एक जनकवि को श्रद्धांजलि



जनकवि बंशीधर शुक्ल का समग्र मूल्यांकन अभी शेष है
  • डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स


जनकवि बंशीधर शुक्ल का समग्र मूल्यांकन होना अभी शेष है . यह विडम्बना ही है कि खड़ी बोली हिन्दी में “ कदम-कदम बढायें जा खुशी के गीत गाये जा , ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाए जा ” जैसी कालजयी रचना का सृजन करने के बावजूद शुक्ल जी को केवल अवधी का कवि ही सिद्ध किया जाता रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाले इस इस रचनाकार की लोकप्रियता केवल अवध अंचल तक ही सीमित रह गयी . शुक्ल जी का साहित्यिक अवदान भले ही आलोचकों व् साहित्यिक मठाधीशो की दृष्टि में उपेक्षित रहा हो , उनका वास्तविक सम्मान इस देश के जन-जन ने किया है . स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आजादी के दीवानों के गले का हार बनी यह रचनाएं आज भी लोगों को याद हैं , हाँ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग रचनाकार को भुला बैठे .

लोक संस्कृति , लोक विश्वास , ग्रामीण प्रकृति परिवेश व ग्राम जीवन को प्रतिबिंबित करने वाले माँ वाणी के इस कुशल आराधक का जन्म उत्तर प्रदेश में लखीमपुर जिले के मन्यौरा गाँव में सन १९०४ में हुआ था . माँ सरस्वती के जन्म दिवस बसंत पंचमी के दिन एक कृषक परिवार में जन्म लेने वाले बंशीधर नें माता सरस्वती की साधना को ही अपना लक्ष्य बना लिया . इनके पिता पं. छेदीलाल शुक्ल सीधे-सादे सरल ह्रदय के किसान थे जो अच्छे अल्हैत के रूप में विख्यात थे और आसपास के क्षेत्र में उन्हें आल्हा गायन के लिए बुलाया जाता था . वे नन्हें बंशीधर को भी अपने साथ ले जाया करते थे . पिता द्वारा ओजपूर्ण शैली में गाये जाने वाले आल्हा को बंशीधर मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे . सामाजिक सरोकारों से बंशीधर के लगाव के पीछे उनके बचपन के परिवेश का बहुत बड़ा हाथ था . सन १९१९ में पं. छेदीलाल चल बसे . पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ अब बंशीधर के सर पर था . यह उनके लिए बड़े संघर्षों का समय था . इन्हीं संघर्षों से उनके व्यक्तित्व में जीवटता और अलमस्ती पैदा हुई . इसी समय की कठिनाईयों ने उनमें व्यवस्था के प्रति विद्रोही स्वर पैदा 
किया . सन १९२५ के करीब वे गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आये .विद्यार्थी जी के सानिध्य में उन पर स्वतंत्रता-आंदोलन का रंग गहराने लगा और कविता की धार भी पैनी होती चली गयी .उन्होंने मातृभूमि की सेवा करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और अनेक बार जेल की यात्रा की .

शुक्ल जी लोकवादी कवि थे . उन्हें जनकवि तथा अवधी सम्राट की संज्ञाये प्रदान की गई . वस्तुतः उनकी रचनाएं लोक काव्य तथा परिनिष्ठित काव्य की सेतु कही जा सकती हैं . आधुनिक हिन्दी में वही एक अकेले कवि हैं जो बिना प्रकाशन के पूरी प्रसिद्धि पा गए , जबकि पोथा लिख-लिखकर भी लोग जाने नहीं जाते . जिस कवि में जितनी मौलिकता , अनुभूति की गहराई व कला की कमनीयता होती है , वह उतना बड़ा साहित्यकार होता है . बंशीधर शुक्ल ऐसे ही साहित्य सर्जक थे . ग्राम प्रकृति अंकन , ग्राम्य जीवन वर्णन , दैन्य और शोषण का चित्रण , जन जीवन की अभिव्यक्ति , व्यवस्था-विद्रोह , सामाजिक-राजनैतिक रूढियों का विरोध , किसानों – मजदूरों के प्रति गहरी संवेदना , धार्मिक सौहार्द , मानवतावाद आदि उनके काव्य की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो प्रायः आधुनिक हिंदी काव्य में उनकी अकेली हैं .

