सुवा तुम्हारे मेरे किस्से बहुत सुन चुके संत/मुल्क इलाके की कुछ बातें आज करो प्रिय कंत।


जनकवि गिर्दा की किताब पर महेश चन्द्र पुनेठा का समीक्षात्मक आलेख 

सोये-सोये साकार नहीं होता कोई सपन ,बैठे-बैठे नहीं होता परिवर्तन
   

एक ग्लानि मन में हमेशा के लिए रह गयी है कि गिर्दा के जीते-जी मैं उनकी कविताओं पर नहीं लिख पाया। एक बार इस संदर्भ में नैनीताल प्रवास के दौरान गिर्दा से बात भी हुई थी। मैंने उनसे आग्रह किया कि क्या मुझे उनकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं मिल पाएंगी? उन्होंने मंद-मंद मुस्कान के साथ घर पर आने का आमंत्रण दिया। पर व्यस्तता के चलते संभव नहीं हो पाया। उसके बाद भी एक-दो बार नैनीताल जाना हुआ लेकिन चला-चली में ही। उनकी कविताओं पर लिखने की मेरी इच्छा अधूरी रह गयी। उनकी कविताएं कहीं संकलित होती तो यह काम शायद पहले ही हो जाता। इधर ’पहाड़’ संस्था ने गिर्दा की समग्र रचनाओं को दो जिल्दों में प्रकाशित कर यह स्तुत्यनीय कार्य किया है। ’जैंता एक दिन तो आलो’ गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा’ की इधर-उधर बिखरी हिंदी-कुमाउँनी कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह में उनकी अब तक की उपलब्ध प्रकाशित-अप्रकाशित कविताओं को वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की सशक्त  भूमिका के साथ संकलित किया गया है।
 जनकवि गिर्दा की कविताओं को पढ़ते हुए कभी कबीर ,कभी नागार्जुन ,कभी गोरख ,कभी अदम गोंडवी तो कभी फैज याद हो आते हैं। इन सभी कवियों की तरह उनकी कविताओं में भी साधारण लोगों की बातें हैं। उनकी समस्याएं ,विसंगति-विडंबनाए हैं। उन पर करारी चोट है। उन्हें देखने ,समझने ,सोचने और बदलने की बातें हैं।’विश्वास के साथ तर्क है।’ अपने समय के सच का बयान है। आमजन के संघर्ष और सपने हैं।झिलमिलाती हुई उम्मीदें हैं।आज के माहौल को बदलने की अपील है। माहौल को बदलने का जज्बा  पैदा करने की ताकत है। प्रतिरोध का मूल्य अंतःसूत्र की तरह गुँथा हुआ है।’ हम तो लड़ते आए हैं भाई!लड़ते रहेगे ,का दृढ़ संकल्प निहित है जो संघर्ष की नई प्रेरणा देता है। उनकी कविता रूपी झोले में-हड़ि ,शिबौ-शिब ,बहुत सुंदर/अच्छा ऐसा ,ठीक हुआ/खबर-बात ,माटी ’ और वह सब कुछ जिसे वह अपने आस-पास देखते-सुनते रहे। समसामयिक घटनाओं से लेकर दर्शन की बातों तक। उनकी कविता उनके कंधे में हर समय पड़े रहने वाले उस झोले की तरह है जिसमें राजुला-मालूशाही की लोकगाथा ,जागर , मुद्राराक्षस ,अंधरे नगरी ,नगाड़े खामोश हैं से लेकर गौर्दा ,कार्देनाल ,फैज ,ब्रेख्त ,हिकमत जैसा सबकुछ पड़ा रहता था। कभी किसी लोकगीत-जनगीत के सुर-ताल संबंधी कुछ इशारे और हुड़का तो कभी पर्चा पड़ा रहता था। इन सभी का समन्वित रूप तो है गिर्दा की कविता। इन कविताओं में जागर ,होली ,छपेली, झोड़ा-चाँचरी जैसे लोकगीतों  की धुन और लय तथा बे्रख्त-नेरुदा-हिकमत जैसी क्रांतिकारी-वैचारिकता के दर्शन होते हैं। उनकी कविता कहने की तड़फ को बढ़ाती है। उसमें ऐसा भी बहुत कुछ है जो बिना कहे भी जाहिर हो जाता है। गिर्दा कबीर की तरह आँखन की देखी पर विश्वास करते हैं और उसे ही अपनी कविताओं में स्वर देत हैं।
  
गिर्दा ने अपनी कविता के लिए जो कार्यभार चुना वह इस तरह है-
सुवा तुम्हारे मेरे किस्से बहुत सुन चुके संत/मुल्क इलाके की कुछ बातें आज करो प्रिय कंत।

