शंभू यादव की कवितायें




21वीं सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में 

मैंने धन के वैभव को वैभव न कहा।
मैं ज्ञान व मानवता की पोटली खोल के बैठ गया।

‘जिस ज्ञान से अर्जित न हो कोई दाम
वह व्यर्थ है.......।’ मेरे पिता ने कहा।

मैं धकेल दिया गया
अपने घर के पिछले द्वार से बाहर।

घर का अगला द्वार पैसे कमाता,
धन-संपति बनाता,
अपने में सज-संवर मग्न है......।

खेत से कटी फसल के बाद खड़े खोबड़ों पर भागता मैं
मेरे पैरों से रिस रहा है खून
मेरी जीभ तालू से चिपकी है
सूखे जोहड़ की पपड़ियों-से मेरे होंठ।


आसमान में आग और
ताप से बालू धधका
तेज अंधड़ आ बरपा है बीच दोपहर
खोया है आलोक

इस भीषण में चील ही है जो खिलखिला रही
गतिमान हवाओं में मुग्ध उड़ती
ऊँचे गोते लगाती चक्कर काटती घिन्नीदार
आकाश में जगह-जगह चलायमान काले डब्बे
नये रक्त संचार में शिकारी पंजे!

भयभीत है चिड़िया
चूहे की भगदड़ गुह की ओर

रह-रह बुदबुदाता मैं
खूनी पंजों से बचने की ताकिद
बार-बार।

मेेरे बिल्डर-भाई की ‘स्कार्पियो’ कार में बैठा मेरा पिता
जा रहा है हरिद्वार नहान
मुझ लहुलुहान को उपेक्षा से देखता।

21वीं सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में
दर्द में सिमटा पड़ा हूँ दिल से सूजा।




एक नया आख्यान

प्रस्तुत प्रस्तुति में
एक बरगद के आख्यान की सूक्ष्म सी व्याख्या और
बहुत सी अस्पष्टताओं के साथ आगे बढ़ा अन्य कुछ भी है।

बात है यह एक मोटे तने वाले छायादार विशाल बरगद की
इस पर सभी तरह के पंछी बैठे चहचहाते थे
इसकी ढ़ाढी तंत्र की शिराओं पर झूलते थे बच्चे

बरगद के चारों ओर एक पक्का चबूतरा, मजबूत
उसका पृष्ठ व्यापक विस्तार लिए
जहाँ बैठ हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग
राजनैतिक चेतनशीलता जन जन को समझाते
मानव की कहानी में सौन्दर्य को बढ़ाते

बरगद के आख्यान की सूक्ष्म सी व्याख्या में
हुक्के की गुड़गुड़ाहट एक विशेष है।

अब बात कुछ इससे आगे की
जर्जर हो चुका है चबूतरा
कहा गया बरगद पर एक भूतनी का वास
एक कथन में ‘बरगद पर भूतनी’ को खास माना गया
उसके लिए भी कई व्याख्याओं को बनाया गया
कुछ में तो इस तरह कि
सब रहस्यमय बन जाए

और वास्तविक यथार्थ में एक नई दिशा का प्रचलन चला
रात को बरगद के पास कोई नहीं जाएगा
परिणामस्वरूप दिन में भी सूना
बरगद व जर्जर चबूतरा
उससे दूर लोगों के मकान
स्कूल में बच्चे
पाठ में संधि के प्रकार व विच्छेद।

समय आया किसी आख्यान की व्याख्या को पलट देने का और
बरगद वाली पृथ्वी-जगह उल्टी पलट गई
यानि बरगद और चबूतरा पाताल में
धरती के ऊपर पाताल का लावा, उबलता

पास की पहाड़ी पर एक दानव

एक क्रियारूप में दानव लावा में पत्थर फेंकता
इस वहशी क्रिया के विशेष के तौर पर
राहगुजर आदम अपने ऊपर आ पड़े लावा से झुलसता
दरअसल मनुज का सर्वनाम है यह दानव

यह बात पद परिचय में अलग रूप ले सकती है
‘आदम’ का लावा से झुलसना व
‘मनुज’ के सर्वनाम के तौर में ‘दानव’ का प्रयोग
किसी खास प्रायोजन का द्योतक तो नहीं ?

