रोकैया सखावत होसेन के बहाने स्त्रीवाद पर एक नोट
- रति सक्सेना
रोकैया सखावत
होसेन एक
समाजसुधारक के
रूप में
हमारे जेहन
में हैं,
लेकिन उनके
उपन्यासों को
पढ़ने का
मौका मुझे
अभी ही
मिला। इतने
दिनों क्यों
नहीं... मैं सफाई नहीं
देना चाहती
कि मैं
कि बहुत
सालों से
मैंने उपन्यासों
, कहानियों को
हाथ लगाना
बन्द कर
दिया था।
, इस वक्त
मैं खुश
हूँ कि मुझे यह रोकैया
बेगम का
उपन्यास पढ़ने
को मिला।
रोकैया बेगम
के
1905 में छपा
उपन्यास Sultana's Dream, बिना
पढ़े भी
अपनी कहानी
बता देता
है। रोकैया
बेगम की
स्त्रीवादी छवि
बिना पढ़े
ही यह
समझ दे
देती है
कि सुल्ताना
का सपना
स्त्री के
अधिकार के
समबन्ध में
होगा। मजे
की बात
है कि
यह उपन्यास
अंग्रेजी में
लिखा गया
था,
जबकि बेगम
अधिकतर बंगला
में लिखती
थी। यह
उपन्यास इसलिए
महत्वपूर्ण नहीं
कि इसमें
स्त्री के
वर्चस्व को
स्वीकारा गया
है,
बल्कि इसलिए
है कि
यह घोरवादी
कल्पना एक
बेहद सहज
लकीर के
साथ चलती
है।
सुल्ताना अपने
सपने में
एक ऐसे
राज्य में
पहुँच जाती
है जो
बेहद खूबसूरत
है,
जहाँ पर
ना कोई
गरीबी है,
ना ही
गन्दगी। मजे
की बात
कि यहाँ
पर खुले
में पुरुष
दिखाई भी
नहीं देता।
यानी कि
सारे मर्द
मर्दाना में
परदे में
रहते हैं।
कहानी का
मजा उस
कोण में
है,
जब स्त्रियाँ
पुरुषों की
सत्ता को
कब्जे में
ले लेती
हैं। उस
देश की
स्त्रिया आरम्भ
से बेहद
कल्पनाशील हैं,
उन्होंने अपने
लिए ऐसे
विद्यालय खोल
रखे हैं
जहाँ वे
दर्शन , विज्ञान आदि का
अध्ययन करती
हैं। और
पुरुष अपने
को युद्ध
के लिए
माँजते रहते
है,
युद्ध कला
में पारंगत
करने की
कोशिश करते
हैं।
जब एक
अन्य राज्य
उन पर
आक्रमण कर
देता है
तो मर्द
बहुत कोशिश
करके भी
जीत नहीं
पाते। क्यों
आक्रमणकारी भी
बहुत शक्तिवान
थे। अब
शक्ति का
मुकाबला बुद्धि
से होना
था। औरते
जो चुपचाप
वैज्ञानिक खोज
में लगी
हुई थीं,
अपना प्रस्ताव
लाती हैं
कि उन्हे
देश को
बचाने का
एक मौका
दिया जाए।
लेकिन उनकी
बस एक
गुजारिश थी
कि जिस
तरह वे
इतने वर्ष
जनाने में
पर्दा बन्द
रहीं, जीत हासिल होने
की स्थिति
में मर्दों
को मर्दाने
में जाना
पड़ेगा। तब
तक उन्होंने
बादलों को
गुब्बारे भरने
और सूरज
की उर्जा
या ताप
को इक्कट्ठा
करने की
खोज कर
ली थी।
वे इसी
खोज का
उपयोग शत्रु
की सेना
पर करती
हैं,
और आग
और पानी
से उन्हे
त्रस्त करके
अपने देश
को बचा
लेती हैं।
मर्द अपने
वचन का
पालन करते
हैं,
वे मर्दाने
में जाकर
घर-
बार सम्भालने
लगते हैं,
लेकिन औरते
अपनी जीत
पर मदहोश
होने की
बजाय अपने देश
को और
समृद्ध बनाने
में जुट
जाती है।
निसन्देह आज
के जमाने में यह
कथा बचकानी
लगेगी, लेकिन कहानी कहीं
भी पाठक
को छोड़ती
नहीं है,
उसमे एक
सहज पकड़
है,
क्यों कि
यहाँ कल्पना
भी बेहद
संयत है।
संभवतया इसलिए
भी कि
यह
1905 में
छप थी।
मुझे दो
बातों ने