इसलिए देश-दुनिया में व्याप्त गरीबी,भूख,बेरोजगारी,अन्याय-अत्याचार,भ्रष्टाचार, जल-जंगल-जमीन की लूट-बदहाली ,अवसरवादी राजनीति आदि कुछ भी उनकी कविताओं से बाहर नहीं है। वे वोट के खिलाड़ियों की सभी करामातों को जानते हैं। उनकी नब्ज पकड़ते हैं और बताते हैं- ’हाँकते तो दिल्ली की हैं ,संकट के समय रसोई के कोने में दुबकते हैं ,दुम दबाकर भागने को अली-गली ढूँढते हैं।’ वो मूरतें जिनका चेहरा कभी किसी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों में ,जन संघर्षों में दूर-दूर तक नजर नहीं आता बैनरों में शेाभायमान होती हैं।सत्ता का मद उन पर ऐसा चढ़ता है कि वे फटे हाल जनता के सारे दुःख-दर्द भूल जाते हैं। सत्ता पाने के बाद उनके गालों की रंगत प्रतिदिन निखरती जाती है। सफेद लिबासों के भीतर छुपी उनकी कालिमा कवि से नहीं छुपती है। वह सत्ताधारियों के हर छल-छद्म को पकड़ लेता है। उसे पता है इस वक्त देश में ’जनता के खिलाफ जनता ’ पेश की जा रही है। जाति,लिंग ,धर्म ,क्ष्ेात्र ,भाषा के नाम पर उसे आपस में लड़ाया जा रहा है-लगातार ऐसा और इस तरह /झूठ बोल रहे हैं वो/कि समूचा देश/अवाक् मुंह बाए/गूंगा होता जा रहा है। इस तरह शासक वर्ग का चेहरा दिखाकर जन विरोधी राजनीति का पर्दाफाश करती है। उन्हें ’सियासी उलटबाँसी’ की गहरी पहचान है। इस विडंबना से वाकिफ हैं-जुर्म करे है न्याय-निवारण न्याय चढ़े है फाँसी.....जो कमाए सो रहे फकीरा/बैठे ठाले भरें जखीरा। वे आदमी के बदहाली-गरीबी के लिए ’सुविधा और व्यवस्था के नाम पर’ चुपचाप लाए गए शातिर मुनाफे को जिम्मेदार मानते हैं। गिर्दा उस आदमी को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं जो और कुछ नहीं ,’बस आदमी-आदमी के बीच मुनाफा धर रहे हैं।

जनकवि गिर्दा को दो फाटों में बँटी दुनिया साफ-साफ दिखाई देती है।उनकी दृष्टि में कोई जाला नहीं है। वर्चस्वशाली वर्ग के खेल और उसके द्वारा बिछायी बिसात को समझने में वे कोई गलती नहीं करते हैं। वे खुले शब्दों में कहते हैं-एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ तुम हो।...सारा पानी चूस रहे हो/नदी-समंदर लूट रहे हो। एक तरफ हैं सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम!/एक तरफ है प्यासी दुनियाँ-एक तरफ हो तुम। अभिजात्य वर्ग अपनी खूबसूरत दुनिया को बनाए-बचाए रखने के लिए किस-किस तरह की चालाकियाँ करता गिर्दा कुछ ऐसे रेखांकित करते हैं -कि काँच के जारों में बंद/रंगीन मछलियों से/कुछ खास जगहों को सजाए रखने के लिए/तमाम तालाबों की मछलियाँ सड़ाई जाती हैं।  शहरों को बसाए रखने के लिए गाँवों को उजाड़ा जाता है । शहरों के बसने से लेकर फलने तक के सच को वे जानते हैं-चंद लोगों ने/अपनी बेहतरी के लिए/धीरे-धीरे/बदलना शुरू किया/खेतों को किलों में/इमारतों में/बाजरों में/मिलों में/धरती की हरियाली में/आदम के बेटों की खुशहाली पर/यह शरूआत थी/अतिक्रमणोंकी/जिसके बाद/बेकार हो गए मिट्टी से/सोना उपजाने वाले हाथ/बेदखल कर दी गयी धरती/धरती के बेटों से /कमोबेश यही दास्तां है/हर शहर के बसने की । यह केवल गाँव से शहर में बदलने की कहानी नहीं है बल्कि शोषणकारी व्यवस्था के स्थापित और फलने-फूलने की प्रक्रिया की भी दास्तान है। यहाँ कवि के गहरे इतिहास बोध के दर्शन हमें होते हैं।   वे आदमी को इस पृथ्वी में सबसे खूबसूरत कविता मानते हैं। दुनिया तो सुंदर है पर ’उससे भी ज्यादा सुंदर है/उसे जानने वाला आदमी/पहिचानने वाला आदमी। पर उन्हें अफसोस है यह जो दुनिया को जानने-पहिचानने वाला आदमी है इस दुनिया का सार तत्व उसके पास न होकर जो दुनिया को जानते ही नहीं हैं उनके पास है। उन्होंने -हर पर्वत नीलाम चढ़ाया/हर मैदान रेहन रख डाला/पेड़-पेड़ की ,तने-तने की/खाल छीलकर ,रक्त निकाला। इधर उनकी कविता सोचने को प्रेरित करती है -क्यों इस खूबसूरत दुनियाँ का सारा भोग /वह कर जाते हैं जो इस दुनियाँ को जानते ही नहीं हैं।
   
गिर्दा की कविताओं में अपने समय और समाज यथार्थ के चित्रों के साथ-साथ मुक्ति के स्वर भी सुनाई देते हैं। उनकी कविता अपने समय पर हस्तक्षेप को प्रेरित ही नहीं करती बल्कि सावधान भी करती है और ठीक करने की चुनौती भी देती है। नजरों को समझने का नजरिया देती है। वे सियासी चालों के प्रति जन को सावधान करते हुए कहते हैं-सावधान !वे बड़े चतुर हैं वो/जो हमें घोड़िया रम पिलाकर/नाल की मक्खी पर बिठाकर हमारी आँख /हमी से निशाना बंधवाते हैं/हमारे ही खिलाफ।........इतने कमीने हैं वो/ऐसे कसाई हैं/कि उनकी नजर में/आदमी आदमी से पहले/देशी है ,पहाड़ी है/सिक्ख है ,पंजाबी है/हिंदू है ,इसाई है। वे कविता में केवल प्रश्न ही नहीं खड़े करते बल्कि उनका उत्तर भी प्रस्तुत करते हैं। ये विशेषता उन्हें क्रांतिकारी कवियों की पाँत में खड़ा करती है। गिर्दा एक एक्टविस्ट कवि हैं। एक एक्टविस्ट कवि ही इस तरह ललकार सकता है-हम सब मिलकर(अब) खुद पर जन पर जोरो-जुल्म न चलने देंगे/इस जालिम हुक्कामों के कातिल हुक्म न चलने देंगें .....इन सबके चंगुल में फँसकर जन को न मरने देंगे। ...मुक्ति चाहते हो तो आओ जन संघर्ष में कूद पड़ो/याद रखो बंधन सदियों के अपने आप नहीं टूटेंगे।. वे शासक वर्ग को चेताने वाले अंदाज में कहते हैं-

