पंकज मिश्र की दो कवितायें
पंकज भाई से परिचय पुराना है। गोरखपुर में जब मैं दिशा छात्र संगठन में गया तो वह संगठन छोड़ चुके थे, पर शहर में मेल-मुलाकातें होती रहीं। फिर ग्वालियर में एक दिन। लेकिन ढंग से मुलाक़ात हुई फेसबुक के माध्यम से। वहीँ उनके कवि रूप से भी परिचित हुआ।
अभी उन्होंने नील आर्मस्ट्रांग को केंद्र में रखकर लिखी ये दो कवितायें पढने के लिए भेजीं तो मैंने अधिकारपूर्वक असुविधा के लिए ले लीं. इन्हें पढ़ते हुए आप देखेंगे कि अपनी गहरी राजनीतिक समझदारी के चलते चाँद पर उतरने के पूरे घटनाक्रम को उन्होंने एक ऐसे बिम्ब में बदल दिया है जिसके झरोखे से पूँजी के खेल को देखा जा सकता है. पंकज भाई का असुविधा पर स्वागत और यह उम्मीद की आगे भी वह हमें अपनी कवितायें उपलब्ध करायेंगे
(एक ) गुरुत्वाकर्षण कम था
या धरती से मोह भंग
पता नहीं .......
मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता
निकल गया
मैं तकता रह गया
उम्मीद के उस टुकड़े को
जो कभी चाँद सा चमकता था
गहरी उदास रातों में
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से
उजास की तरह
और फ़ैल जाता
चला गया एक दिन
हाँ , खबर तो यही थी
तस्वीर भी छपी थी
उस रोज
कि मेरे उसी दोस्त ने
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे ,
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद
यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में
कोई झंडा नहीं दीखता
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में ...
हम बदल रहे थे
धरती का रंग
वो जीत रहा था
एक बंजर जंग
वो आसमां से भी ऊँची
छलांगें लगा रहा था ,
और हम जमीन पर
चल रहे थे
वो बदल चुका था
और हम ,
बदल रहे थे
वो बूझ रहा था पहेलियाँ
हम जिन्दा सवाल हल कर रहे थे
(दो) नील ! जब से तुम्हारे
पाँव पड़े हैं चाँद पर
तब से ही कहीं लापता है
वो चरखा चलाती बुढ़िया
कहाँ गयी होगी .....
किसी अन्य ग्रह पर
या होगी यहीं कहीं , पृथ्वी पर
कांपते हाथों से फूल चढाते
उस बूढ़े की समाधि पर
जो जीवन भर कातता रहा सूत
चलाता रहा चरखा........
स्मृतियाँ खींच लाई हो उसे पृथ्वी पर
तो क्या बुढ़िया को
ये भी पता चल चुका है !
कि उसके बूढ़े को मारने वाला
अब तक फरार है ,
उस की तलाश में
कहाँ कहाँ भटकेगी ,
साबरमती तट तक भी
क्या वो जायेगी
जहां ले रखी है उसने शरण
आजकल
तो क्या नील
तुम ने उसे सब कुछ बता दिया ......
या फिर ऐसा
तो हो ही सकता है
इतिहास दोहराने की कोशिश की हो तुमने
निर्जन चाँद पर बदहवास जान हथेली पर लेकर
तुम्हारी नज़रों से बच बचा कर
चोरी छिपे सवार हो गयी हो यान में
और आ गयी हो पृथ्वी पर
खड़ी हो वहीं
करबद्ध , संपीडित स्वजनों में
आँखों की कोरों में बांधे
शताब्दियाँ का ज्वार ,दुर्निवार
स्टेच्यु ऑफ लिबरटी के गिर्द
शोक सभा में .........
कि पता चला चुका हो उसे नील
तू कोलंबस का ही वंशज है
और चाँद पृथ्वी के बाद
अमरीका का दूसरा उपग्रह है........
टिप्पणियाँ
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे '' ...... '' जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में .. ''....
एक बेहतरीन कविता के लिए पंकज को बधाई
अमेरिका का दूसरा उपग्रह है.
क्या बात है?
ये भी पता चल चुका है !
कि उसके बूढ़े को मारने वाला
अब तक फरार है ,
उस की तलाश में
कहाँ कहाँ भटकेगी ,
साबरमती तट तक भी
क्या वो जायेगी
जहां ले रखी है उसने शरण
आजकल
शानदार कवितायेँ ........ क्या कुछ नहीं कहती ये कवितायेँ ........ कवि की नज़र से न साम्राज्यवाद की साजिश छिपी है न धार्मिक कट्टरता की ........ गांधी के हत्यारे वाला ट्विस्ट कविता को किसी और ही ऊँचाई पर ले जाता है | असुविधा का आभार |
श्रीमान नील आर्मस्ट्रांग
आपने अपने पाँव रखे थे चाँद पर
यह बात अपनी माँ को मैंने बहुत समझाई
लेकिन मेरी माँ ने विश्वास नहीं किया
उसके विश्वास में चाँद एक देवता
जीवन में सद के लिए
माँ अर्ग चढ़ाती आई चाँद को।
भविष्य में मानव चाँद पर बस्तियाँ बसाना चाहता है
यह बात मेरी माँ को स्वीकार नहीं
मेरी माँ के अनुसार -
चाँद में बैठी है चाँद की माँ
अनवरत् सूत कातती
जिसको उसका बेटा चाँद
अंबर से अंधेरे की खिड़की खोल
पृथ्वी पर बुरकाता
सफेद मुलायम महीन रेशे
धरती के लिए सुख।
श्रीमान नील आर्मस्ट्रांग
अब नहीं रही हैं मेरी माँ
और मैंने आप वाली बात में पूरा विश्वास धरा
पर एक अन्य सच भी कह दूँ
जब कभी देखता हूँ भरपूर चमकता चाँद
माँ वाली बात कि
चाँद पृथ्वी पर सफेद मुलायम महीन रेशे बुरकाता है
धरती के लिए सुख
मुझमें असीम आनंद का जाल बुनती।
पंकज भाई की ये कविताएँ .पूंजीवादी-सत्ता की बदमाशी से मानवीय जीवन में उपजी विद्रूपताओं व विडम्बना को मर्म व अपनी तल्खी से कह दिया है ...
मेरी भी इस सन्दर्भ पर एक कविता है जो थोड़ा सा अलग होकर देख रही है , कुछ दिन पहले उसे मैंने अपने फेस बुक वाल पर भी लगाया था ,आप लोगो से शेयर करने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा हूँ -
धन्यवाद् अशोकजी