सोचने को
मजबूर किया,
एक तो
यह कि
यहाँ नारी
ने अदम्य
क्षमता हासिल
कर के
ही मर्द
को पटखनी
दी,
यह क्षमता
थी,
शिक्षा और
वैचारिकता के
क्षेत्र में।
संभवतया रोकैया
बेगम ने
कलकत्ता में
नारी शिक्षा
का अभियान
छेड़ा, उसके बीज इस
उपन्यास में
बो दिए
गए थे।
दूसरी बात
यह भी
कि यहाँ
औरते पूरी
तैयारी और
शाइस्ता से
हमला बोलती
हैं। यहाँ
ना तो
औरतों के
साथ जुल्मों
की कहानी
है,
ना ही
सामाजिक कुरीतियों
की,
काफी रोमान्टिकता
से रचा
गया उपन्यास
इस के
जुड़वा उपन्यास
है पद्मराग....जो कि
1924 में छपा।
इस उपन्यास
में लेखिका
औरतों पर
जुल्मों की
अनेक कहानियाँ
बयान करती
हैं,
जो उपन्यास
के नारी
निकेतन में
आश्रिता नारियों
के जीवन
की कथाएँ
है। केन्द्र
बिन्दु सिद्दिका
नामक महिला
है जो
कभी अपने
बारे में
कुछ नहीं
बताती। लतीफ
नामक युवक,
उससे प्यार
करने लगता
है,
तब यह
रहस्य खुलता
है कि
लतीफ उसका
पति था,
जिसने उसे
कभी देखा
तक नहीं
था,
लेकिन लतीफ
के लालची
चाचा ने
निकाह के
लिए यह
शर्त रख
दी कि
सुद्दिका को
उसकी जायदाद
का हिस्सा
मिले़ उसके
सगे भाई
भी उससे
छल करते
हैं। अन्त
में जब
सारी कड़ियाँ
बैठ जाती
हैं,
गलत फहमियाँ
दूर हो
जाती हैं तो
भी सिद्दिका
लतीफ से
निकाह करने
के लिए
मना कर
देती है।
उसका कहना
है कि
यदि उसने
निकाह कर
लिया तो
समाज की
बड़ी बूढ़िया
समाज की
कुरीतियों के
विरुद्ध आवाज
उठाने वाली
लड़कियों को
उसका उदाहरण
देकर आगे
बढ़ने से
रोक देंगी,
कहेंगी, देखो सिद्दिका ने
अखिरकार उसी
को पति
स्वीकारा, जिससे उसका निकाह
तय हुआ
था। और
मर्द मूँछों
पर ताव
देते कहते
फिरेंगे... कितनी भी बगावत
कर लें,
अन्त में
ओरतों को
आना तो
मर्द के
आधीन पड़ता
है।
मुझे पूरे उपन्यास
में कमजोर
सी लगने
वाली सिद्दिका
का कद
बेहद ऊँचा
लगा।
मै इस
उपन्यास को
पढ़ कर
लिखने का इसलिए भी सोचने
लगी कि
स्त्रीवाद आज
सबसे ज्यादा
सवालों के
घेरे में
है। इसका
का स्वरूप
क्या है,
स्थान और
भाषा का
इस वाद
पर क्या
प्रभाव है,
बेहद स्पष्ट
नहीं हो
पा रहा
है। सही
मानों में
इस वाद
की परिभाषा
भी तय
नहीं हो
पाई है।
मलयालम साहित्य
में कमलादास
को स्त्रीवादी
लेखिका के
रूप में
साहित्य कार
प्रस्तुत करते
हैं,
लेकिन उनकी
माँ बालामणियम्मा
की कविता
में शाइस्ता
से रखे
तर्को पर
उनका ध्यान
ही नहीं
जाता, जहाँ वे वाल्मीकि
की कथा
को गिरते
पंखो की
कथा कहती
हैं,
परशुराम को
चुनौति देती
है,
कुब्जा के
प्रेम को
राधा से
ज्यादा महत्व
देती है।
इसी तरह
समकाली कवयित्री
सुगत कुमारी
छायावादी कवियत्री
के रूप
में प्रसिद्ध
हैं,
लेकिन उनका
स्त्रीवादी स्वरूप पर उनका ध्यान
ही नहीं
जाता, जिसमें सड़क पर
वैश्यावृत्ति करने
को मजबूर
किशोरियों को
आश्रम बना
कर पढ़ने
और आत्मनिर्भर
बनने का
मौका दिया
जाता है।
यानि कि
आज ना
केवल लेखन,
अपितु आलोचन