वैसे भी क्यों न वाक्य पर विचार के अगले रूप में
व्याख्या की जटिलता को बढ़ने दें।

अंत में एक और दरअसल का दखल
समसामायिक आन बना है
कुछ उग्र नजरों के कई कारक रूप
आख्यान की व्याख्या की कलम तोड़ने की फिराक में है।



जड़ता 

वे चार
चारों युवा
घूम रहे शापिंग माल में
युवाओं के गले में मोटी सोने की चेन
हाथ में जितनी अंगुलियां उतनी अंगूठियां
अंगूठियों में अलग-अलग किस्म के नग
मां बाप ने जड़वाए है ये नग
मानते हैं इस जड़ाव में
बच्चों का जीवन सुरक्षित रहता है, फलता-फूलता है !

चारों युवा शापिंग माल में
ताकते हैं लड़कियों के झुंड
सहसा एक युवा के मुंह से फूट पड़ता है-
‘क्या मृदुल हंसी है’
‘मृदुल क्या’
अन्य तीनों ने पूछा, आश्चर्य में
जो बोला वह भी नहीं जानता मृदुल का सही अर्थ
झट चहका-
‘मृदुल मीन्स् सैक्सी’

चारों युवाओं का ठहाका
बाजार के शोर में ठुमकता।


यह भी एक खबर है आप विश्वास करें तो 


जिस समय टीवी के मायावी पर्दें पर
एक न्यूज चैनल प्रस्तुत कर रहा था-
‘हरे-भरे घास के मैदानों में समानता से चरती भेड़े
खुशियो से भरी है’

ठीक उसी समय
उन भेड़ों को ले जाया जा रहा था वधगृह की ओर..........
यह भी एक खबर है आप विश्वास करें तो

भेड़ों के खून से सींचित रंगबिरंगे फूलोंवाली क्यारियाँ
शोभायमान है भारत में, जगह-जगह
जहाँ देश के कुलीन जन
‘मटन कोरमा’ की महक से हुलसित
नई-नवेली उदारवादी व्यवस्था की सुंड़ी में
अपना चूमा जड़ रहे.......



अभी तो यही हुआ है 

वह अपने ख्वाब में था
ख्वाब में चलते उसने देखा-
कुछ आदमियों पर डायनासोरो के जबड़े लग गए है
उसने आसानी से सीधे.सीधे पहचाना
वो अन्य जीव जन्तुओं को अपना शिकार बनाने में लगे हैं

सारी पृथ्वी की हालत बिगड़ी है

उसने ख्वाब में सोचा -
यह सब ठीक नहीं
इसे बदलना होगा।

फिलहाल
उसके ख्वाब में आगे आने वाले हिस्से पर ब्रेक लग गई है
जैसे ही वह ख्वाब के पटल पर अपनी इच्छा का दृश्य लाने को था
डायनासोरो की चिंघाड़ों ने उसकी नींद गड़बड़ा दी
वो भी बदस्तूर..........

अब क्या होने वाला है
उसको आगे नींद आएगी या नहीं
अगर आ भी गई तो
वह ख्वाब में अपनी इच्छा का दृश्य फिर से ला पाने में सफल होगा या नहीं
माफ करना, मैं अभी नहीं जानता।




एक सट्टेबाज की मौत 

उस दिन जिस दिन उसकी मौत हुई
उस दिन के बारे में उसके ज्योतिषी ने बताया था कि
वह दिन उसके लिए महाशुभ
अपरिमित लक्ष्मी का होगा आगमन

उसकी मौत से संबंधित यह किस्सा आगे बढ़े
मैं उसके बारे में कुछ बता दूँ-
वह एक पेशेवर सट्टेबाज है
संसार भर में होने वाले क्रिकेट मैचों पर
सट्टा लगाना और खिलवाना उसका मुख्य धंधा।