जिस दिन डोलेगी ये धरती /सर से निकलेगी सब मस्ती।

 गिर्दा की कविताओं में पूरी चेतना के भोगा हुआ जीवन और दुनियाभर की गहराई आती है। अदम गोंडवी की तरह-’मानवता का दर्द लिखेंगे/माटी की बू-बास लिखेंगे’ उनका भी काव्य-संकल्प रहा। फकीराना अंदाज ,घुमक्कड़पन, फक्कड़पन ,बेवाकी उनके कवि-व्यक्तित्व की विशेषता रही। संकलन की पहली ही कविता ’ मैं पवन हूँ’ कवि के पूरे व्यक्तित्व को खोल कर रख देती है। वे जब कहते हैं- मैं मुक्त हूँ/मैं उन्मुक्त हूँ/बंधन रहित हूँ/ मैं पवन हूँ’ तब उनके आत्मविश्वास का पता चलता है। एक जनकवि में ही इतना आत्मविश्वास हो सकता है जो उसे संघर्षशील जनता से मिलता है। निश्चित रूप से गिर्दा पवन की तरह ही थे जिनको न जीवन बाँध पाया और न मृत्यु। न यश बाँध पाया न धन। न सत्ता बाँध पायी न दुनियादारी। सचमुच वे शैल-शिखरों में वक्ष ताने घूमते रहे। जहाँ भी जनता अपने हक-हकूकों की लड़ाई के लिए सड़कों मंे होती वहाँ गिर्दा खड़े मिलते। उनके हुड़के की थाप और गीतों के बोल लोगों में नए जोश का संचार कर देते थे। आज भले वे नहीं रहे  पर उनके गीत जनांदोलनों को आज भी ताकत देते हैं। उनके अनेक गीत जनआंदोलनों की उपज हैं। उनकी कविताओं का सुघर सुरूप ,शोखियाँ ,खरामे नाज और बाँकपन जो कुछ भी है वह उन्होंने जन से पाया है। उसी से लेकर उसी को दिया है। उनकी तो केवल धार है। उनके शब्दों में-कोई भी कवि/शाब्दी/कविता रचकर कृपा नहीं करता/समाज पर/समाज की ही कृपा रही है/हमेशा-हमेशा कवि पर। उनकी जनता से लेने और उसे देने की प्रक्रिया साफ दिखाई देती है-जन से लिया/मन से मंथन किया/फिर जन को ही लौटा दिया। उनका जनता की ताकत पर इतना अटूट विश्वास रहा कि वे जनविरोधी राजनीति के अंत को निश्चित मानते हैं-आखिर कब तक सुरक्षित रख सकेंगे वो?/अपनी जन विरोधी राजनीति/आखिर कब तक।....आखिर कब तक/छल सकता है/हम सबको /एक कोई।........उफ! तुम्हारी खुदगर्जी /चलेगी कब तक ये मनमर्जी। ......बस /तब तक/जब तक हम सब/एक नहीं हो जाते। उनका दृढ़ विश्वास है कि जनता ही वास्तविक मुक्ति का इतिहास लिखेगी। शोषक के नाखूनों और दाँतों को उखाड़ फेंकेगी। वे मानते है कि जो गलत है उसका खुलकर विरोध करना चाहिए। ’हिजड़ी नाराजगी’ से उन्हंे नफरत थी। वे जनता से अपनी ताकत को पहचानने की अपील करते हुए कहते हैं-दोस्तो! कि तुम/लात उठाओ तो सही/तुम्हारी लात जहाँ पड़ेगी/वहाँ धरती काँपेगी/और जहाँ उठेगा हाथ/वहाँ आसमान हिलेगा। एक जनकवि ही जनता पर इतना यकीन कर सकता है। इसके लिए गिर्दा जनता से सबसे पहले अपने भीतर मे भय से मुक्ति की अपील करते हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता रही-सोये-सोये/साकार नहीं होता कोई सपन......बैठे-बैठे नहीं होता/परिवर्तन। वे सच्चे और ईमानदार लोगों का आह्वाहन करते हैं-बस देर-अबेर जो भी है /ईमानदारों को इकट्ठा हो जाना चाहिए।...अंतिम सफलता के लिए/वास्तविक स्वतंत्रता के लिए/अब तो/तुम्हें-हमें संगठित हो ही जाना चाहिए। क्योंकि- अकेली लकड़ी /या तो बुझ जाती है/या राख हो जाती है/सुलग-सुलग कर/आँच नहीं बन पाती। .....केवल कुछ लोगांे की इच्छा से/ही क्रांति नहीं होती है/केवल कुछ निष्काम त्यागियों से ही/शांति नहीं होती है। ...टुकड़े-टुकड़ों में कट-बँटकर क्रांति संभव नहीं है।वे बदलाव की दिशा में संघर्षरत शक्तियों की आपसी फूट से दुःखी रहते थे। किसी एक खोह में सिमटकर रहना उन्हें उचित प्रतीत नहीं होता था।

