उम्मीद का कोई विकल्प नहीं - कुमार अम्बुज
वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज के ताजा संकलन 'अमीरी रेखा' पर लिखी मेरी यह समीक्षा कथन के ताज़ा अंक में छपी है.
उम्मीद का कोई विकल्प नहीं
कही जा सकती
हैं बातें हज़ारों
यह समय फिर
भी न झलकेगा पूरा
झाड-झंखाड
बहुत
एक आदमी से न
बुहारा जाएगा
इतना कूड़ा
क्या बहारूं
क्या कहूँ,
क्या न कहूँ?
अच्छा है
जितना झाड सकूं, झाडूं
जितना कह
सकूँ, कहूँ
कम से कम चुप
तो न रहूँ. (कोशिश)
कुमार अम्बुज
के ताजा संकलन ‘अमीरी
रेखा’
की यह कविता उनके काव्य व्यक्तित्व और उनके काव्य-अभीष्ठ, दोनों का परिचय देती है.
उनके यहाँ न नियंता होने का अहंकार है, न किंकर्तव्यविमूढता या फिर व्यर्थताबोध से
उपजी निराशा. उनका कवि-कर्म बकौल ब्रेख्त ‘बुरे
समय में बुरे समय की कविताएँ’
लिखने की एक मुसलसल जद्दोजेहद है. कला की जो विधा उन्होंने चुनी है उसके ‘कला’ होने का जितना
एहसास उन्हें है, उतना ही इसकी सामाजिक भूमिका का भी. इस संकलन के पहले पन्ने पर
उन्होंने ऋत्विक घटक की यह पंक्ति उद्धृत की है –“दुनिया में अभी तक कोई वर्गविहीन कला
नहीं है क्योंकि वर्ग विहीन समाज नहीं है”.
अम्बुज जी इस वर्ग विभक्त समाज में अपनी पक्षधरता के साथ उपस्थित होते हैं और
इसीलिए वह प्रथमतः और मुख्यतः एक राजनीतिक कवि हैं जिनकी कविताओं से गुजरते हुए आप
अपने समय, समाज और राजनीति की प्रामाणिक तस्वीरें ही नहीं देखते बल्कि उनके बरक्स
एक बेहतर समाज के निर्माण की जद्दोजेहद से भी रु-ब-रु होते हैं.
इस संकलन की
कविताओं को पढ़ते हुए जो चीज सबसे पहले ध्यान खींचती है, वह है एक तेजी से विखंडित
होती जा रही सामाजिक संरचना के मानवीय लक्षणों के विलुप्त होते जाने और उसकी जगह
एक नई और आक्रामक सामाजिक संरचना के प्रभावी होते चले जाने की सटीक पहचान, और उसके
खिलाफ एक प्रभावी हस्तक्षेप का प्रयास. ‘नयी
सभ्यता की मुसीबत’
में वह कहते हैं –
हमें पूर्वजों के प्रति नतमस्तक होना चाहिए/ (उन्हें जीवित रहने की अधिक
विधियाँ ज्ञात थीं/ जैसे हमें मरते चले जाने की ज़्यादा जानकारियाँ हैं)/. इसी
कविता में वह आगे कहते हैं- माना कि लोग निरीह हैं लेकिन बहुत दिनों तक सह न
सकेंगे/ स्वतंत्रता सबसे पुराना विचार है सबसे पुरानी चाहत/ तुम क्या-क्या सिखा सकती
हो हमें/ जबकि थूकने तक के लिए जगह नहीं बची है....हम चाहते हैं तुम हमारे साथ कुछ
बेहतर सुलूक करो/लेकिन जानते हैं तुम्हारी भी मुसीबत/ कि इस सदी तक आते-आते तुमने/
मनुष्यों की बजाय/ वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश कर दिया है. नब्बे के दशक के
पूर्वार्द्ध में लिखी गयी अपनी एक बहुचर्चित कविता ‘क्रूरता’ (जिस नाम से उनका एक संकलन भी है) में
उन्होंने जिन भावी परिस्थितियों की पहचान की थी, अब इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के
खत्म होते-होते वे अपनी पूरी भयावहता के साथ हमारे सामने उपस्थित हैं. ‘तानाशाह की पत्रकार
वार्ता’
जैसी कविता इस भूमंडलीय विश्व में ‘मानवता’, ‘सुंदरता’ और ‘अहिंसा’ जैसे शब्दों के
अपने अर्थ खोते जाने की गवाह है. पिछली तमाम सदियों की यात्रा में बड़े जतन से
संजोये गए आदर्श हमारे समय में खंडित होते चले जा रहे हैं और पूरा मानवीय जीवन बस