कुछ साल पहले तक वह एक फैक्टरी चलाता था
पेट भरता था अपना और
साथ दस-बारह परिवारों का
परन्तु हो नहीं पाता था
देशी भाषा में कहें तो मोटा जुगाड़
एक दिन बंद कर दी फैक्टरी
पहले किया लाॅटरी का व्यापार
फिर सट्टेबाजी करने लगा
धन-धान्य आ बसा उसकी गाँठ में
इच्छित रहने, खाने को
दुनिया भर में दिखाने को
आरामदायक एयरकंडीशन आॅफिस
बड़ी सी लक्ष्मी की मूर्ति, सोना जड़ी।

लोगों के बीच, फैक्टरी बंद करने का किस्सा अक्सर यँू सुनाता-
‘दिनरात सामान बनाना
फिर भटकना बाजार में
माल बिके कोई गारंटी नहीं
बिक भी जाए तो
नकद कम, उधार ही उधार
महीने बीतते हाथ पड़े आने चार
और तो और ठूंठ हुए लंठ मजदूरों से माथापच्ची कौन करे
रोज नई माँगों से तंग करते थे
इन सब पर सरकारी कबूतरों का दाना-पानी....... ।’

आधुनिकता का उत्तर हो जाने के इस दौर में
उसके ऐसे पौ-बारह होने की उत्थान कथा पर
अधिकतर लोगों ने खूब दाद दी-
‘वाह! क्या तरक्की की है उसने’।

ऊपर जैसा कि मैं उसके उस दिन के बारे में बताने जा रहा था
जिस दिन उसकी मौत हुई
उस दिन वह लम्बा सा तिलक लगा सुबह निकला जब घर से
सामने सफाईवाली आ पड़ी
सदियों से प्रचालित अहंकार अंदर ही अंदर उठा-
‘छी! छी! भगवान आज इसका ही मुँह देखना था’
‘नासमरे इसका..... ’
जबकि सफाईवाली ने अदब से नमस्कार किया था उसको।

तेज गति से अपने गंतव्य पर पहुँचा
उसके अन्य साथी और
दसों टेलिफोन उतने ही मोबाइल फोन तैयार बैठे थे

टीवी आॅन हुआ
एक दिवसीय क्रिकेट मैच
अपने इष्ट का ध्यान कर
उसने टाॅस पर ही खेल दिया एक बड़ा दाव
फिर दिन भर सट्टा चला
गेंद-दर-गेंद
पीते हुए खाते हुए

शाम तक लाखों जीत
रात घर लौटा मदहोश
अंधेरे में घूरता था उस स्थान को
सुबह सफाईवाली खड़ी थी जहाँ
बहकी आवाज में गुर्राया-
‘यह तो मेरे ही पुण्यों का फल रहा जो
सब शुभ ही शुभ हुआ, वाह!’

गुर्राता-गुर्राता, अपने कमरे में पहुँचा।

बीतती रात में
गुर्र गुर्र करता कुत्ता वह
हाथों में पकड़ नोटों की गड्डियाँ
होटों से चुमता था
मुँह से काटने लगता था कभी
दाँत गड़ाता स्त्री-देह में
सो गया गहरी नींद
कभी न टूटने वाली नींद

रुपए फैले रह गए बिस्तर पर!


       


आप आमंत्रित हैं

बारिश हुई है
उमड़ पड़ी है चहचहाहट
बारिश से पहले उड़ी थी जो रेत, जम़ीन में जम
उंची उठी घास को लहलहाने का प्रयत्न बनी है

हवा व घास के बीच लयमय कानाफूसी कुछ

अगर गाड़ियों का शोर बंद हो
और इलक्टधेनिक आवाजंे़ जैम हो जाएं
घास व हवा की जुगलबंदी का मजा, जरा सोचें!

क्यों तुम वीकीपीडिया पर भारतीय कोयल की
टेप आवाज़ सुनने में बावरे
यहां ठीक मेरे घर के पीछे बसे पेड़ पर
गुनगुनाती है कोयल

उर्जा का बेहतरीन इस्तेमाल होते देखना है, तो आओ
मस्त नाचते मोर को देखो
राजधानी के बीच बचे एक छोटे से निर्जन में
नैसर्गिक निखरी नवयौवना पत्तियां
पोर्नो साइट की उन्मादी बलजोरी से परे
एकदम खालिश
दृश्यमान मेरे घर से

इनका अवलोकन हेतु आप आमंत्रित हैं

बशर्ते इस महानगर में
आप फुर्सत  में हों।


कुछ भी तो महफूज़ नहीं

दिमाग की नसों में दौड़ते रहते है कई फडें कई नुक्ते कि
इस ज़िंदगानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए

जंगल की विथिकाओं में मख्खियाँ भिनभिनाई घूम रही हैं

सत्ताओं की मक्कारी
पुण्य आत्माओं का शोक
गरीब की भूख लगातार क्यों बनी है?