 आज अखबार झूठी खबरें फैलाकर सत्ता की सेवा करने में पीछे नहीं हैं। कवि उन्हें सीधे संबोधित कर कहता है-’आपकी’ अफवाही खबरें सचमुच/मेेरे देश के आदमियों की हत्याएं करती रहीं/और आपके शब्द/मेरे देश के उन ईमानदार आदमियों को/बेईमान-हिंसक/असभ्य-अराजक/असामाजिक तत्व घोषित करते रहे।  गिर्दा सतर्क करते हैं यदि मीडिया का रवैया ऐसा ही रहा तो उस पर से जनता का विश्वास उठ जाएगा तब- ’आपकी’ और आदमी की/मुलाकात होगी/सीधे-सीधे मुठभेड़ के रूप मंे। गिर्दा क्रांतिकारी चेतना के कवि हैं वे इस बात को समझते हैं कि जैसे-जैसे छल-छद्म और दमन बढ़ेगा वैसे-वैसे संघर्ष का बढ़ना भी तय है। ऐसे में उनकी दृष्टि में कविता की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। जब अभिव्यक्त के माध्यमों पर जनता के दुश्मन का कब्जा हो जाय-तो साथी! ऐन इसी वक्त/आओ/सोचें ,समझें , तय करें/और फैसला लें/कि हमें भी अब कविता लिखनी होगी। और यह कविता कैसी होगी इस पर भी वे साफ हैं-कविता-जो हमें सड़क पर ला सके/कविता-जिसे हमें सड़क पर गा सकें। निश्चित रूप  से गिर्दा की कविता में यह ताकत है कि वह हमें उद्वेलित कर सड़कों में उतार देती है और हमारे कंठों में बस जाती है। उत्तराखंड के हर छोटे-बड़े आंदोलनों में गूँज उठने वाले उनके गीतों के बोल इस बात के प्रमाण हैं। उनके लिए कविता ’कोरे कागज में करबराए शब्द भर’ नहीं है ’और न ही घबराए हुए शब्द’ मात्र। बल्कि कविता के आँखर सामूहिक चेतना का प्रतिफल है किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं। जो ’जिंदगी की आँखों में लिखी जाती है।’ इसलिए वे कहते हैं- दम्भ न कर  कविताई का तू/कविता तो जन जन्माता है....गर्व न कर कवि होने का । खुद भी उनको इसका कोई दम्भ या घमंड नहीं रहा जब भी मिलते थे एक बड़े भाई या दोस्त की तरह  मिलते थे। कवि और कविता जन के पीछे है। जन है तब कवि है। उनके भीतर कवि होने का विशिष्टता बोध बिल्कुल भी नहीं दिखता। एक जनवादी कवि में सामूहिकता बोध कितना गहरा और सघन होता है गिर्दा की कविताओं में देखा जा सकता है। ’ मैं’ सर्वनाम इन कविताओं में नहीं के बराबर आया है। ’हम’ का ही अधिक उपयोग हुआ है। इससे पता चलता है कि गिर्दा के लिए व्यक्ति की अपेक्षा समाज कितना अहम् है। वे कविता को भी सामूहिक कर्म के रूप में ही देखते हैं। वे हमेशा कविता को सामूहिक स्वरों में बाँधने के पक्षधर रहे। साथ ही कविता को परिवर्तन के औजार के रूप में देखते रहे।जब वे यह कहते हैं कि-’ओ झोले वाले’ /तुम इस दुनिया को/बदलना चाहते हो/तो तुम्हें इस झोले में/ सिर्फ बारूद ही नहीं/कविता भी रखनी चाहिए/ओ झोले वाले तो उनकी कविता में गहरी आस्था परिलक्षित होती है। उसकी ताकत पर कवि के  विश्वास का पता चलता है। उनके लिए -कविता लिपि की नहीं/न ही भाषा की/और न बोली की होती है/कविता तो जीवन का स्पंदन है/जन-जन की भाषा है/जन-जीवन की गाथा है दर्शन है। उसकी इस ताकत को समझते हुए ही वे कहते हैं-बड़ा गजब हो जाएगा महाराज/जो यह उनकी हो जाएगी/हम कविता करते रहेंगे/पर कविता खो जाएगी। 