एक उद्देश्यहीन दौड़ होकर रह गया है. इस
संकलन की शीर्षक कविता में जब वह कहते हैं कि ‘तुम्हें
यह देखने के लिए जीवित रहना पड सकता है/ कि सिर्फ अपनी जान बचाने के खातिर/ तुम
कितनी तरह का जीवन जी सकते हो’
तो उस क्रूरता के अपनी चरम परिणिति की ओर पहुँचते जाने का एक सिहरन भरा एहसास पाठक
महसूस कर सकता है. और यह एहसास भर काफी नहीं इन हालात के मुकाबले के लिए. ज़रूरत है
इसमें हस्तक्षेप की. ज़रूरत है जोखिम उठाने की. अगर हमारे जीवन में जोखिम नहीं/
तो तय है वह हमारे बच्चों के जीवन में होगा/ सिर्फ सम्पत्तियाँ उत्तराधिकार में
नहीं मिलेंगी/ गलतियों का हिसाब भी हिस्से आएगा. (रचना प्रक्रिया). अम्बुज जी
की कविताएँ उन जोखिम भरे रास्तों पर ले जाने वाली कविताएँ हैं. इन कविताओं का कवि
जानता है कि ‘आत्महत्या
के लिए दस मिनट का साहस चाहिए/ और जीवन के लिए सिर्फ दस सेकण्ड का.
नई संस्कृति
के इस अमानवीय बाज़ार समय में जो चीज सबसे भयावह तरीके से शिकार हुई है- वह है
मानवीय संवेदना. सब कुछ इतनी तेजी से घटता चला जा रहा है और उसके बरक्स सुविधाओं
की होड़ में मनुष्य इस कदर व्यस्त है कि बड़ी से बड़ी घटना अब बस एक ब्रेकिंग न्यूज
है उनके लिए. ऐसे में खुद को लगातार बचाए रख पाना भी एक मुश्किल लेकिन ज़रूरी काम
है. ‘अपने
ही सर्वे के लिए कुछ सवाल’
में वह खुद से पूछते हैं –
जब हत्या का समाचार पढ़ता हूँ/तो कितनी देर बाद पी लेता हूँ शरबत/ और कितनी देर बाद
लग जाती है भूख/ अपने ऊपर बीतती है तो/ हाथ से छूट तो नहीं जाती विचारधारा?’
कविता में दर्ज
स्मृतियाँ भी उनके लिए इन्हीं संवेदना के स्रोतों की तलाश और उन्हें ज़िंदा रखने की
जद्दोजेहद का हिस्सा हैं. उनकी स्मृतियाँ न तो कुछ लुप्तप्राय औजारों की फैशनपरस्त
गलियों में भटकती हैं और न ही सुदूर अतीत के सुविधाजनक रंगशालाओं में. उनके यहाँ
कुछ छूट गए शहर हैं, पुश्तैनी गाँव है,
दोस्त हैं, कोई कस्बा है और ऐसी ही तमाम चीजें हैं जिनके साथ वहाँ का जीवन और कुछ
मानवीय निशानियाँ अविभाज्य रूप से जुड़ी हैं. ‘कुछ
शहरों को याद करते हुए’
में वह कहते हैं –हर
शहर में एक स्त्री का स्थापत्य छिपा है तो ‘पुश्तैनी
गाँव के लोग’
आश्वस्ति देते हैं कि तुम्हारा घर गिर चुका है लेकिन हम लोग हैं.
इस संकलन में
कुछ कविताएँ रिश्तों पर हैं. इनमें जिस एक कविता पर मैं विशेष रूप से बात करना
चाहूँगा वह है –
‘पिताओं के
बारे में कुछ छूटी हुई पंक्तियाँ’.
हिन्दी में माँ पर ढेरों कविताएँ हैं लेकिन पिता कविता के परिदृश्य में छूटा हुआ
विषय ही रहे हैं अक्सर. इस कविता में पिता पर लिखते हुए अम्बुज जी ने बेहद आत्मीय
तरीके से एक सीमित साधनों वाले परिवार में पिता का मानवीय और विश्वसनीय रेखाचित्र
खींचा है. पितृसत्तात्मक समाज एक ओर औरत को चूल्हे-चक्की से बांधकर दोयम दर्जे की
नागरिक में तब्दील कर उसके हिस्से इतनी करुणा दे देता है कि उसे करुणास्पद और
दयनीय बना देता है तो दूसरी ओर पुरुष को गृहपति का दर्ज़ा दे उसके काँधे पर
पुरुषत्व का ऐसा बोझ लाद देता है कि उसके लिए अपनी छोटी-छोटी खुशियों और स्नेह ही
नहीं, मजबूरियों के प्रदर्शन को भी दुष्कर बना देता है – ‘पिताओं का प्रेम
तुलाओं पर माँओं के प्रेम से कम पद जाता है/ और अदृश्य बना रहता है या फिर
टिमटिमाता है अँधेरी रातों में.’
