दुर्गम रास्तों का चितेरा कवि : पवन करण


(अग्रज कवि पवन करण की स्त्री विषयक कविताओं पर यह आलेख काफी पहले, स्त्री मेरे भीतर के प्रकाशन के थोड़े दिनों बाद ही, लिखा था. इधर जब आलोचनात्मक लेखों को एक जगह करके किताब बनाने का विचार बना तो इसे फिर से ढूँढा. इस बीच उनकी दो और किताबें आ चुकी हैं और उनमें शामिल कुछ कविताओं के मद्देनज़र लेख में कुछ संशोधन भी किये गए हैं. देखिये) 




(एक )

जो अपनी ज़िन्दगी में
अपने हाथों एक बार
अपना घोसला ज़रूर बनाता है
मैं उस पक्षी की तरह हूँ

                     (पिता का मकान)

पवन करण हमारे समय के बहुप्रकाशित, बहुचर्चित, बहुपुरस्कृत और बहुविवादित कवि है। पिछले कुछ एक वर्षों में साहित्य में सिकुडते जा रहे कविता के स्पेस के बावजूद उन्हें जितने आलोचक -पाठक नसीब हुए हैं वह किसी भी युवा कवि के लिये, आश्वस्ति और इर्ष्या, दोनों का विषय  हो सकते है। वर्तमान साहित्य के कविता विशेषांक से प्रकाश में आये पवन के पहले संकलन इस तरह मैं’ का व्यापक स्वागत हुआ था लेकिन दूसरे संकलन स्त्री मेरे भीतरने तो जैसे साहित्य के प्याले में तूफान सा ही उठा दिया । स्त्री के भिन्न -भिन्न रूपों की बहुस्तरीय पड़ताल करते इस संकलन ने हिंदी में जारी स्त्री विमर्श की बहसों में बिल्कुल नये तरीके से हस्तक्षेप किया । दरअसल यह नयापन ही पवन करण की विशिष्टता है। वह किसी बने-बनाये खांचे में फिट नहीं होते, उन्हें न तो हिंदी के किसी कविता स्कूल की परंपरा से जोड़ा जा सकता है और न ही पश्चिम के किसी नारीवादी स्कूल से वह अपने आसपास के परिवेश की समझ को अपने अनुभवों की धमनभट्ठी में पकाकर सीधे-सीधे रख देते है, कभी-कभी अधपका भी। इसीलिए उनकी कविताएं बोल्ड है, इनसे गुजरते हुए आपको कई बार लगता है कि इनमें सजगतापूर्वक कताई -बुनाई नहीं की गई बल्कि विचार प्रक्रिया को ही कविता का आकार दे दिया गया है।

पहले संकलन में जहां आसपास की दुनिया को मिचमिचाती भावुक आंखो से देखते हुए पवन नया घोसलाबनाने की जिद करते दिखाई देते हैं वहीं दूसरा संकलन आते-आते न केवल घोसला तैयार हो चुका है अपितु इस उल्लास में बेधड़क वह नये-नये आसमानों में उड़ान भरते हैं। लेकिन चूंकि स्त्री मेरे भीतरमूलतः स्त्री विषयक कविताओं का संकलन है इसलिए उनके संपूर्ण विकास की जांच करने के लिए आपको पिछले दो-एक वर्षों में विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं से भी गुजरना होगा(इस बीच उनका एक और काव्य संकलन ‘कहना नहीं आता’ आ चुका है, तो लगभग वे सारी कवितायें अब एक जगह संकलित हैं )। हालांकि जैसा हिन्दी में रिवाज है उन्हें मूलतः और अन्ततः स्त्री विमर्श का ही कवि माना जाता हे लेकिन एक सचेत दृष्टि यह स्पष्ट कर देती है कि वह लगातार नये-नये क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे है। दरअसल जैसा कि लीलाधर मंडलोई ने उनके पहले संकलन के फ्लैप पर इंगित किया था वह अराजनीतिक कविताओं वाले कवि नहीं है।‘ प्रगतिशील आंदोलन से गहरे सबंद्ध पवन राजनीतिक सवालों पर लगातार लिखते ही हैः स्त्री प्रश्नों पर लिखते हुए भी इन्हें ताक पर नहीं रख देते । वैसे स्त्री का सवाल क्या अपने आप में एक राजनीतिक सवाल नहीं है- ठीक वैसे ही जैसे साहित्यकारों को अलग-अलग खांचो में जड़ देने का प्रयास, तो असली सवाल राजनीतिक-गैर राजनीतिक होने का नहीं है, असली सवाल है सही या गलत राजनीति की पहचान का।