 देश-दुनिया और सियासी चालों  से बेखबर लोगों को गिर्दा ’गनेलों’ की संज्ञा देते हैं अर्थात घोंघे की जो आपस में भिड़ाकर सीड.-कान लुकाए खुद को सुरक्षित समझ लेते हैं। वे उन्हें सचेत करते हैं-तुम्हारे ये घर-बार /बहसों के ये गुबार/बहुत दिनों तक नहीं चलने वाले हैं। उनका परिवर्तन पर बहुत विश्वास रहा। कल कभी नहीं आता कहने वालों को वे जबाब देते हैं-कल आता रहा है/आता रहेगा। ......वह दिन आएगा/जरूर आएगा/कि जब धरती के बेटे उठंेगे/एक साथ उठेंगे/अपने हाथ ऊँचे करके/तमाम व्यक्तिगत मिलों/सड़कों/किलांे/और अट्टालिकाओं को/कर देंगे जन संपत्ति में तब्दील/और बहुत से लोगों की/बेहतरी के लिए/धरती उगलेगी सोना ही सोना। ......होगा साथी होगा/कल अपना हमारा/कल होगा/धरती के नभ में/चमकता सितारा कल होगा। इस तरह गिर्दा आशा और उम्मीद के कवि हैं। उनकी कविताओं में हमें निराशा नहीं दिखाई देती है। ’अब कुछ नहीं हो सकता है’ का हाहाकार नहीं है उनकी कविताओं में। कठिन से कठिन समय में उम्मीद की किरण झिलमिलाती रहती है-इक निराशा ,हजारों हैं आशें यहाँ।.... सच में ,धरती/तुम्हारे हाथों/सँवरती आई /सँवर रही है। यह एक बड़े कवि की खासियत होती है। वह अपने भीतर और बाहर की उदासी-निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता है। गिर्दा ढाँढस बंधाते हैं-ततुक नी लगा उदेख/घुनन् मुनइ न टेक/जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में-जब चोर नहीं फलेंगे/नहीं चलेगा जबरन किसी का जोर.....जब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहेगा/तेरा-मेरा नहीं होगा। परिवर्तन को लेकर को उन्हें कोई गलतफहमी नहीं थी इस बात का अहसास था -तुम्हारी आँखें/और पलकें/न जाने कितनी/व्यथा-कथाएं/सुना रही हैं.......ये सच है लेकिन/पलक झपके/नहीं बदलती है.......कितनी पीढ़ियाँ लगती हैं उसे बदलने में/तब जाकर बदलती है तारीख। वे समय के गर्भ में पल रहे संतति के हाथों में अग्नि और आँखों में उजाला देख लेते हैं। .उनका विश्वास देखिए- ये उदासी ऊपरी है साथियो इस देश में। वे मानते हैं कि फिलवक्त जैसी उदासी-निराशा और खामोशी दिखाई दे रही है देश में सिर्फ वैसा ही नहीं है। ऐसी भी शक्तियाँ हैं जो इसके खिलाफ संघर्षरत हैं और जो ’आजादी सैंतालीसी ’ की असलियत को उघाड़ रही हैं।.उनको पूरा विश्वास है किै.....मुक्त होकर ही रहेगा देश अपना क्योंकि अब/हर गुलामी देख ली है साथियो! और यह मुक्ति उनके अनुसार सर्वहारा की हूकूमत स्थापित होने पर ही संभव है। क्योंकि........ये दुनियाँ टिकी हुई है तुम-हम जैसों के ही हाथों पै/इसलिए बदल भी सकते हैं हम ही इसको समझा कीजै। यहाँ पर ’हम ही’ का प्रयोग गहरे अर्थों को छुपाए हुए है अर्थात दुनिया बदलेगी तो केवल मानवीय प्रयासों से ही किसी ईश्वरीय शक्ति की कृपा से नहीं। वे इस दुनिया को ही अंतिम सत्य मानते हैं- रागी-वैरागी जो भी बने/पर बनेगा इसी दुनियां में/ बात परलोक की ही करे/पर करेगा इसी दुनिया में।
    
 पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन में गिर्दा की भूमिका उल्लेखनीय रही। उन्होंने अपनी कविता और गीतों के माध्यम से इस आंदोलन को एक वैचारिक दिशा प्रदान की। उनकी कविताओं में जहाँ पहाड़ी राज्य को लेकर स्थानीय जनता की आशा-आकांक्षा और सपने अभिव्यक्ति पाते हैं वहीं उनके स्वप्न भंग होने की विडंबना भी दिखाई देती है। कैसा होगा कल का उत्तराखंड ,कैसे होंगे हमारे नेता ,कैसी होगी विकास की नीति और कैसी होगी व्यवस्था , इन सभी मुद्दों पर बात-बहस आमंत्रित करती है उनकी कविता। वे अपनी कविता में पृथक राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के हाल बताते हुए कहते हैं- इसलिए तो नहीं लड़ी थी ना यह लड़ाई हमने कि अफसरशाहों-नौकरशाहों की पूँछ पकड़ कर एक-एक कदम चलेंगे हमारे भाग्यविधाता। जो भी पद जैसे भी हाथ लग जाए उसी पर लटक जाएंगे वे। ...उस वक्त बड़ी शालीन खामोशी के साथ जो दिल्ली में विराजमान थे और तिरछी निगाहों से छुप-छुप कर देख रहे थे उत्तराखंड को  वही लोग चलाएंगे। जबकि कवि ने अपनी जनता के साथ जिस उत्तराखंड का स्वप्न देखा था वह स्वप्नों कुछ इस तरह का था-जहाँ बहिन फाँसी नहीं खाएगी ,भाई डूब नहीं मरेगा। हमारा बचपन झूठे बर्तन मलने के लिए शहरों में नहीं भटकेगा।.... कोर्ट-कचहरियों ,ब्लाॅक कार्यालयों में लूट-खसोट नहीं होगी। जहाँ इंसान झूठ के डर से झुर-झुर कर क्षीण नहीं होंगे और झूठ-मक्कार निडर होकर सरेआम दहाडे़ंगे नहीं। जहाँ लीसा ,लकड़ी ,बजरी चोर ,बड़े आदमी नहीं समझे जाएंगे, सामाजिक मान्यता नहीं पाएंगे। पानी के नल में पानी ,बिजली के बल्ब में रोशनी ,दुःख बीमारी में दवाई और अस्पताल सब को समान रूप से उपलब्ध होंगे । जाति-पाति ,छोटा-बड़ा ये सारे प्रसंग अप्रासंगिक हो जाएंगे। लोगों के रहने के लिए घर होंगे ,भैंसों के नहाने के लिए ’खाल-पोखर’ होंगे। गाय-बछियों के लिए गोचर होंगे और पशु-पक्षियों के लिए जंगल की हरी-भरी डालें होंगी। प्रकारांतर से उनका यह सपना मात्र किसी एक राज्य तक नहीं है बल्कि संपूर्ण समाज का सपना है। वे इसी रूप में पूरी दुनिया को देखना चाहते थे जहाँ कोई भूखा-दूखा न हो , दुःख-बीमारी से पीड़ित न हो ,जाति-धर्म-लिंग का कोई भेदभाव न हो। मानवीय गरिमा से जीने का हक हर इंसान को हो।उनका पूरा रचना कर्म इसी की अभिव्यक्ति है।
  