शुक्ल जी राष्ट्रवादी कवि हैं . उनकी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम सर्वत्र व्याप्त है . स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी लिखी गयी रचनाएं तो उस युग का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं . अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध उनके ह्रदय में जो उबाल था , 
उनकी रचनाओं मे प्रवाहित हो रहा था . गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से लिखी गई उनकी क्रांतिकारी कविता को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने छपवा कर पूरे देश में बंटवाया . रचना पर कवि का नाम नहीं छापा गया . इस रचना को प. जवाहरलाल नेहरू ने ‘खूनी पर्चा’ शीर्षक दिया . बौखलाई अंग्रेज सरकार अंत तक रचनाकार का पता नहीं लगा पायी . रचना में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति शुक्ल जी का आक्रोश देखते ही बनता है –

अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं , मर-मर अमर कहाऊंगा 
जब तक तुझको मिटा न दूंगा , चैन न किंचित पाउँगा 
क्या-क्या कृत्य बयान करूं , इस जाति फिरंगी कायर की .
शेष शारदा बरनी सके नहीं , जुबां में ताकत शायर की .
बना खड़ा आसमां धुएं से , बंदूकों के फायर की .
खून उबल पड़ता है एकदम , करतूत याद कर डायर की .
सारी दुनिया तुझे बचाए फिर भी मार भगाऊँगा ,
जब तक तुझको मिटा न दूंगा , चैन न किंचित पाउँगा .

सन १९२८ से १९३० के दौरान लिखी गई शुक्ल जी की कवितायें ‘ उठो सोने वालों सवेरा हुआ है , वतन के फकीरों का फेरा हुआ है ’ तथा ‘ उठ जाग मुसाफिर भोर भई , अब रैन कहाँ तू सोवत है ’ राष्ट्र भक्तों के गले का हार बन गई . ‘ उठ जाग मुसाफिर भोर भई ’ रचना तो रफ़ी अहमद किदवई को इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे महात्मा गांधी के पास भिजवा दिया . गांधी जी की प्रार्थना-सभा में इसे गाया जाने लगा –

उठ जाग मुसाफिर भोर भई ,
अब रैन कहां तू सोवत है .
लड़ना वीरों का पेशा है ,
इसमें कुछ न अंदेशा है .
तू किस गफलत में पड़ा-पड़ा ,
आलस में जीवन खोवत है .
है आजादी ही लक्ष्य तेरा ,
उसमें अब देर लगा न ज़रा .
जब सारी दुनिया जाग उठी ,
तू सिर खुजलावत रोवत है .

‘ मोरे चरखे का न टूटे तार चरखवा चालू रहे ’ , ‘ हो जाओ तैयार जवानो ! हो जाओ तैयार ’ , ‘ आओ वीरो चलो जेलखाने ’ , ‘सिर बंधे कफ़नवा हो शहीदों की टोली निकली ’ जैसी उनकी तमाम रचनाएं कांग्रेस की प्रभात फेरियों में गाई जाती थीं .शुक्ल जी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के भी सन्निकट रहे . उनके द्वारा लिखा गया ‘ कदम-कदम बढाए ’ जा मार्चिंग सांग नेता जी के आजाद हिंद फौज में गाया गया . इस गीत के माध्यम से उन्होंने जागरण का शंख फूँका और देशवासियों को स्वतंत्रता का गीत गाने की प्रेरणा दी.-------

कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाये जा ,
ये जिंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाए जा .
निगाह चौमुखी रहे विचार लक्ष्य पर रहे ,
जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ नजर रहे .
स्वतंत्रता का गीत है स्वतंत्र हो के गाये जा .

शुक्ल जी समाजवादी चिंतन से प्रभावित थे . कांग्रेस में भी वे गर्म दल के हिमायती थे तथा अति अहिंसावाद के
आलोचक थे . सन १९४० तक आते-आते उन्हें लगने लगा कि केवल गांधी जी के शांतिपूर्ण प्रयासों से आजादी नहीं मिलने वाली . आ पगले ग़दर मचाये कविता में उनके ह्रदय की छटपटाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है –

आ पगले ग़दर मचाएं .
ले शक्ति संभल सम्मुख दल-दल ,
है निबल-विकल नहीं सके संभल.
ओ वीर उछल कर शीघ्र कवल,
दे मत ब्रिटिश की चहल-पहल.
मत देख दाहिने – बायें .