दो

क्या चाहती है स्त्री? बहुत सारे लोगो के अवचेतन मे यह विचार होता है कि स्त्री कुल मिलाकर उतनी जटिल प्रजाति नही है, वह कमोबेश सदाबहार झाडियों की लताओं जैसी सहज है, हमारे पास सीधा-साधा उत्तर है ही कि उन्हें बहुत सारी फासफेट खाद चाहिए, और एक बार यह रहस्य समझ में आ जाता है तो जिंदगी सरल हो जाती है। स्त्री को वह दिया जा सकेगा जो वह चाहती थी और फिर वह खामोश बनी रहेगी, और तब वास्तविक मनुष्यों- पुरुषों  को इतना समय मिल सकेगा कि वह अन्य वास्तविक मनुष्यों से अपने महत्वपूर्ण और कठिन व्यवहार की उलझने सुलझाने पर अपना ध्यान केंन्द्रित कर सके।...कामोत्तेजक औषधि की तरह यह प्रत्यय भी पुरुष  की एक मृगतृष्णा है, ऐसा कोई सूत्र कभी खोजा नहीं जा सकता।

                                       एलेन मारगन,डिसेन्ट आफ ए वुमन से

हिन्दी  कविता के भद्रलोक मे स्त्री का प्रवेश नया नही है। भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक (बरास्ता रीतिकाल) स्त्री कविताओं में लगातार उपस्थित रही है। बेचारी ‘आँचल में दूध और आंखो में पानी’ लिए ‘पराधीन सुख सपनेहु नाही’, का विलाप करती, माँ और पत्नी के रूप में  आदर्श भूमिका के निर्वाह के कारण भावुकता से याद की जाती है या फिर प्रेमिका के रूप में  नख-शिख सौंन्दर्य से आराधित। छायावादोत्तर काल में साहित्य मे आधुनिक विचारों के प्रवेश  के बाद स्थिति बदली जरूर, लेकिन कुछ राजनैतिक आंदोलनो का दबाव (पुरूषों द्वारा, पुरूषों के लिये, पुरूषों के खिलाफ) और कुछ भारतीय सामाजिक संरचना के दबाव मे मूलभूत विशिष्टताओं  के चलते एक मनुष्य के रूप में स्त्री साहित्य मे लगभग अनुपस्थित ही रही। निराला की सरोज स्मृति को छोड दें तो हिंन्दी मे शायद ही कोई ऐसी महत्वपूर्ण और चर्चित कविता नजर आती है जिसके केंद्र मे स्त्री अपने पूरे आदमकद स्वरूप मे उपस्थित हो। नई कविता के बाद के अराजक दौर मे भी सेक्सजन्य कुंठाएं जब (अ)कविता का विषय बनी तो नारेबाजी के शोर में भी ब्रा जलानेतक तो पहुंची पर स्त्री हृदय के भीतर प्रवेश की कोशिशें कम ही दिखीं । मुझे स्त्री प्रश्नों  पर हिन्दी कविता का दृष्टिकोण समझने का सबसे सीधा रास्ता लगता है मां पर लिखी गयी कविताएं । शायद ही कोई महत्वपूर्ण कवि हो जिसने मां पर कविता न लिखी हो । भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों में तानाशाह पतियों, परंपरा की सोटी थामें वृद्धजनों और मनुस्मृति संचालित सामाजिक परिवेश में सांमजस्य बिठाने के प्रयत्न में निरंतर दमित महिला के प्रति एक संवेदनशील युवा की वेदना अस्वाभाविक भी नहीं है। पर यह वेदना उसे एक आदमकद मनुष्य के रूप में उसकी सहज मानवीय आकांक्षाओं की पहचान की जगह दूर से एक कृतज्ञता के भाव से प्रेरित उच्छ्वास में तब्दील हो किंकर्तव्यविमूढ़ता वाली भावुक, लिजलिजी और आत्मग्लानि वाली कविताओं को जन्म देती है जो अंततः यथास्थितिवाद से आगे बढ़ नहीं पातीं । ऐसे परिवेश में जब पवन करण प्यार में डूबी हुई मांको लेकर आते हैं तो स्वाभाविक ही था कि एक तरफ इसका अभूतपूर्व स्वागत होता और दूसरी तरफ कवि कुलगुरूओं की भृकुटियाँ तन जातीं । माँ  के भीतर के आह्लाद और आकांक्षाओं से भरी -पूरी यह कविता, कविता की दुनिया में किसी दूसरे गृह से आये एलियनकी तरह आश्चर्यचकित ही नहीं आतंकित भी करती है। इस औरत से पुरूष का अपरिचय और पार्थक्य इतना गहरा है कि उस तक पहुंचने के लिये पवन करण को भी उसकी बेटी की देह ओर मन में परकाया प्रवेश करना पड़ता है । पूरी कविता में एक क्षण भी वह इससे बाहर नहीं निकल पाते और इसीलिए वह उसे प्रेम  करते ही नहीं, अपने प्रेम को ‘छिपाते और बचाते’ भी देखकर अभिभूत हो पाते है... और स्त्री के भीतर तक पहुंचने के लिए उन्हें यह परकाया प्रवेश बार -बार करना पड़ता है।
     