उनकी कविता माटी और मानुष के दर्द से पैदा हुई कविता है। अपने गाँव ज्योली से दूर रहते हुए उसके लिए कवि का दिल कितना तड़पता है इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-तुम बहुत याद आती हो ज्योली मुझे/जिंदगी की डगर में हरेक शाम पर/मौसमी सीढ़ियों के हर पायदान पर/तुम बहुत ही सताती हो ज्योली मुझे/तुम बहुत याद आती हो ज्योली मुझे। अपने गाँव-अंचल को वे कभी नहीं भूलते हैं। वहाँ की प्रकृति वहाँ के जन उनकी संस्कृति-खान-पान-वेशभूषा उनको बार-बार याद आती है। वे उसे सात जन्मों तक भी न भूल पाने की बात कहते हैं। ये दूसरी बात है कि पापी पेट के खातिर उन्हें अपना घर-बार और अंचल छोड़ना पड़ा। ये बिडंबना हर पिछड़े अंचल के साथ जुड़ी हुई है। गाँव से दूर होने की यह विवशता और अपने परिजनों से दूर होने की तड़फ उनकी कविता में प्रकट होती है-मैं दो रोटी के जुगाड़ में भटक रहा हूँ/सुबह-शाम की सूली पर नित लटक रहा हूँ/उस पर फिकर तुम्हारी जाने कब क्या होगा/बहुत दूर है दाल भात सब्जी का दोना। अपनी जन्मभूमि के प्रति उनका प्रेम-समर्पण और उससे जुड़े होने का गौरव इन पंक्तियों में परिलक्षति होता है-माँ मेरा यह जन्म धन्य है/जो तेरी इस महान कोख में हुआ/आज तेरे अस्तित्व के इस संघर्ष में/यदि प्राण न्यौछावर कर सकूँ मैं तो समझूँगा/कुछ सार्थक कर पाया ,ओ मेरे हिमाल।
   
गिर्दा की कविताओं में प्रकृति का सौंदर्य भरपूर है। प्रकृति स्वयं में एक कविता है। उन्होंने प्रकृति से ही कविताओं की स्वाभाविक बुनावट सीखी। उनके ताने-बाने की बुनावट को समझा। वे स्वयं प्रकृति के बीच रहे और उसे भरपूर जिया फिर कविताओं में व्यक्त किया। उन्हें धूप किरणों के धागों वाली चादर लगती है जो मन को बहुत भाती है। जाड़ों की धूप का एक चित्र उनकी कविता में आता है- धूप सेकने बैठीं दादी/गोदी में पोती मुस्काती/खटिया में पसरे दादा जी/स्वेटर बुनती हैं  माताजी/रंग-बिरंगी धारी वाली/जो जाड़ों में गर्मी लाती/धूप की चादर मन को भाती। एक बिंब देखिए जिसको पढ़ते हुए शमशेर की ’उषा’ कविता याद हो आती है-राख से माँज कर/चम्म से चमकाई हुई/उल्टी लटकाई गई/कढ़ाई की तरह/ नीला आसमान/ और उस पार/पापड़ के पत्ते में लुढ़कती-ढुलकती /ओस की तरह/झिलमिलाते तारे /मुझे अच्छे लगते हैं। उनकी कुमाउँनी कविताओं में प्रकृति का चित्रण अधिक मिलता है। दूर शिखर कोरों से /मंद-मंद ,ठुमक-ठुमक ’उतरती-सिहरती सुघरमुखी रतनारी सांझ , सर-सर चली हवा फागुनी , लाल हुए श्यामल घन, सुनहरा हिमाल ,नारंगी शिखर ,चाँद-तारों का चंुबन लेते पर्वत , खेतों में बिखरी चाँदनी , हँसते गाड़-गधेरे ,लहर-लहर लहराती पकी फसल ,वन-वन फैले हिसालू ,किल्मोड़ी ,काफल , बाँज-बुरूँश-काफल के पेड़ों की छाया , आड़ू-खुबानी के खिले फूल , हरे खेतों में पीली सरसों , सावंनी सांझ का खुला आकाश ,ओस में भीगी ,ओस में उतरी धुली धरती-आकाश , खुलती दिशाओं से जन्म लेता प्रभात ,बुराँशी बयार ,उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। इन कविताओं में केवल प्रकृति का सौंदर्य ही नहीं बल्कि जीवन का स्पंदन भी है। उनकी प्रकृति निर्जन प्रकृति नहीं है।
  