परिवार
की जिम्मेदारियों के बीच यह पुरुषत्व भी बार-बार ठोकरें खाता है, मानसिक या
शारीरिक श्रम बेचकर जीने वाला वह पुरुष जिसके कन्धों पर परिवार की जिम्मेदारी होती
है, घर के भीतर जितना भी शक्तिशाली और वर्चस्वशाली हो, घर के बाहर उसकी यही
जिम्मेवारी उसे कमजोर मनुष्य बना देती है –
‘पिताओं
की सख्त आवाज घर के बाहर कई जगहों पर/ कई लोगों के सामने गिडगिडाती हुई पाई जाती
है/ वे जमाने भर से क्रोध में एक अधूरा वाक्य बुदबुदाते हैं – ‘यदि बाल-बच्चे न
होते तो मैं तुम्हारी...’
इस पूरी कविता का वितान इतना सघन और इतना संवेदनशील है कि
कविता अपनी अंतिम पंक्तियों तक जाते-जाते आपको विह्वल ही नहीं करती बल्कि समाज में
एक पारिवारिक मनुष्य की विडम्बनाओं को पिता के माध्यम से रेशा-रेशा चित्रित करते
हुए उदास कर देती है. रिश्तों पर लिखी एक और कविता ‘भाई’
है जो मेरे सीमित अध्ययन में हिन्दी में इस विषय में पर लिखी इकलौती कविता है.
एक दूसरी
कविता ‘खाना
बनाती स्त्रियाँ’
इस पितृसत्तात्मक समाज की सबसे बड़ी शिकार औरतों की उस विडंबना को प्रश्नांकित करती
हैं, जिसका ज़िक्र मैंने पिछले पैरा में
किया है. बचपन से लेकर बुढापे तक चूल्हे की आग में सुलगती स्त्री के तमाम
दृश्य जिस तरह कविता में आते चले जाते हैं उन्हें पढ़ते हुए आप एक गहरे संताप और
उद्विग्नता से भर जाते हैं. सुंदरता और सुघड़ता जैसे सामंती मानदंड हों या फिर
शिक्षा और पद-प्रतिष्ठा जैसे पूंजीवादी मानदंड, खाना बनाने का कौशल सिद्ध किये
बिना एक औरत के लिए ये सब बेकार रहे. घर की चारदीवारी की क़ैद टूटी भी तो चूल्हे की
क़ैद बदस्तूर जारी रही. इस अपेक्षाकृत लंबी कविता में अम्बुज जी ने जिस तरह से
दृश्यों और रंगों का कोलाज सा बनाया है, यह एक दीर्घ पेंटिंग सी लगती है, जहां
तमाम दृश्य एक-दूसरे से स्वतन्त्र होने के बावजूद एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े
हुए हों. हालाँकि यहाँ यह भी दिखता है कि इन दृश्यों को दर्ज करने वाला अपनी तमाम
सहानुभूति के बावजूद सिर्फ प्रेक्षक के रूप में है. ‘अपने ही सर्वे’ में ‘मेरे घर में मेरी
उपस्थिति मेरा हस्तक्षेप मेरी सक्रियता/ शयनकक्ष के अलावा और कहाँ है?, जैसा
सवाल पूछ चुका कवि अब भी अब भी चौके से उतना ही दूर खड़ा नजर आता है.
साम्प्रदायिकता के साथ बढ़ती जा रही दूरियों को दर्ज करने वाली
एक अद्भुत कविता है ‘आसानी’. कुल छह पंक्तियों
की इस कविता में उन्होंने शहरों के भीतर उगती जा रही सीमाओं को इस शिद्दत से दर्ज
किया है कि यह कविता आपको बहुत भीतर तक व्यथित करती है. (आधुनिक कंसंट्रेशन कैम्प) के उपशीर्षक के साथ यह फासीवाद के आसन्न खतरे की ओर इशारा करती
है.