और साहित्य
भी इस
मुद्दे पर
कुछ खास
सोच विचार
नहीं कर
पा रहा
है।
स्त्रीवाद के
नाम पर
काफी लिखा
जा रहा
है,
और उतनी
ही तीव्रता
से विरोध
भी हो
रहा है।
मेरा एक
व्यक्तिगत अननुभव
बड़ा अजीब
सा रहा।
अरुण प्रकाश
जी से
मेरा परिचय
चैन्नई की
एक गोष्ठी
में हुआ
था। मैंने
देखा कि
उनका अध्ययन
और दृष्टिकोण
बेहद विशाल
है। इसलिए
जब उनके
साहित्य अकादमी
में एडीटर
बनने की
खबर मिली
तो अच्छा
लगा। लेकिन
उनके कार्यकाल
के करीब
दो वर्ष
बाद मेरी
मुलाकत उनके
दफ्तर में
हुई तो
मुझे देखकर
अजीब सा
लगा कि
वें लगातार
स्त्रीलेखिकाओं की
छपास की
भड़ास और
उनकी कुलिप्साओं का वर्णन कर
रहे थे।
मेरे लिएयह
बात कुछ
अजीब इसलिए
थी,
क्योकि केरल
में रहने
के कारण
में राजधानी
में पनपने
वाली इन
प्रवृत्तियों से
अनजान थी।
इसलिए जब
उन्होंने मुझसे
कहा कि-
रति जी
अपनी कविताएँ
भेजे, तो मैं असमंजस
में थी।
क्यों कि
एक ओर
वे स्त्री
लेखिकाओं के
छपास की
मनोवृत्ति पर
व्यंग्य कर
रहे हैं
तो दूसरी
ओर वे
कविताएं मांग
रहे है।
खैर मैंने
केरल पहुँच
कर उन्हे
कविताएँ भेजी।
और मेरे
पास स्वीकृति
पत्र भी
पहुँच गया।
लेकिन तभी
मुझे साहित्य
अकादमी से
निकलने वाली
अंग्रेजी पत्रिका
मिली, जिसमें मेरे परिचय
बड़ा अजीब
सा,
मुझे नाटककार
के रुप
में बताया
गया था,
जबकि मैंने
कुछ नाटक
लिखे अवश्य
हैं,
पर नाटककार
कभी नहीं
रही। मैंने
अरुण जी
को फोन
कर के
कहा कि
साहित्य अकादमी
आदम जमाने
के परिचय
को छाप
देती है,
परिचय मे
परिवर्तन की
गुंजाइश रहती
है,
अतः आप
मेरे भेजे
गए परिचय
को ही
आधार बनाए।
अरुण जी
ना जाने
किस मूड
में थे,
तपाक से
बोले-आप लोग अपनी
तस्वीरे तो
पुरानी देती
हैं,
और परिचय
अपटूडेट। उनकी
इस बात
में सीधी
मार थी
कि स्त्री
जो कुछ
रच या
छप रही
है,
वह बस
अपनी शारीरिक
योग्यता के
कारण, मानसिक नहीं। मुझे
बेहद कोफ्त
हुई,
मैंने कहा
कि मैं
उन लोगों
में से
नहीं हूँ,,,
कह कर
मैंने फोन
रख दिया।
फिर मैंने
साहित्य अकादमी की पत्रिका में
छपने की
आशा छोड़
दी और
ना ही
उसकी बाबत
कोई सम्वाद
किया। करीब
एक डेड़
साल बाद
दिल्ली जाना
हुआ तो
मैं हमेशा
की तरह
साहित्य अकादमी
गई,
और सबसे
मिलने के
बाद अरुण
जी से
भी मिली,
मैंने ना
अपनी कविताओं
की बात
छेड़ी ना
ही कुछ
पूछा, इस बार अरुण
जी ने
अपने लेखन
के बारे
में काफी
विस्तार से सम्वाद
किया। मुझे
अच्छा लगा
कि वे
मुझ से
एक लेखक
के रूप
में सम्वाद
कर रहे
हैं,
अपनी वैचारिक
प्रक्रिया में
भागीदार बना
रहे हैं। एक लेखक से
हम इसी
सम्वाद की
आशा करते
हैं। जब
चलने के
लिए उठी
तो उन्होंने
कहा कि
- रति जी,
आपकी कविताएँ
अगले अंक
में आ
रही हैं। मै सिर्फ
मुस्कुराई, लेकिन धन्यवाद नहीं
दिया। मुझे
अच्छा लगा
कि अरुण
जी लेखकीय सोच और मुद्रा वापिस
आ गई थी।
इस घटना
का जिक्र
जिससे भी
हुआ,
उसने स्त्री
लेखकों की
