चलो साँसें उलझाएँ : कुमार अनुपम की डायरी से
कुमार अनुपम की ये कवितायें किसी पुरानी डायरी में कुछ और खोजते मिलीं. कवितायें जिन्हें कवि भी भूल गया था. जाहिर है ये कोई महात्वाकांक्षी कवितायें नहीं जिन्हें लिखते हुए आप लिखे जाने के बाद तक की कल्पनाएँ करते हैं. ये बेकली के किन्हीं पलों में दर्ज कुछ चीखें हैं जिनमें स्मृतियों का वह आत्मीय संसार है जो अब अनुपम की एक खासियत बन चुका है, जिनमें अपने वक़्त के आईने के सामने खड़ा हो किया गया कुछ प्रलाप सा प्रतिवाद है जिसके हश्र के बारे में आप मुतमइन होते हैं. मानचित्र में मनुष्य की तलाश ऐसा बावरा कवि ही कर सकता है. यहाँ कुछ सुलझा लेने की दर्पपूर्ण घोषणा की जगह 'साँसे उलझाने' का स्वप्न है. अभी 'भारत भूषण सम्मान' से सम्मानित अपने इस प्रिय कवि को मेरी ओर से यह पोस्ट एक उपहार...
अनुनाद
एक रात ज्ञात होता है लौटते हुए कि सुरक्षित है अभी एक शरीर की याद और भीतर की थकान में इन्द्रियों के अलावा शरीक़हैं कुछ स्वप्न भी जो पछाड़ खाए हुए घोड़ों की तरह (एक विदेशी तस्वीर की) हवा में अगली टाँगें लहराते हैं मात्र पीड़ा में पिछली टाँगें किसी पथराई उम्मीद पर दर्ज करती हैं खरोंच जो चमकती है ब्लेड की धार की तरह और गुज़र गई किसी नदी की असफल खोज में कसकती है नई एकदम चुप्पी बहती है लहू की जगह नसों में अनुनाद उत्पन्न करती हुई झिंझोड़ती अस्तित्व एक आदिम चुनौती देती हुई हो जाती है अपस्थानिक जड़ और वर्तमान से भविष्य में चटखती है अंततः घुप्प नीले आसमान में कटा हुआ नाखून-सा पड़ा हुआ तीज का चाँद घास में धीरे-धीरे तब्दील होता है.
और फिर आत्महत्या के विरुद्ध
यह जो समय है सूदखोर कलूटा सफ़ेद दाग से चितकबरा जिस्म वाला रात-दिन तकादा करता है
भीड़ ही भीड़ लगाती है ठहाका की गायबाना जिस्म हवा का और पिसता है छोड़ता हूँ उच्छवास...
उच्छवास...
कि कठिनतम पलों में जिसमें की ही आक्सीजन अंततः जिजीविषा का विश्वास...
कहता हूँ कि जीवन जो एक विडम्बना है गो कि सभ्यता में कहना मना है कहता हूँ कि सोचना ही पड़ रहा है कुछ और करने के बारे में क्योंकि कम लग रहा है अब तो मरना भी.
पुकार
मेरे भीतर इन दिनों जो उमग रही है पुकार
आऊँगा
इसी के सहारे आऊँगा
और कहूँगा एक दिन
चलो साँसें उलझाएँ...
परछाईं के पीछे
आसमान सरस था चिड़िया भर
चिड़िया की परछाईं भर आत्मीय थी धरती
लाख-लाख झूले थे रंगों के मन को लुभाने के लाख-लाख साधन थे
लेकिन वो बच्चा था
बच्चा तो बच्चा था
बच्चा परछाईं के पीछे ही चिड़िया था
आसमान काँप गया
धरती के स्वप्नों के तोते ही उड़ गये
हवा समझदार थी
लान के बाहर
बाहर और बहुत बाहर खेद आई चिड़िया की परछाईं को भी
घर भर का होश अब दुरुस्त था
दुनिया अब मस्त और आश्वस्त
किन्तु बच्चा ...?
प्रतीक्षा
पापा जब घर लौटते थे पहाड़ों से भोलापन लाते थे
पापा बताते थे कि पहाड़ों पर चलने वाली गाड़ियाँ
बूढ़ों का भी बहुत ख़याल रखती हैं
इसीलिए इतनी तेज़ चलती हैं
कि बच्चे भी आसानी से चढ़ और उतर लें
पापा जब घर लौटते थे तो बातों ही बातों में बताते थे कि पहाड़ों पर चलने वाली गाड़ियाँ...
लेकिन आज जिसके लिए आ गये थे एक घंटा पहले
वह गुज़र चुकी है सामने से "जनसेवा एक्सप्रेस"
प्लेटफ़ॉर्म पर गुज़र चुकी गाड़ी के बाद की नमकीन उदासी और गर्दिश है
एक ओर किनारे
अपना सामान सहेजते काँप रहे हैं पापा
जैसे समुद्री लहरों से किनराया हुआ कचरा हों
किसी अगली कम भीड़ वाली गाड़ी की प्रतीक्षा करते
चाहते तो हैं किन्तु उचित नहीं समझते बताना कि पहाड़ों पर चलने वाली गाड़ियाँ...
तलाश
बाज़ार से खरीदा विश्व का मानचित्र
मानचित्र में
कहीं नहीं मनुष्य
पड़ोस की नदी
बेधड़क वह मिलने चली आती है घर में और मैं छत पर भागता हूँ परिवार समेत
सारा असबाब बत्तखों की तरह भागता-फिरता है घर-बाहर
उसकी तरह ही घर में दाख़िल होती है राप्ती
हाँ वही अचिरावती...
टिप्पणियाँ
'ये कवितायेँ अचानक खोजते हुए मिल जाने वाली विस्मृत कवितायेँ नहीं लगतीं,हाँ ये हो सकता है कि कवि ने इन्हें लिखे जाते वक़्त लिखे जाने के बाद की कल्पनाएँ न की हों ...|उन तमाम कविताओं से बेहतर जो किसी खास पाठकीय उद्देश्यों या प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखकर ही लिखी जाती हैं |
अच्छी कविताओं के लिए बधाई....