दरअसल, पवन करण अपनी कविताओं में जितने सीधे -सादे तरीके से कहते चले जाते हैं उससे एक बड़ा भ्रम पैदा होता है कि ज्यादा संश्लिष्ट या जटिल कवि नहीं । नये तथा अक्सर विस्मित कर देने वाले नवाचारी कवि की तरह ही उन्हें सामान्यतः रेखांकित किया जाता है। परंतु उनकी सारी कविताओं से एकबारगी गुजरने पर यह जाल टूटता है। दरअसल पवन कई-कई स्तरों पर मुठभेड़ करते है। अस्सी के दशक की आंदोलनधर्मी कविताओं का दौर खत्म होने के बाद की कविताओं में नये -नये विषयों का प्रवेष कोई विशेष बात नहीं लेकिन इससे पवन को जो चीज अलग करती है वह है उनकी स्पष्ट और लगभग अनगढ़ प्रस्तुति । इसीलिए उन्हें उनकी कविताओं से साफ -साफ पहचाना जा सकता है।
     
अगर पवन करण की कविताओं को दो हिस्सों में बांटा जाये-पहला जिसमें उन्होंने परकाया प्रवेशकिया है या जिन्हे उनके भीतर की स्त्री ने गढ़ा है और दूसरा जिसमें उनका पुरूष कविता लिख रहा है, तो उनके काव्य संसार और कवि के भीतर प्रवेश करने की तब चाभी मिल सकती है।

(तीन)

वो  धारदार निगाह
जो लगातार  मेरा पीछा कर रही है
चाहता हूँ कुछ देर
मेरे पास आकर बैठे

                                                                       (इससे पहले कि वो )