मैं बहुसंख्यकों के मोहल्ले में रहता हूँ/ तुमने भी बना ली
है अपनी अलग बस्ती / मिट्टी से अलग मिट्टी/ पानी से अलग पानी है/ हत्यारों को/ अब
कितनी आसानी है!
इस कविता के ठीक बाद आई कविता ‘हत्यारे की जीवनी’ इस
परिदृश्य के दूसरे पक्ष को पूरे विस्तार के साथ सामने लाती है. इस कविता में कुमार
अम्बुज ने छोटे-छोटे विवरणों का उनके पूरे डिटेल्स के साथ विवरण किया है. बेहद
सब्लाइम ट्रीटमेंट के साथ वह परत दर परत हत्यारे की जीवनी के पन्ने खोलने जाते
हैं, जिसमें सब कुछ है ह्त्या के सिवाय. ‘जीवन में कविता
की किताब खोजते हुए अचानक मिल गयी’ उस किताब में फूल थे,
प्रेम था, कवि जैसा हृदय था, चित्रकार था, डाक्टर था और यहाँ तक कि लोकप्रियता भी
थी. बस एक दुर्बलता थी कि ‘उसे नापसंद थे गन्दगी में रहने
वाले लोग’. आज जब ‘विकास’ और ‘लोकप्रियता’ जैसे तर्कों
के सहारे में देश के भीतर एक हत्यारे के
चेहरे के सारे दाग भुलाकर उसे शासन सौंप दिए जाने की साजिशें हो रही हैं तो यह
कविता उन साजिशों और उन हत्यारों के असली चेहरे की पहचान में मदद करती है.
किसी भी दौर की प्रभावी संस्कृति उस दौर की प्रभावी राजनीतिक
विचारधारा की उत्पाद होती है. सांस्कृतिक उपकरण के रूप में भाषा भी उस् विचारधारा
के वर्चस्व को बनाये रखने में मदद करती है और ऐसे सहजबोधों का निर्माण करती है जो
उस व्यवस्था के अनुकूल हों. कबीर से मुक्तिबोध और उसके बाद की भी सच्ची राजनीतिक
कविता इन सहजबोधों को प्रश्नांकित करती है. ‘संस्कार’, ‘सहनशीलता’, ‘स्वांतः सुखाय’ जैसी कविताएँ इसी मुश्किल काम को
अंजाम देती हैं. ‘सहनशीलता : कुछ वाक्य’ शीर्षक कविता में वह कहते हैं – ‘आप पत्थर, लोहे या पेड़ से भी कुछ सीख सकते हैं/ हालांकि आप पेड़, पत्थर या
लोहा नहीं हैं.’ सबकुछ बर्दाश्त करते हुए एक अर्थहीन
जीवन जीने के बरक्स अपनी एक छोटी कविता ‘स्मरण’ में वह कहते हैं – ‘घोंघा
भी चलता है तो रेत में, धूल में /उसका निशान बनता है/ फिर मैं तो एक मनुष्य हूँ. कुमार अम्बुज की कविता इसी मनुष्य होने की पहचान को बचाए रखने और मानीखेज
बनाने की लड़ाई में मनुष्य की अदम्य जीजिविषा और उम्मीद की कविता है. इसी संकलन की
एक और छोटी कविता ‘विकल्पहीनता’ के सहारे से कहूँ तो ‘जीवन के सामने/ सबसे बड़ी
मुश्किल यह है/ कि उम्मीद का कोई विकल्प नहीं/ मृत्यु भी नहीं.
जन्म : 13/04/1957, गुना (म.प्र.)
मुख्य कृतियाँ :कविता संग्रह- किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण
कहानी संग्रह- इच्छाएँ
सम्मान :भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा सम्मान, केदार सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, गिरजाकुमार माथुर सम्मान
संपर्क: एचआईजी सी 10, तृतीय तल, गुलमोहर ब्लॉक, ग्रीन मीडोज, अरेरा हिल्स, पुरानी जेल रोड, भोपाल - 462011
फोन :91-9424474678
ई-मेल :kumarambujbpl@gmail.com;kumarambuj.blogspot.com
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टिप्पणियाँ
तुम्हारा शिरीष
लेखक और समीक्षक
दोनो बधाई के पात्र हैं !
चुप कहाँ रहा जाता है
तभी तो ब्लाग बनाता है
किताब बनाता है
वहाँ देखता है
यहाँ आ जाता है
सब कुछ बताता है
सुनने के लिये
पढ़ने ले किये
कोई कोई आ पाता है
उस कोई में से भी
कोई कोई कुछ
लिख जाता है !