शुक्ल जी राजनैतिक दृष्टि बिलकुल साफ़ थी . उनके लिए राजनीति का एक मात्र अर्थ जनसेवा था , इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं . एक राजनेता के रूप में उन्होंने कभी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं पाली . उनकी रचनाओं में गंदी राजनीति के विरुद्ध आक्रोश उफनता दिखाई पड़ता है . आजादी के बाद सर्वहारा वर्ग के सपने जवान हो गए , उन्हें लगने लगा कि अब खुशहाली के दिन लौटने वाले हैं , किन्तु इन सपनों को ग्रहण लगते ज्यादा देर न लगी . परिस्थितियां ज्यों कि त्यों रहीं .सामंती शासन व्यवस्था ने ही नया चोला पहन लिया . जमींदार , पूंजीपति , साहूकार , महाजन ही देश के नेता बन बैठे और चुनाव जीत कर मंत्री पद पा गए . कृषक , श्रमिक , दबे-कुचले पीड़ा से कराहते ही रहे . प्रजातंत्र के नकली चेहरे को देखकर शुक्ल जी क्षुब्ध हो उठे . उन्होंने सामन्तशाही से खीजकर कांग्रेस छोड़ दी और जयप्रकाश नारायण तथा आचार्य नरेंद्र देव के साथ समाजवादी दल में सम्मिलित हो गए . सन १९५७ के आम चुनाव में वे समाजवादी दल के प्रत्याशी के रूप में विधायक
चुने गए . बंशीधर शुक्ल की लोकतंत्र में पूरी निष्ठा थी . उनका मानना था कि यदि विरोधी न हों तो जनता द्वारा चुनी गयी लोकतांत्रिक सरकार भी निरंकुश व तानाशाह हो जाती है .---

क्षण-क्षण उलट-पलट करने से ,
जनता के सचेत रहने से .
शासन अंध, न्याय भी करता ,
प्रबल विरोधी दल बनने से .
जो न विरोधी हों तो शासक –
करता अत्याचार .
पलटिए बार-बार सरकार .

शुक्ल जी प्रबल व्यवस्था विरोधी थे . यहां तक की नौकरशाहों के बल पर देश वाले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु कोचेतावनी दे डाली –

ओ शासक नेहरु सावधान ,
पलटो नौकरशाही विधान .
अन्यथा पलट देगा तुमको ,
मजदूर, वीर योद्धा , किसान .

ऐसा नहीं है कि शुक्ल जी का उद्देश्य केवल शासन विरोध करना ही रहा हो . उन्होंने सन १९७१ के भारत-पाकिस्तान युद्ध का समर्थन किया . स्व. इंदिरा गांधी की बांग्लादेशी नीति की प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘विश्व-रक्षिणी’ कह कर संबोधित किया –

विश्व का पलट दिया इतिहास .
धन्य इंदिरा विश्व-रक्षिणी दीन हिंद की आस.
क्षण में जग का पासा पलटा राजनीति का साँचा पलटा .
बंग मुक्तिवाहिनी बना कर पाकिस्तानी ढांचा पलटा .
जिना, अयुब युक्त याहिया का किया मनोभव नाश .
विश्व का पलट दिया इतिहास .

संवेदनाद्रावी कवि बंशीधर शुक्ल ने लोक जीवन की अनाविच्छिन्न व्यथा की मर्म विदारक गाथा जिन स्वरों में 
प्रस्तुत की है , उन्हें सुनकर किसी भी संवेदनशील मनुष्य का ह्रदय टूक-टूक हो जाएगा और उसके ह्रदय में दारुण व्यवस्था को बदल डालने का सात्विक क्रोधाविष्ट संकल्पन जाग उठेगा . उनका समस्त अवधी काव्य तो करुणा की नींव पर ही खड़ा है . अपने अवधी काव्य में उन्होंने दाने-दाने के लिए तडपते हुए श्रमिक , भीख मांगते हुए भिखारी और भूख की ज्वाला से पीड़ित कृषक के सुख-दुःख की जैसी मर्मस्पर्शी भाव-व्यंजना की है , वह मनुष्य मात्र को स्पर्श करने वाला है . ‘किसान की दुनिया’ , ‘राजा की कोठी’ , ‘राम मडैया’ आदि कविताओं में व्यक्त कारुणिक अनुभूतियाँ तो संवेदनशील मन को झकझोर देतीं हैं . उनके द्वारा उकेरी गयी किसान की दुनिया को देखकर दिल दहल उठता है –