अपनी बेहद आरभ्भिक कविताओं में ही पवन करण के भीतर अपने विषयके भीतर येन-केन प्रकारेण प्रवेश कर लेने की एक अजीब सी बेचैनी दिखाई देती है। ऊपर दी हुई कविता उनके पहले संकलन की पहली ही कविता है। पेड़ को करते देख कुल्हाड़ी को गर्दन पर महसूस करने वाला यह कवि इस तरह मैंसे लेकर टाईपिस्टतक चीजों को देखने -समझने के लिए एक सम्यक दृष्टि की तलाश करता दिखाई देता है। लेकिन शायद यह पूरा सच उसे बाहर से दिख ही नहीं पाता इसलिए वह उत्खनन के सर्वथा नवीन औजारों के साथ अपने विषय के भीतर प्रवेश  करते हैं। और इस प्रक्रिया में स्त्री मन के भीतर का अनेक अंधेरी तहों को टटोलते है। इस कड़ी कि जो पहली कविता प्रकाश में आई वह थी प्यार में डूबी हुई मां। कथन में प्रकाशित यह कविता दरअसल एक बेटी का मां के अंतर्जगत में सायास प्रवेश है। जैसा कि मैने शुरू में भी लिखा यह प्रवेश करने की हिम्मत पवन करण का पुरूष जुटा ही नहीं सकता । पुरूष मानस की वर्षों की कण्डिशनिंगउसे एक अजीब से ग्लानिबोध से भर देती । अनायास ही नहीं है कि पुरूष होकर लिखते पवन करण की नजर बदल जाती है जिसे हम अगले खण्ड में सविस्तार देखेंगे ।

पवन के भीतर की स्त्री की रची एक और रचना इस पक्ष को और स्पष्ट करती है तुम जैसी चाहते हो वैसी नहीं हूं मैं’। विवाह के लिये प्रस्तुत एक स्त्री की यह बोल्डआत्मस्वीकृति अपनी बोल्डनेससे कहीं आगे जाकर पारंपरिक मूल्य मान्यताओं पर गहरा प्रहार करती है। कुंआरेपन पर उसकी टिप्पणी मैने उसे बंधन नहीं आपने हक की तरह लिया एकदम से झकझोर देती है और एक झटके में सदियों के मिथकों को ध्वस्त कर देती है। यह पवित्रता की वेदी पर तिल -तिल कर जलने के ऊपर अपने शरीर पर अपने अधिकार की वरीयता की स्थापना है। कितना आश्चर्यजनक है कि वही कवि जब पुरूष होकर लिखता है तो पति को अपना ‘कुंआरा’ शरीर सौंपने में असफल रही स्त्री की कथा कहता है (स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह )।
लेकिन यह परकाया प्रवेश हमेशा सफल नहीं होता । एक पुरूष के लिये भावना के तीव्र क्षणों में तो अपने स्व से मुक्ति संभव है परंतु इससे निरंतर मुक्त रह पाने के लिए जो वैचारिक आधार चाहिए वह पवन करण में नहीं दिखाई देता । इसीलिए संकलन के प्रकाशन के बाद आई उनकी दो कविताएं उस भले मानस के पास मैं अपना समय छोड़ आयी हूंऔर फोटो सेशनबिल्कुल अलग सी कहानी कहती है। उस भले मानस के पास मैं अपना समय छोड़ आयी हूं दरअसल लिखी भले ही स्त्री मन में प्रवेश करके गयी हो पर है वह एक आत्मग्लानिग्रस्त पुरूष  की खुद को आश्वस्त करती कविता । प्रेमी को संबोधित इस कविता में स्त्री चाहे जो कुछ कह रही हो पर वास्तव में पुरूष खुद को महिमामण्डित कर रहा है। अपनी देह को लेकर बेफिक, बोल्ड और मुक्त स्त्री यहां बस उच्छवासें भर रही है, भावुक प्रलाप कर रही है और प्रेम के भावातिरेक के क्षणों में कहे प्रेमी के हर शब्द को वेदवाक्य की तरह सच मान रही है। यह लैला -मजनू वाला प्रेम है जहां कोई प्रश्न नहीं होता । बस उसकी प्रशंसाओं के आगे वह देगची में साग सी खदकती है‘, ‘बिस्तर में वाष्प सी उड़ती है और खुश है कि मुझसे उसका पेट भरता ही नहीं कभी’ । वह यह प्रश्न कर भी नहीं पाती कि उस मानुष की बाट जोहती आंखेबस बाट ही क्यों जोहती है? कहीं यह स्पष्ट नहीं होता कि कहीं पहले भी स्त्री देह में चुभ चुका वह’ बस एक और स्त्री देह में चुभना ही तो नहीं चाहता था? आखिर वह कौन सी बात है जिसने उसे उन बाट जोहती आंख में स्मृतियों की धार छोड़ने पर विवश कर दिया, यह कविता में कहीं स्पष्ट नहीं होता । लेकिन जिस तरह ये तमाम कविताएं किसी धारावाहिक सी एक -दूसरे से जुड़ी हैं जो दृश्य उभरता है उसमें यह कविता विवाहित प्रेमी की घरन छोड़ने की विवशता को आसानी से स्वीकार कर अपना नया घरबसाती प्रेमिका का चरित्र प्रमाण पत्रनजर आती है।
     