गिर्दा बच्चों और उनकी गतिविधियों से बहुत लगाव रखते थे। बच्चों  पर उनकी बारीक नजर रहती थी। उनके खेलों को गौर से देखते थे। उनकी बहुत सारी कविताओं में हम बच्चों का जिक्र पाते हैं। ’बच्चा ,मछली ,बाढ़’ जिसमें वे बच्चों के खेल ’बोल री मछली कितना पानी’ के माध्यम से बच्चों से संवाद स्थापित करते हैं। और बताते हैं खास लोगों को बनाए रखने के लिए शेष सारे बच्चों को क्या-क्या और कैसे पढ़ाया जाता है। कविता के अंत में यह कहते हुए कि-ये बात सच है इस देश में मेरे बच्चे!/कि बाढ़ कभी भी स्वाभाविक नहीं होती। एक बड़े सच की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। नई पीढ़ी को आभासी यथार्थ नहीं सारतत्व तक पहुँचाने की कोशिश करते हैं। बच्चों के प्रति उनका स्नेह इन पंक्तियों में समझा जा सकता है-मुझे सबसे अच्छा दृश्य/वही लगता है/जब बच्चे बने होते हैं चित्रकार/और रच रहे होते हैं भविष्य। .....चंदा मामा ,दूध-कटोरा हर बचपन सुनता है/मतलब कोई नहीं बताता मुन्ना क्यों कर रूठ गया। बच्चे पर बस्ते का बोझ उन्हें कभी नहीं भाया। वे इसके सख्त आलोचक रहे। ’यह मत करना’  ,’वह मत करना’  जैसे प्रतिबंधों के खिलाफ रहे। बच्चे की पीड़ा को वे समझते हैं-इत्ती सी जान/चिड़िया सरीखी/ रखना है ध्यान/स्केल ,पेन्सिल ,रबर ,बस्ते का/निर्जीव-सा एकरस स्कूली रस्ते का/बिलकुल ना भाए/उबकाई आए/देखकर जिसे/ॅिफर भी पहननी है वही ड्रैस /जूते की तरह/चेहरे ने भी दीखना है फ्रैश। वे एक ऐसे स्कूल का आदर्श प्रस्तुत करते हैं- जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े......जहाँ न पटरी माथा फोड़े.....जहाँ न अक्षर कान उखाड़े......जहाँ न भाषा जख्म उघाड़े.....जहाँ न हो झूठ का दिखावा......जहाँ न सूट-बूट का हव्वा.....जहाँ न कोई दर्द दुखाए। उनकी बालमन और शिक्षा की इस समझ के बड़े-बड़े शिक्षाविद कायल हो जाते हैं। उनकी इसी गहरी समझ को देखते हुए उत्तराखंड स्कूली शिक्षा की पाठ्य पुस्तक लेखन समूह ने समय-समय पर उनकी राय ली।  
   
गिर्दा ने गीत-गजल और मुक्त छंद में कविता रचकर काव्य-रूप पर अपने अधिकार को साबित किया लेकिन उनके लिए शिल्प कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। लोक भाषा की लय को पकड़ लोक मुहावरे में अपनी बात कहते रहे। कुछ लोगों को उनके शिल्प में कमजोरी लगती है। कलात्मकता कम दिखाई देती है कहीं-कहीं यह बात सही भी हो सकती है पर उनकी कविताओं का कथ्य और उसका आवेग इतना तीव्र है कि शिल्प की ओर ध्यान ही नहीं जाता है। उनकी कविता का सौंदर्य शिल्प की अपेक्षा उनके कथ्य में है। उन शब्दों में है जो क्रियाशील आदमी के मुख से निकलकर उनकी कविताओं में बस जाते हैं। वे कविता को नारा बनाना चाहते थे और नारे में कविता का होना जरूरी मानते थे। वाग्वैदग्धता को लेकर उनकी मान्यता स्पष्ट है-नहीं चल सकती/भाषायी बनावट/अधिक दिनों ?.....स्वभावतः लिखा गया लेखन की स्वाभाविक होता है। इसलिए वे कहते हैं-जो कुछ बोलूं ,साफ सरल सीधा बोलूँ /भले मेरी बातों से दिग्गज जन की/नाक-भौं चढ़े उम्र भर। जीवन के प्रति उनकी आस्था देखिए-मैं तो करूँ हूँ उसको सजदे/जिस जीवन ने आँखर लिक्खे/जिस जीवन ने/ बलि-बलि जाउँ हूूँ मैं उस पर/जिससे बढ़कर भाष्य न भाषा /मेरा नारा/जीवन प्यारा । उनकी भाषा प्यार ,पीर और संघर्षों की उपज है। इस संग्रह की भूमिका लिखते हुए वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने बिल्कुल सही लिखा है-’’ गिर्दा का ऐतिहासिक काम यह था कि उन्होंने झोड़ा ,चांचरी,छपेली और जागर जैसी लोक विधाओं और पारंपरिक नृत्यगीतों का को एक ऐसा नया कथ्य दिया ,जो समाज को परिवर्तन के लिए प्रेरित करता था। उन्होंने पुरानी और प्रचलित धुनों ,यथास्थिति की पोषक रचनाओं को नए अर्थों से आलोकित कर दिया।’’ वास्तव में गिर्दा का यह काम एकदम मौलिक है। हिंदी कविता में इस तरह के प्रयोग नहीं के बराबर हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने लोक विधाओं को नए कथ्य प्रदान करते हुए उनको ताजगी प्रदान की। होली गीतों को भी जागरण गीतों के रूप में बदल दिया।

 गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा’ ने कभी किसी परवाह नहीं की हमेशा सत्य की खोज करते रहे। पाठक को सारतत्व तक ले जाना उनका काव्य-प्रयोजन रहा क्योंकि उनका मानना रहा कि-ऊपर-ऊपर जो दिखाई दे रहा है/उतना  भर ही नहीं है सच। उनकी कविता हमेशा सच के साथ खड़ी रहती है। मनुष्यता के पक्ष में सच को बचाने का संघर्ष उनकी कविताओं में अनवरत चलता रहता है। पीढ़ी दर पीढ़ी पिसती रही मानवता की मुक्ति उनका सपना रहा। गिर्दा अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे उन्होंने जो भी सीखा जीवन की पाठशाला में ही सीखा। वे खुद कहते हैं- कोई पोथी नहीं ,कोई पत्रा नहीं/जो भी सीखा वो इस जिंदगी से सनम। इस जिंदगी की पाठशाला  से सीखने का ही असर रहा कि वे सबसे ऊपर मनुष्यता को रखते हैं। दूसरे आदमी से संबंध स्थापित करने का आधार उनके लिए यही मनुष्यता ही रही-हम न तन देखते ,हम न धन देखते/मापते आदमी ,आदमी से सनम। वे विराट हिमालय की तरह थे जो-विराट होते हुए भी/भूल नहीं सकता उन/छोटे-छोटे हिमालयों को/ जिनके दम पर/वह विराट साबित होता है। उनकी कविता एक दोस्त की तरह पाठक से बतयाती है और उसके हालचाल पूछती है।ढाँढस बँधाती है। उम्मीदें जगाती है।  अपने प्यार को समूचे प्यार के साथ प्यार करने का संदेश देती है।प्रेम से लेकर क्रांति के गीत गाती है।
  