निर्दयी वायरल के विरूद्ध प्रतिरोधक दवाईयों की लड़ाई
हार न हो जाए!

तेज गरज के साथ फट पड़ा है सावन का बादल
एक निरीह राहगीर को मार दिया है कांवड़ियों ने
इस खबर को पढ़ा है मैंने
ओस्लो में हुए नरसंहार की खबर के साथ

तरह तरह के डरों में
हांफ रही है पृथ्वी-
कुछ भी तो महफूज़ नहीं।

   
   




 इधर की एक सुबह

और दिन निकल आया
कुछ पेड़ दिखे हैं कुछ पक्षी चहके हैं

एक दूसरे की होड़ में फैले हैं मकान
और वाहन

और कई टेलिविजनों से निकलकर
एक ज्योतिषी की आवाज़ हवा में ठस व्याप्त-
‘विभिन्न राशिवालों! तुम्हारा आज का दिन कैसा होगा, सुनो!’

और वही सुबहवाली एक प्रक्रिया में
वह बालक अपने कंधे पर बोरा रखे
गली से निकला है प्लास्टिक की थैलियाँ बिनता
और साथ में वह बुढ़िया भी है, जो
बाजार के खुलने पर भीख मांगने जाती है

और पानबाज़ों व सिगरटबाज़ों की सुबहवाली टोली
पीकती, सुट्टयाती
उलछी है खिलदड़ बहस में -
‘बुढ़िया की कमाई सौ रुपए के आसपास तो पक्का है
और यह कमाई सरकार द्वारा तय
गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करनेवालों की तय दर से ऊपर है!’

इधरवाली इस सुबह में उनकी इस बात पर
मेरा दिमाग तो जबाब दे गंया है
बाकी आगे सोचने के लिए आप हैं।



   

चेतो रे  पकड़ो उन्हें

पकड़ो  पकड़ो
केन किनारे जिस रेती पर
केदार बाबू बैठे थे पैर पसारे
उसे रेत माफिया ले उड़े
चेतो रे चेतो
पकड़ो उन्हें।


 भूख आग है

वह काँप रहा था ठंड के मारे
वह कान पकड़े खड़ा था पुलिस के सामने
वह बिखल रहा था शौहदों की मार से

उसने मात्र इतना ही तो किया था
भूखे पेट में उपजे एसिड को
अनजाने ही थूका
उनकी लक्ज़री कार की ओर

वह काँप रहा था इंडिया गेट वाली सड़क पर
लुटियन जोन के विस्तार में

ंभूख से उपजे एसिड का सही दिशा में प्रक्षेपण हो जाए
दिख जाए उसकी ताकत



रामदीन

रामदीन के नाम से
राम गायब हो गया था
सिर्फ दीन नाम से
अलग पड़ा फोल्डर दिखा

राम के लिए सर्च किया
लेकिन अंत में
नाॅट फाउंड लिखा आया

ट्रबलशुटर भी नकारा निकला
राम के बदले
केसरिया रंग में लिपटे ‘श्री राम’ पर पहुँचा दिया।


टिप्पणियाँ

अरुण अवध ने कहा…
सामाजिक विडंबनाओं को रेखांकित करती अच्छी कवितायें ! शंभू जी को बधाई !
Unknown ने कहा…
तरह तरह के डरों में
हांफ रही है पृथ्वी-
कुछ भी तो महफूज़ नहीं।...