फोटो सेशनउसके और बाद की कविता है। संडे पोस्टके विषेशांक में प्रकाशित  यह कविता चौंकाती है और फिर झुंझलाहट भर देती है । ‘प्यार में डूबी हुई मांलिखने वाले कवि की यह कविता देह के दलदल में इतना नीचे उतर जाती है कि कुछ कहने के बजाय दिखाने की कोशिश करती सी लगती है। यह अपनी दैहिक अस्मिता पर विश्वास करने वाली स्वतंत्र स्त्री नहीं अपितु बाजार के मानदण्डों पर खरी अपनी देह को बाजार में प्रदर्शित करने को आकुल परतंत्रस्त्री है जिसे अपनी नग्न देह चांदनी से चिकने कागज परछपी देखनी है ... यह कागज प्लेब्वायया डेबोनेयरका ही हो सकता है या टीवी तथा फिल्मों का परदा भी । यहां पवन कई बार अंदर-बाहर होते है। कथोपकथन शैली की इस कविता में पुरूष श्रोता की भूमिका में है।
     
प्रश्न यह उठता है कि दैहिक विमर्श की सीमा क्या है ? देह की आजादी क्या इसे बाजार में बेचने की आजादी है और सौंदर्य के बाजारू मानकों का स्वीकार एक तरह की परतंत्रता नहीं ? वक्ष की फड़फड़ाहटऔर नितंबो की थरथराहटजैसे जुमलों का निष्प्रयोजन प्रयोग कहीं केवल सनसनी पैदा करने का प्रयास तो नहीं ? स्त्री के भीतर प्रवेश के आरंभिक औजार यहां तक पहुंचते -पहुंचते भोथरे से पड़ गये हैं और पवन करण के लिये जरूरी है कि उत्खनन के नये औजारों की तलाश करें। और ऐसा भी नहीं है कि वह इस ओर सचेत नहीं है । मैं स्त्री होना चाहता हूंमें वह लिखते हैं  
           
मैं पुरूष होते हुए कितना भी कम पुरूष हो के
मैं भीतर की स्त्री की वजह से कितना भी अधिक
स्त्री होके खुद को दिखा दूं उनके आगे
इस सबसे मैं स्त्री तो हो नहीं जाऊंगा
रहूंगा तो पुरूष ही न, यही वजह है कि
मैं पुरूष होते हुए स्त्री नहीं होना चाहता
पुरूष से अलग अपनी गंध अपने स्वभाव
अपनी आदतें अपने ढंग लिए जैसे होती हे कोई स्त्री
ठीक मैं उस जैसी स्त्री होना चाहता हूं ।




चार

अभी मैने पढी स्त्री मेरे भीतर। रचयिता है पवन करण नाम का पुरूष । पुरूष के अनुभव स्त्री के लिए होते अन्याय पर अपनी टिप्पणी दर्ज करते है। ये उद्गार एक पुरूष के है क्या वह देवता बनने की तैयारी में है नहीं, देवता मत बनना कवि, देवताओं से स्त्री को डर लगता है