जैंता एक दिन तो आलो( हिंदी एवं कुमाउँनी कविताओं का संग्रह) गिरीश तिवाड़ी’गिर्दा’ 
प्रकाशक- पहाड़ ’परिक्रमा’ तल्लाडाँडा तल्लीताल ,नैनीताल 263002 उत्तराखंड ।
मूल्य- दो सौ पचास रुपए मात्र।
संपर्क: जोशी भवन निकट लीड बैंक पिथौरागढ़ 262501 मो0 9411707470

टिप्पणियाँ

Onkar ने कहा…
जनकवि पर बढ़िया सामग्री
जानकारी से परिपूर्ण बेहतरीन आलेख ....महेश जी को बधाई !
जानकारी से परिपूर्ण बेहतरीन आलेख ....महेश जी को बधाई !
इस बेहद जरूरी आलेख के लिए आभार , मित्र .गिर्दा की कविताई पर आप की अचूक पकड यहाँ साफ़ दिखती है
-''जनकवि गिर्दा को दो फाटों में बँटी दुनिया साफ-साफ दिखाई देती है।उनकी दृष्टि में कोई जाला नहीं है। वर्चस्वशाली वर्ग के खेल और उसके द्वारा बिछायी बिसात को समझने में वे कोई गलती नहीं करते हैं। वे खुले शब्दों में कहते हैं-एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ तुम हो।...सारा पानी चूस रहे हो/नदी-समंदर लूट रहे हो। एक तरफ हैं सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम!/एक तरफ है प्यासी दुनियाँ-एक तरफ हो तुम। ''
Devendra Mewari ने कहा…
गिरदा की दूसरी पुण्यतिथि पर आज सुबह-सुबह ‘जैंता एक दिन तो आलो’ पहाड़ पोथी की महेश पुनेठा जी लिखित बेहतरीन समीक्षा पढ़ी। गिरदा के साथ बिताए क्षणों को याद करते हुए इस समीक्षा को पढ़ना एक यादगार अनुभव रहा। समीक्षक ने उनकी कविताओं के एक-एक तार की झंकार सुन कर गिरदा के रचनात्मक राग का बखूबी विश्लेषण किया है। यह गिरदा भी ना जाने किस लोक से आया था कि अनुपस्थिति में भी कभी भी, कहीं भी अदृश्य रूप में ही सही, सामने आ खड़ा होता है और अपनी आवाज में कविता के बोल गुनगुनाने लगता है। अद्भुत अनुभव रहा यह कि इस समीक्षा को पढ़ते समय भी समीक्षक की कोट की गई कविता की पंक्तियों को गिरदा की ही आवाज में सुनना। महेश जी ने ‘जैंता एक दिन तो आलो’ में संकलित गिरदा की कविताओं के एक-एक आंखर को छू कर उनके समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व को सामने रख दिया है। गिरदा तुम जहां भी हो, तुम्हें प्यार भरा सलाम और महेश पुनेठा जी को इस समीक्षा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
देवेंद्र मेवाड़ी
neelotpal ने कहा…
लेख सम्पूर्ण रूप से कवि को बयाँ करता है. बेहद जुड़ाव वाली कविताएँ जो जिंदगी को एक नये अर्थ में देखने को कहती हैं. गिर्दा की चिंता यह है कि वह सच जानता है और यह बेचैनी हर पंक्ति के साथ बाहर आती है. आपने सारे पहलुओं पर विस्तार से लिखा है. चाहे वह राजनितिक पक्ष हो, सामाजिक समस्या हो, मानवीय पक्ष हो, या एक इंसान की मुलभुत अधिकारों की लड़ाई सारी बातें समावेशित है. महेश जी और असुविधा का आभार.
neelotpal ने कहा…
लेख सम्पूर्ण रूप से कवि को बयाँ करता है. बेहद जुड़ाव वाली कविताएँ जो जिंदगी को एक नये अर्थ में देखने को कहती हैं. गिर्दा की चिंता यह है कि वह सच जानता है और यह बेचैनी हर पंक्ति के साथ बाहर आती है. आपने सारे पहलुओं पर विस्तार से लिखा है. चाहे वह राजनितिक पक्ष हो, सामाजिक समस्या हो, मानवीय पक्ष हो, या एक इंसान की मुलभुत अधिकारों की लड़ाई सारी बातें समावेशित है. महेश जी और असुविधा का आभार.
pradeep saini ने कहा…
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख ........ जनकवि गिर्दा की कविता से परिचय करवाता हुआ .......और उस कविता के बहाने इस बात को बताता हुआ कि कविता और कवि की असली जमीन कहाँ है या कहाँ होनी चाहिए.......महेश भाई ने बहुत अच्छी तरह गिर्दा के सरोकारों को उनकी काव्य पंक्तियों के मार्फ़त पकड़ा है .......यह लेख पढ़ कर लगा कि मैं अपने आस पास कि कविता को कितना कम जानता समझता हूँ .......उत्तरांचल मेरा पड़ोस है और मैंने गिर्दा को अब तक पढ़ा सुना नहीं ........ उनसे मेरा परिचय करवाने के लिए असुविधा और महेश भाई को धन्यवाद |
gumnaam pithoragarhi ने कहा…
jaankaari mahatwpuarn lagi sir ji shukriya aur badhai aapko

gumnaam pithoragarhi ने कहा…
jaankaari mahatwpuarn lagi sir ji shukriya aur badhai aapko

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