छपास- पिपासा
के बारे
में कोई
ना कोई
व्यंग्य किया।
नव ज्ञानोदय
प्रसंग को
देश का
मुददा बन
गया।
मैं रोकैया सखावत के बहाने सिर्फ इतना जानने की कोशिश कर रही हूँ कि स्त्रीवाद है क्या? कमला सुरैया आदि का देह वाद या बालामणियम्मा का समाज में समानता और सम्मान प्राप्ति के लिए उठाई गई संयत आवाज, या फिर रोकैया बेगम और सुगत कुमारी की तरह दलित को, को समाज में सम्मानित जीवन देने की कोशिश?
क्या नारीवाद जलजले की आकंक्षा रखता है, या फिर सहज सन्तुलन और बुद्धि के द्वारा भी लाया जा सकता है?
क्या पुरुष मानसिकता नारी को बराबरी का दर्जा देने को तैयार है, या फिर इस नाम पर दो बाते होती रहेंगी?
रोकैया बेगम को शायद किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ी होगी, लेकिन मुझे है। इसलिएमैं यह सवाल रख रही हूँ
1905 में यह कहानी मूलतः अंग्रेजी में मद्रास की द इन्डियन लेडीज मैगजीन में प्रकाशित हुई थी. इसे यहाँ पढ़ा जा सकता है.
रति सक्सेना हिन्दी की जानी-मानी कवियत्री हैं और प्रतिष्ठित ई-मैगजीन 'कृत्या' के सम्पादन के साथ इसी नाम से नियमित रूप से अंतर्राष्ट्रीय कविता समारोह का आयोजन भी करती हैं.
टिप्पणियाँ
- हिन्दी में भी महादेवी जी की स्थिति निरंतर यही रही कि उन्हें छायावादी कवयित्री तक सीमित मान लिया गया, इस व ऐसे अन्याय में काफी भूमिका शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य का इतिहास की भी रही। यद्यपि महादेवी का स्त्रीवादी स्वरूप हिन्दी की सीमॉन जैसा है।
- अरुण प्रकाश जी वाला संस्मरण रोचक है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी दृष्टि बदल गई होगी, किन्तु हाँ, वे कुछ समझ जरूर गए होंगे।
- मेरे नजर में मात्र देहवाद स्त्रीविमर्श को कमजोर करता है। समानता व सम्मान तथा मानव के रूप में उसकी प्रतिष्ठा सबसे बड़ी चुनौती है। हिन्दी में अभी लंबे वर्षों तक विमर्श को लेकर केवल बातें होती रहेंगी, समानता के लिए हृदय से तत्पर लोग अत्यंत नाममात्र के हैं।
- हिन्दी में भी महादेवी जी की स्थिति निरंतर यही रही कि उन्हें छायावादी कवयित्री तक सीमित मान लिया गया, इस व ऐसे अन्याय में काफी भूमिका शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य का इतिहास की भी रही। यद्यपि महादेवी का स्त्रीवादी स्वरूप हिन्दी की सीमॉन जैसा है।
- अरुण प्रकाश जी वाला संस्मरण रोचक है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी दृष्टि बदल गई होगी, किन्तु हाँ, वे कुछ समझ जरूर गए होंगे।
- मेरे नजर में मात्र देहवाद स्त्रीविमर्श को कमजोर करता है। समानता व सम्मान तथा मानव के रूप में उसकी प्रतिष्ठा सबसे बड़ी चुनौती है। हिन्दी में अभी लंबे वर्षों तक विमर्श को लेकर केवल बातें होती रहेंगी, समानता के लिए हृदय से तत्पर लोग अत्यंत नाममात्र के हैं।