                                                                                                                         मैत्रेयी पुष्पा

और यह खतरा दमित -वंचित तबके को केन्द्र में रखकर लिखने वाले हर रचनाकार के साथ होता है। वर्गीय पक्षधरता और वर्ग सहानुभूति के साथ-साथ वर्गीय एकात्मकता अत्यंत आवश्यक  होती है । खैर बात पवन करण की स्त्री विषयक कविताओं की हो रही थी । अपने पहले ही संकलन में पवन करण की स्त्री प्रश्न पर गहन संवेदानात्मक दृष्टि साफ दिखाई देती है। साझीऔर एलबमजैसी कवितायें इसकी बेहद खूबसूरत नजीरें है। बूढ़ी बेरिया’ में जब वो लिखते हैं
                       
.... उनके प्रेम में जीवन भर अभिभूत
मां सी बेरिया  
रख ही  नहीं पाती याद
बच्चों ने उस पर
कब कितने
पत्थर उछाले

      पुरूष और उस प्रकार अन्य कविताओं को तो यह कोई एक संवेदनशील युवा कवि की अपनी परम्पराओं से जुड़ी बेहद -सहज सी अभिव्यक्ति है जो हिन्दी के लगभग सभी युवा कवियों में बिना किसी विशेष प्रयास के खोजी जा सकती है । लेकिन इसी संकलन के एकदम आखिरी हिस्से में आयी कविता टाईपिस्टबिल्कुल चौंका सी देती है। एक असजग पहला पाठ आपकेा वितृष्णा से भर सकता है लेकिन ज्योंही आप इसे सजगता के साथ दुबारा -तिबारा पढ़ते हैं इसकी व्यंजना बदलने लगती है और यह साफ होने लगता है कि कवि कैशोर्य से युवपन की तरफ ही नहीं बड़ा है बल्कि धीरे -धीरे प्रौढ़ में तब्दील हो रहा है । दफ्तर के भीतर टाईपिस्ट, पीए जैसे पदों पर काम करने वाली महिलाओं को लेकर जो एक आम सी छवि बनी हुई है यह कविता इसे स्थापित नहीं करती बल्कि पुरूष समाज की पूरी लंपटता को समाने उघाड़कर रख देती है। यूं ही नहीं कि पूरी कविता में टाईपिस्ट स्त्री कुछ नहीं कहती या करती लेकिन दफ्तर के हर पुरूष के लिए वह एक ड्रीम अब्जेक्टहै, एक आसान शिकार जिसे हर कोई पा लेना चाहता है । स्त्री मेरे भीतरतक आते-आते यह और ज्यादा विविध रूपों में सामने आता है । उनकी एक कविता मगर यह तो बताओं’ अक्सर आलोचकों की नजर पड़ने से बची रही है। लेकिन जब में इसे टाईपिस्टसे जोडकर देखता हूं तो यह पुरूष लंपटता के जेनरलाइलेशनसे पर्टीकुलराइजेशनतक की यात्रा लगती है जहां ब्लैंक काल्स से परेशान पत्नी को सांत्वना देने के साथ पति यह पूछना नहीं भूलता मगर यह तो बताओ/उसने टेलीफोन पर तुमसे कहा क्या –क्या?’ यहां तक आते- आते आपका मन बिल्कुल वितृष्णा से भर जाता है । स्त्री को लेकर पुरूष के अंतर्मन में जो एक भोग्या वाली छवि गहरे तक पैठी हुई है, पवन उसे कुरेद के आपके सामने लाते है। लेकिन ठीक यही उनकी ‘स्तन’ नामक कविता के लिए कह पाना मुश्किल लगता है. कैंसर जैसी बीमारी से गुज़र कर आई पत्नी को प्रेम करने वाला कोई पति उस पीड़ा की स्मृति से कैसे मुक्त हो सकता है? कैसे वह उस पीड़ा से मुक्त होने के आह्लाद की जगह स्तन की अनुपस्थिति का शोक मना सकता है? इसे पति की अमानवीयता और पुरुष की दृष्टि को उभाड़ने वाली कविता की तरह पढ़ा जा सकता था, बशर्ते यह किसी एक महिला को समर्पित नहीं होती और इसमें उस महिला को भी स्तन खोने से इस लिए दुखी न दिखाया गया होता कि उसका पति अब उस ‘दशहरी आम’ के स्वाद से महरूम हो जाएगा. स्तन के लिए जिस तरह के उपमान यहाँ उपयोग किये गए हैं वे कैंसर की पृष्ठभूमि में वितृष्णा पैदा करने वाले हैं.   