शंभु यादव की कविताओं की यही पंक्तियां कुंजी हैं। जितने किस्‍म के संकट भूमंडलीकृत व्‍यवस्‍था और पूंजी के रक्‍तपिपासुओं ने इस पृथ्‍वी पर मनुष्‍य और संपूर्ण मानव जगत के लिए खड़े कर दिये हैं, उनकी बहुत गहरी पड़ताल करते हुए शंभु अपनी कविता को संभव करते हैं। मैं बहुत जिज्ञासुभाव से उनकी कविताओं को देखता रहा हूं और मुझे हर बार अपने सोचने-विचारने के लिए ज़रूरी खुराक मिल जाती है। वे हमारे समय के बेहद ज़रूरी कवियों में हैा। आपने 'असुविधा' पर उन्‍हें प्रस्‍तुत कर जो असुविधा पैदा की है, वह आज की काव्‍य चिंताओं का एक अनिवार्य कार्यभार है। कवि को शुभकामनाएं और आपका आभार।
Unknown ने कहा…
शंभुजि नम्श्कार, आपकी कविताएँ मेने पड़ी और एक कहावत याद आ गई, केह्ते हे कि "जहां न पहोच पाए रवि(सुर्य) वहा पहोचे कवि". आपकी सोच में बहोति गहेराइ ओर स्थिरता हे इसिलिए मुजे लगता हे कि आप समाज के सभी पत्रों ओर समस्याओं को समज सकते हो ओर उनको कविताओं में ढाल पाते हो. मेने आपकी 12 कविताइ का आनंद लिआ, आनंद इसलिऐ कह रहा हूँ कि अभी गुजरात में बारिश हो रही हे ओर आपकि कविताएँ समज रहा हूँ, आप ख़ुद ही एक कवि हे तो कविता संग बारिश का माहौल आप मुजसे बेहतर समज सकते हे. आपने कविताओं में जवानि कि मौज मस्ती, निर्जिव वस्तु, मानसिक द्रडटाई, पोलिटीक्स, मिडीआ ओर समाज के वर्तमान बहु चरचित विषयों को रखा जो मुजे बहॉत अछा लगा, आप समाज के सभी उमर के वर्ग को समजते हो, जो कविओं के विषय में एक मान्यता बदलने पर मजबूड़ करते हे कि 'कवि भी कविताओं में मोर्ड्नाजेशन ला सकते हे'. आपकी कविता 'भूख आग हैं' कि एक लाइन मुजे बहोत ही अची लगी. "वह् काप रहा था ईडिया गेट वाली सड्क पर लुटीयन जोन के विस्तार मैं.' आपको शुभकामनाएँ नही दूँगा क्योकि वह् आपका अपमान हो सकता हे, क्योकि जो शुभ कि ही कामना रखते हो वोह कविताओं में जान नही रख सकता.
Umesh ने कहा…
"भेड़ों के खून से सींचित रंगबिरंगे फूलोंवाली क्यारियाँ
शोभायमान है भारत में, जगह-जगह
जहाँ देश के कुलीन जन
‘मटन कोरमा’ की महक से हुलसित
नई-नवेली उदारवादी व्यवस्था की सुंड़ी में
अपना चूमा जड़ रहे......."
शंभू जी की कविताएं आज की सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों का पोस्टमार्टम करती हैं और उनके प्रति गहरी संवेदना एवं आक्रोश जगाती हैं। इनकी प्रस्तुतु के लिए 'असुविधा' एवं अशोक को धन्यवाद तथा इतनी अच्छी व सार्थक कविताओं के लिए शंभू जी को बधाई!
बहुत अच्छी कवितायें हैं ...इस दौर में इतनी संवेदनाओं को बचा कर रख पाना एक दुर्लभ बात है ...बधाई
Mahesh Chandra Punetha ने कहा…
apane samay ki sahi pahachan karati huyi pratibaddha kavitayen hain. ye kavitayen kisi tarah ka koyi bhram nahi paida karati hain....sartatv tak pahunchati hain or badalane ko prerit karati hain.
Mahesh Chandra Punetha ने कहा…
apane samay ki sahi pahachan karati huyi pratibaddha kavitayen hain. ye kavitayen kisi tarah ka koyi bhram nahi paida karati hain....sartatv tak pahunchati hain or badalane ko prerit karati hain.

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