जमींदार कुतुआ अस नोचें देह की बोटी-बोटी .
नौकर , प्यादा औरु कारिन्दा ताके रहै लंगोटी .
पटवारी खुरचाल चलावैं बेदखली इस्तीफा .
रौजै कुड़की औ जुर्माना छिन – छिन वहै लतीफा .
मोटे-झोटे कपड़ा – बरतन मोटा झोटा खाना .
घर ते ख्यात ख्यात ते बग्गरू कहूं न आना-जाना .
नंगा-ठग्ग इज्जति पावै कीमियागर पुजवावई,
जहां जाय तहां ठगि कई आवै यहै किसान के दुनिया .

शुक्ल जी का प्रकृति सौंदर्य तो अनूठा है . भले ही कविवर सुमित्रानंदन पन्त को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है , किन्तु ग्राम-परिवेशी प्रकृति की जैसी सूक्ष्म बंशीधर शुक्ल ने की है , वो समस्त हिन्दी साहित्य में अन्यतम है . यों तो उन्होंने ‘सरद-जोंधैया’ , ‘हेवंत’ , ‘सिसिर’ , ‘बसंत’ , ‘तपनि’ , ‘चौमासा’ , ‘बहिया’ , ‘पाथर’ आदि कविताओं में छहों ऋतुओं का विविध रूपी जीवंत वर्णन किया है, किन्तु किसान होने के नाते उन्हें पावस ऋतु बहुत प्रिय है . उनके मत से पावस ही ऋतुराज है . ग्रामीण वातावरण के नैसर्गिक सौंदर्य का एक दृश्य देखें –

कहूं-कहूं बांसन का झुरमुट नागफनी चौधारा .
मूँज , बेल्झर , कांट-करौंदा रूधि रहे गलियारा 
जहाँ बसन्त चुवावई महुआ जेठ तपे जल बरसे
सरद कमल, हेवन्तु गेंदन पर सिसिर कुसुम पर बिलसै.

जन साहित्य-सर्जकों के अग्रदूत जनकवि बंशीधर शुक्ल का देहावसान सन १९८० में हुआ . वे जीवन भर देश के दबे –कुचले सर्वहारा वर्ग के लिए लड़ते रहे . हजारों-हजार भारतीय गावों की दशा का चित्रण उन्होंने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया क्योंकि यह उनका भोगा हुआ यथार्थ था और इसी यथार्थ को दिखाने के लिए उन्होंने अपनी कविता की छटपटाती उंगलियों से लोगों की आंखें खोलने का प्रयत्न किया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शुक्ल काव्य का समग्र मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका . उत्तर प्रदेश में डा. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय , लखनऊ विश्वविद्यालय तथा कानपुर विश्वविद्यालय के बी.ए. के हिन्दी पाठ्यक्रम में शुक्ल जी की अवधी कवितायें सम्मिलित की गयी हैं . उनके अवधी काव्य को केन्द्र में रखकर कई शोध-प्रबंध भी लिखे 
जा चुके है. किन्तु इतना पर्याप्त नहीं है . उनका खड़ी बोली काव्य पूरी तरह अस्पृष्ट रह गया . निसंदेह शुक्ल जी ने अवधी बोली व् साहित्य के गौरव को द्विगुणित किया है . अवधी शुक्ल जी के बहुप्रातिभ कलाकार को पाकर धन्य हो गयी . यह भी सत्य है कि शुक्ल जी की मूल संवेदना अवधी में ही रमी है , परन्तु उनका खड़ी बोली काव्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. शुक्ल जी के खड़ी बोली काव्य को जिस प्रकार उपेक्षित किया गया , उसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय चेतना के इस अमर गायक की छवि आँचलिक कवि के रूप में ही सीमित होकर रह गई . अभी कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने ‘बंशीधर शुक्ल रचनावली’ प्रकाशित की है जिसमें शुक्ल जी की कुछ खड़ी बोली की रचनाएं भी सम्मिलित की गई हैं, किन्तु इन कविताओं का अध्ययन अनुशीलन अभी शेष है . यदि इनकी ओर साहित्य – अध्येताओं की दृष्टि गई तो निश्चित ही शुक्ल साहित्य व चिंतन के नए आयाम खुलेंगे और आधुनिक हिन्दी साहित्य में बंशीधर शुक्ल के योगदान का वास्तविक मूल्यांकन हो सकेगा .