दरअसल, बिना  परकाया प्रवेश के लिखी गई पवन की कविताएं एक स्त्री विरोधी समाज में पुरुषों के बीच रहते हुए स्त्री के पक्ष में खड़े कवि की मुसलसल कशमकश और जद्दोजेहद की कविताएं है। अपने कई अन्य समकालीन कवियों से उलट इस जद्दोजेहद में पवन करण का हथियार विचार नहीं संवेदना है। यही वजह है कि उनकी कविताएं अक्सर काफी लम्बी, कथोपकथन शैली में लिखी हुई हैं जहां वाक्य सीधे -सीधे और पूरे है। यही नहीं कविताओं के अंत भी कई बार बिल्कुल अचानक से आ गये लगते है - जैसे कवि खुद तय न कर पा रहा हो। जाहिर है इस कशमकश में जीतने वाला हर बार पवन करण का भीतर की स्त्री का प्रतिनिधि नहीं होता । उदाहरण के लिए स्पर्ष जो किसी और को सौंपना चाहती थी वहएक गहरी संवेदना की कविता है। पूरे कविता पढ़ते -पढ़ते जैसे आप घरेलू यौन शोषण की शिकार उस लड़की के दर्द को अपने भीतर गहरे महसूसते हुए उदास हो जाते है लेकिन इसका अंत अचानक से आपको चौंका देता है जब कवि लिखता है कि वह स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह उस पर फेर गया अपनी खुरदुरी उंगलियां। पूरी समस्या शादी के पहले कौमार्य भंग की पीड़ा में सरलीकृत हो जाती है। मैने पहले भी इसका जिक्र किया था कि देह की आजादी की आवाज बुलन्द करने वाली भीतर की स्त्री के सामने पति को अनछुई देह न सौंप पाने की पीड़ा से ग्रस्त यह बाहर की स्त्री कितनी अजीब बिडम्बना उत्पन्न करती है।

लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। जैसे दरअसल उसे समझना खुद को समझना है एक बेहद ईमानदार कविता है जहां वह कह पाते हैं कि

एक बात बताओ जीवन के इस सबसे रंगीन रास्ते पर
जिस पर एक स्त्री का भी उतना ही हक जितना हमारा,
चलते हुए हम
यह जानने की कोशिश क्यूं नहीं करते
एक स्त्री आखिर कैसा पुरूष चाहती है।

और बुरका‘ ‘सवारा‘, विश्वपलाजैसी कविताओं में धर्म तथा परंपराओं से सीधी होड़ ही नहीं लेते बल्कि धल ही में हंसमें प्रकाशित मेजर सरोजा कुमारी में तो साफ-साफ कहते हैं
     
सरोजा कुमारी तुम्हें नहीं पता गोल्डमेडल
तुम्हारे गले में कितना फबता है
तुम्हारे गले में झूलते हुए उसे सब देखना चाहते हैं
क्योंकि तुमने गोल्डमेडल को खुद जीता है
और मंगलसूत्र है कि उसे तुम्हें पहनाया गया है।

यह साफ तौर पर उस जद्दोजेहद में विचार का प्रवेश है बिना किसी हो हल्ले के और यह कवि के प्रौढ़ होते जाने का सबूत भी ।

(पांच)

