमें कुछ किरचें हैं, खुरचन है, मरोड है
चुभन है, दंश है, प्यार है, प्यार के छलावे हैं
रास्ते हैं बंद रास्तों की ओर जाते,
दोहरापन, छोटी खिडकियाँ जो सिर्फ़ खुलती हैं
भीतर की ओर, रंग हैं लेकिन जंगलों में,
उड़ती धूल हमारी आंखों में,
पत्तों सी खामोशियां,
टूटी मेहराबों पर लटकते सवाल,
कुछ थोड़ी उम्मीदें, विदा लेते हाथ

स्मृतियां हैं रेत में दबी,
दौड़ है बिना रास्तों की,
औरतें हैं अपमान और ऊब से भरीं,
दरवाज़े हैं, दरवाज़ों के भीतर सिर्फ़ परछाईयां

न दावे है, न विश्वास
न ठोस, न तरल
एक अलग ही किस्म का इंसान
जो रुकता नहीं चोट पर,
उसमें रक्त है हिंसाओं से भरा,
मृत्यु शय्याएं हैं अपनों के बाणों से गुंथी
धर्म खड़े हैं अधर्म के रास्तों पर

आस्थाएं है दूसरों की बताई,
ईश्वर है, ईश्वर के बनाए सच
आदमी झल्लाता है, शोर करता है
वह सच चाहता है
वह सच सिर्फ़ अपने लिए चाहता है

ज़िंदगी सिर्फ़ सच नहीं हो सकती
वह लथड़ाती है, पिघलती है
फटती है ज्वालामुखी की तरह

जिंदगी को बने रहना चाहिए
अगर तुम चाहते हो
अगर तुम चाहते हो तो
इसे श्वेत वस्त्र मत पहनाओ।



मैं विदा नहीं ले सकता

मैं इस तरह विदा नहीं ले सकता

मैं भूल नहीं सकता उन्हें
जो जीवन की पूर्णता और अपूर्णता के बीच हैं

वे जो कल फिर भर जाएंगे
इस दुनिया को,
जड़ों को
और हमारी उम्मीदों को
उन्हें लेता रहूंगा इन शब्दों में
पुनरूज्जीवित करूंगा
उनके प्रेम, भरोसे और आंसुओं को

मैं विदा नहीं ले सकता घर की हद तक फैले
इन जंगलों से
यहां कुछ भी ऐसा नहीं कि जिसे आत्मसात न कर सकूं
अपने ढलते मुख के लिए
मेरे चेहरे पर तुम्हारी रोशनियां हैं
मैं दुनिया की तमाम हरकतों पर
तुम्हारे हृदय से गिरी हुई
पत्तियां बिछा देना चाहता हूं

मैं धंसा हुआ हूं उलझे चेहरों में
पसीने, थकान, उदासी, ऊब
झगडे़, प्यार, गुस्से
और लोगों की याददाश्त में

मैं यहां  एक यात्री हूं
मेरे हाथ लोगों के कंधों पर हैं

जब हम नदी पार करेंगे
विदा लेना आसान नहीं होगा

हम भूल जाएंगे नाम और चेहरे
हम भाषा और जगह बदलेंगे
हम अनजान बने रहेंगे हमेशा इस दुनिया में

जबकि हमारा हाथ अब भी कंधों पर होगा
जाने कितनी सदियां पार कराता
कभी न विदा लेता हुआ


हमारे बिल कठोर चीज़ों के बने 

हम किसी बड़े-से बिल में
रहते हैं

चींटियां हमारे सरों से निकलती हैं
बिना आहट के


हम एक आध पाव या सवा सेर
जितनी चीज़े इकठ्ठा करते हैं
ये जरुरत से ज्यादा अनिच्छाएं हैं
कि हम बंद आंखों से आवाज को
महसूस करने की कोशिश करते हैं
लेकिन ऐसा आंख वालों के साथ नहीं है

हमारी आवाज उस शोर की तरह है
जो खोलती नहीं रंगों को
बल्कि अदृश्य हिंसा की तरह
फैलती है चारों तरफ

ये वक़्त शब्द पकड़ने का नहीं
उन्हें ढिल चाहिए, ढील
मसलन पुरानी चीज़ों के
फेंके जाने के पहले तक
नए शीशों के बदल़ जाऩे तक

हमारे बिल कठोर चीज़ों के बने हैं
उनमें सिर्फ सांसे ली जाती है


तुम्हारी नाभि में 

मेरे पास कोई महान उद्देश्य नहीं
मैं सड़ा-गला छिलका बहा दिया गया
ऐसे ही कोई विद्वान धकेल देता है
उस प्यार को
जिसे मैंने रोपा था तुम्हारी नाभि  में