दिनेश त्रिपाठी शम्स युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण गजलकार हैं। लेख यहाँ से साभार 

संपर्क -

वरिष्ठ प्रवक्ता : जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम - घुघुलपुर , पोस्ट-देवरिया,
ज़िला - बलरामपुर-२७१२०१ ,
मोबाइल -09559304131

ई मेल-yogishams@yahoo.com

टिप्पणियाँ

Umesh ने कहा…
सचमुच एक महान जनकवि थे वंशीधर जी। उनकी काव्य-भावना व देन को नमन!

'अछूत की होरी' कविता की उनकी पंक्तियाँ देखिए:

"गाँव नगर सब होरी खेलैं, रंग अबीर उड़ाय।
हमरी आँतैं जरैं भूख ते, तलफै अँधरी माय॥
बात कोई पूँछइ न आवइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।"

'मँहगाई' कविता की उनकी पंक्तियाँ देखिए:

"नफाखोर मेढुका अस फूलइं हमरा सबु डकराई
थानेदार जवानी देखे पिस्टल देंइ धराई।
जो जेत्ता मेहनती वहे के घर वत्ती कंगलाई
जो जेत्ता बेइमान वत्तिहे तोंदन पर चिकनाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।"
अरुण अवध ने कहा…
शानदार लेख ! प. बंशीधर शुक्ल मेरे ही क्षेत्र के थे यह मेरे लिए गर्व की बात है । बड़े ही परिश्रम से लिखा यह लेख हमारी स्मृति के आगे उन्हें साक्षात खड़ा कर देता ! लेखक और प्रस्तोता को इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद !
basant jaitley ने कहा…
मैं बंशीधर शुक्ल के नाम से परिचित हूँ लेकिन इतनी सूचना उनके बारे में असुविधा से ही मिली. उनके जीवन और लेखन के विविध पक्षों को उकेरता सुन्दर आलेख है. मैं " कदम- कदम बढाए जा " बचपन से गाता रहा हूँ और अपने बेटे को भी सिखाया था लेकिन मैं नहीं जानता था कि इसके लेखक बंशीधर जी थे.तथाकथित ज्ञान के पीछे कितना अज्ञान छुपा रहता है. आज यह जान कर सुख मिला और ज्ञान बढ़ने की खुशी तो है ही.मैं उन को नमन करता हूँ और इस आलेख को पढवाने के लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ.
Unknown ने कहा…
भाई, बहुत ही उम्‍दा लेख है, जनकवि की रचनाओं के स्रोतों और उनकी लेखनी के मूल मंतव्‍यों को उद्घाटित करता हुआ। दिनेश जी को बधाई। वैसे हिंदी साहित्‍य के मास्‍टरों ने किसी का भी ठीक से मूल्‍यांकन नहीं किया है और इनसे कोई उम्‍मीद नहीं करनी चाहिये। अभी भी समय नहीं गुजरा है, उनके जीवन के प्रसंगों को खोज कर उन पर विस्‍तार से लिखा जाना चाहिये।
मैं इसे हादसा मानता हु की लिखा अमर हो जाये और लिखने वाले को भुला दिया जाये....बशीधर शुक्ल जी को जितना जाना ..अग्रज दिनेश भाई के लेखों के मार्फ़त ही जाना .....शुक्रिया इस आलेख को दुबारा यहाँ पढना अच्छा लगा .....वाकई ....असुविधा एक बड़ी सुविधा है ....बड़े भाई दिनेश जी का इस जानकारी और उनके शुक्ल साहित्य पर अनवरत शोध के लिए शुभकामनाएं और शुक्रिया !
Onkar ने कहा…
बहुत सुंदर सामग्री

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