राजनीतिज्ञ जिन्हें प्यार नहीं वोट चाहिए,
वैज्ञानिक जिन्हें सूत्र और सूत्रधार,
धार्मिक अनुष्ठान जिन्हें पाखंड और कट्टरता
मेले और सभाएं जिन्हें भीड़ और तमाशाबीन

एक अकेला मैं
बारीश के बंध के बीच छिटकता हूं स्याही
पृथ्वी की कोरी जगहों पर,
गिरता हूं पत्तों के असभ्य नियंत्रण में,
अंधेरे के पहाड़ों में चोटी की ऊंचाई तलक
देता हूं आवाज बनैले पशुओं को,
खो जाता हूं छोटे-छोटे मोड़ों पर
जिन्हें मिल जाना है तुम्हारे और मेरे लिए

गिरती है विचारों की त्वरा
और मैं एक इंसान से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक....
इसी तरह जाता हूं
मेरा कोई उद्देश्य नहीं
हो सकता है यह झूठा और बेइमान लगे
कहने को तिनका या फंसाना हो
लेकिन मैं इसी तरह हूं
नामहीन, रंगहीन और असत्य

मेरी कोई छवि नहीं
मैं सारे लफ़्जों में गिराया
और लबों से छुआ गया
मैं गर्माता गिलास जिसमें ठंडक घोली जाएगी
मैं चाशनी का तार बार-बार टूटता
गाढा होने के लिए

मेरा क्या उद्देश्य हो सकता है
अगर मैं रेवडिया नहीं बांटता नए साल में
ऊंची इमारतों में टहलता नहीं गिरने का बोझ लादे

अगर मैं हरा होना चाहता हूं
तो ठीक है
मैं तुम्हारी आंखों के लिए एक पेड़ हूं
पतझर और कट जाने तक

अगर मैं अंधेरा हूं
तो ठीक है
मैं तुम्हारे लिए फैली जड़ हूं
गहरी और नाभि की नाल तक धंसी


स्मृतिहीन

मैं बैठा हूं छत पर
स्मृतिहीन

नहीं नक्षत्रों की बरसती रोशनियां
उजाले और अंधेरे के मुखौटे नहीं
भीड़ नहीं, दखल नहीं
यंत्रणा, संताप नहीं

मैं बैठा हूं खामोश

मैं नहीं चाहता आना
जब सड़कों से गुजर रही हांे टोलियां
वहां सिर्फ आश्वासन है

अगर तुम मुझे नहीं देख रहे हो तो
मैं खुश हूं

मैं खुश हूं
क्योंकि मैं हर बार वह नहीं हो सकता
जो तुम मुझे दिखाना चाहते हो

आज हम विकल्प और उम्मीद की
बात नहीं करेंगे

अगर ये सड़कें किसी तरह खत्म हांे
तो हम अपने रास्ते पर होंगे

क्या तुम मुझे अकेला छोड़ोगे
मैं लौटना चाहता हूं
अपनी याददाश्त के साथ




तुम किसके लिए बोलते हो.. 

तुम किसके लिए बोलते हो..
यहाँ कोई आवाज ठहरती नहीं

हर बार तुम ही होंगे
जो बाहर किये जाओगे

कुछ मत तोडों टहनियों से
वहाँ दुख छोड़े गए हैं
उन्हें फैलाओ मत

बस यह खुश स्थिति है कि
हम चलते-चलते अलग हो जाए
और पीछा न हो आवाजों का

घर में रखा ठंडा दीपक जलाए
ताकि हम शान्ति से पहचान सकें
अपने किए अपराध
और याद न रखी गई मासूमियत


अव्यक्त शब्द पाठक के लिए होते हैं 

एक शब्द को लेते ही
छूट जाते हैं दूसरे, तीसरे और चौथे

अपनी बनाई जगह में
पहला, दूसरे, तीसरे और चौथे का विरोधाभास है
इस पर कभी भी हो सकती है बहस

जरूरी नहीं कि
कहा ही जाए पहला शब्द माकूल था

कहने को कितना भी कम है

मेज चारों पायों पर ही संतुलन पाती है
लेकिन ऐसा शब्द के साथ नहीं

शब्द छूटने के लिए ही होते हैं
कहने का आशय
जो पढा नहीं गया
उसे हम पढ़ ले अपनी तरह से

अव्यक्त शब्द पाठक के लिए होते हैं

टिप्पणियाँ

love verma ने कहा…
नीलोत्पल दादा जिंदाबाद
अच्छी कविताएँ...अंतिम कविता विशेष अच्छी लगी
Unknown ने कहा…
नीलोत्‍पल की कुछ कविताएं पहले भी पढ़ी हैं... उनके पास अपना अलग मुहावरा है और सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह कि उन पर किसी का प्रभाव नजर नहीं आता, वे अपनी राह खुद बना रहे हैं... उनकी काव्‍यचिंताएं बिल्‍कुल अपनी लगती हैं और यह बहुत मानीखेज है। शुभकामनाएं।
neera ने कहा…
कवितायें पाठको को आमंत्रित करती हैं कवि की सोच में उतरने को और पाठक तल में पहुँच कर अपने को बैचेन पाता है....
असुविधा ब्लाग समकालीन युवा कविताओं को सामने लाने के लिए एक रोल माडल के रूप में देखा जाता है | इतनी विविधता शायद ही किसी और ब्लाग पर उपलब्द्ध हो ....|इसके लिए आपको बधाई .... ..नीलोत्पल की कवितायें बहुत अच्छी हैं ...'क्या होगी वक्त की सही आवाज ' और 'तुम्हारी नाभि में' नामक दोनों कवितायें तो उत्कृष्ट हैं ...और हां....शेष भी अच्छी हैं ...उन्हें हमारी बधाई ....
अपर्णा मनोज ने कहा…
नीलोत्पल की कविताएँ पहले भी पढ़ी हैं.. बहुत अच्छी कविताएँ हैं. अच्छी पोस्ट के लिए असुविधा का आभार और कवि को शुभकामनाएँ!
बहुत ही कमाल की कवितायेँ हैं ....लीक से हटकर ...आसान ...गंभीर ....कोई बोझिलपन नहीं ......ऐसी कवितायेँ कम पढने को मिलती हैं .. .....मन प्रसन्न हो गया .....लेखक को बहुत बहुत बधाई ......असुविधा का शुक्रिया !
रजनीश 'साहिल ने कहा…
मेज चारों पायों पर ही संतुलन पाती है
लेकिन ऐसा शब्द के साथ नहीं

शब्द छूटने के लिए ही होते हैं
कहने का आशय
जो पढा नहीं गया
उसे हम पढ़ ले अपनी तरह से...

kuchh aise hi hain ye kavitayen. shabdon se bahar bhi baat karti hain.
Sonroopa Vishal ने कहा…
बहुत प्रभावी और संप्रेषित रचनाएँ ...........
neelotpal ने कहा…
सभी मित्रों का शुक्रिया.
neelotpal ने कहा…
सभी मित्रों का शुक्रिया.
Umesh ने कहा…
नीलोत्पल की कविताओं का मैन शुरू से कायल हूँ। सधे हुए शब्दों में वे आज के समय की पुरी पड़ताल करते हैं। 'क्या होगी वक्त की सही आवाज' एक जोरदार कविता है, जिसमें आज की दलित राजनीति का सच कितनी बेबाकी से उभरा है:

"क्या वह दलितों के उन मसीहाओं के लिए होंगी
जिन्होंने ख़ुद अपनी मूर्ति गढ़ी और गाथा रची
या वे जो उनके यहां भोजन करके
निकल जाते हैं किसी अगली सभा की ओर"

नीलोत्पक का यह प्रश्न ही तो सारी निराशाओं के बीच भी हमें कुछ कहने के लिए मजबूर किए रहता है:

"क्या होगी इस वक़्त की सही आवाज़
जो हमारे चुप रहने से
ज़्यादा ज़रूरी होगी"

आगे की कविताओं में भी ऐसा ही शिल्प, ऐसा ही कथ्य:

"स्मृतियां हैं रेत में दबी,
दौड़ है बिना रास्तों की,
औरतें हैं अपमान और ऊब से भरीं,
दरवाज़े हैं, दरवाज़ों के भीतर सिर्फ़ परछाईयां"

"मेरे चेहरे पर तुम्हारी रोशनियां हैं
मैं दुनिया की तमाम हरकतों पर
तुम्हारे हृदय से गिरी हुई
पत्तियां बिछा देना चाहता हूँ।"

"मैं यहां एक यात्री हूं
मेरे हाथ लोगों के कंधों पर हैं"

"अगर मैं अंधेरा हूं
तो ठीक है
मैं तुम्हारे लिए फैली जड़ हूं
गहरी और नाभि की नाल तक धंसी"

और फित कुछ सधे हुए सूत्र-वाक्य:

"जिंदगी को बने रहना चाहिए
अगर तुम चाहते हो
अगर तुम चाहते हो तो
इसे श्वेत वस्त्र मत पहनाओ।"

"शब्द छूटने के लिए ही होते हैं
कहने का आशय
जो पढा नहीं गया
उसे हम पढ़ ले अपनी तरह से

अव्यक्त शब्द पाठक के लिए होते हैं"

बधाई नीलोत्पल को इन सारगर्भित कविताओं के लिए और असुविधा को इन्हें सामने लाने के लिए!
Amit Manoj ने कहा…
neelotpal ki kavitaon men jeewan ka ek raag dhadkta hai...

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