वैसे तो इस आलेख में मैने खुद को पवन करण की स्त्री विषयक कविताओं तक ही सीमित रखने का प्रयास किया है लेकिन स्त्री मेरे भीतरकी ही एक कविता को शामिल किए बिना यह आलेख अधूरा रह जायेगा । जो पहली नजर में भले ही स्त्री विषयक लगे लेकिन उसका फलक इस सीमा से काफी बाहर तक विस्तृत है। तुम जिसे प्रेम कर रही हो इन दिनोंकी शुरूआत  ही यहां से होती है। ‘तुम्हें पता है, इन दिनों तुम जिसे प्रेम कर रही हो उसकी जाति क्या है’ और इसी के साथ कविता प्रेम या स्त्री जैसी सीमाओं को तोड़कर व्यापक सामाजिक परिवेश में प्रवेश करती है। अपनी जाति को लेकर प्रेमी का ग्लानिबोध और सवर्ण प्रेमिका के भावबोध में गहरा धंसा जातीय अभिमान एक बड़ी व्यंजना रचता है।

प्रेम के उन्माद के बीच जाति का देश जैसे उस पूरे परिवेश में एक असुविधाजनक प्रश्न  बनकर खड़ा हो जाता हे। यहां प्रेम अपनी स्वंतत्र अस्मिता देता है ओैर एक जाति विभक्त समाज में विद्रोह की जगह एक समझौता लगने लगता है जिसके अनुबंधो में जाति शामिल है।

क्या होता है इससे जो उसके लिए तुम अपना
सबकुछ लुटाने और वह तुम्हारे लिए
गर्दन कटाने तैयार हो
गर्दन कट सकती है, पहचान नहीं


यह एक सजग राजनीतिक कवि का बयान है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विचारों के प्रवेश की यह परिघटना किसी फौरी प्रतिक्रया की जगह एक दीर्घकालिक परिपक्व काव्य संवेदना में परिवर्तित होगी. पवन करण को पढ़ते हुए जो एक बात जो हमेशा सामने आती है वह यह कि पवन अनुभवों और संवेदनाओं के कवि है। विचार उनकी कविताओं में संवेदना के सहारे आते है इसीलिए ये कविताएं पाठक के भीतर प्रवेश करती है। साथ ही कई बार कविताओं में वह
कंसिस्टेन्सीनहीं दिखती जो कवि के विचारधारात्मक स्रोत का पता देती है। यह उनकी ताकत भी है और सीमा भी । दूसरी जो बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है ओैर समकालीन कविता में अलग चेहरा देती है वह है अनजाने क्षेत्रो में बेधड़क प्रवेश का उनका माद्दा । इस दुस्साहसमें कभी वह चट्टानों से टकराकर चोटिल होते है, कभी अंधेरी सुरंगो में भटकते हैं तो कभी समुद्रतल से कोई अलौलिक मणि ढूंढ लाते है। निश्चित तौर पर समय के साथ-साथ यह यात्री और अनुभवी होगा । लेकिन खतरा दुस्साहसोंसे थककर जाने पहचाने रास्तों पर कदमताल का भी है अगर पवन इससे बच पाये तो अच्छे से बड़े कवि की यात्रा निश्चित तौर पर पूरी होगी

टिप्पणियाँ

Shyam Bihari Shyamal ने कहा…
वाह.. आनंद आया प्रिय रचनाकार पवन करण को इस तरह पूरा 'देख' पाने के बाद। प्रभावशाली आकलन के लिए बधाई अशोक जी..
पवन करण की स्‍त्री विषयक कविताओं को लेकर इधर जो गंभीर विवेचन सामने आया है और उसके दबाव में उनकी रचनाशीलता पर जिस तरह संदेह किया जाने लगा है, ऐसे समय में उनकी कविताओं पर एक समग्र दृष्टिकोण का आग्रह उचित है। मैंने पवन की सारी कविताओं को पढा है, उनमें कई तरह की अतियां और अन्‍तर्विरोध दिखाई देते हैं, स्‍त्री प्रश्‍नों पर उनकी नीयत बेशक सही हो, उनका पाठ बहुत सी असावधानियों और विचलन का आभास देता है। मां-बेटी पर संवेदनशील कविताएं लिखने वाला जब स्‍त्री देह पर कविता लिखता है तो वह वही नहीं रह जाता। उनकी कविताओं के बारे अशोक कुमार पाण्‍डेय ने संतुलित नजरिया अपनाते हुए उन्‍हें धैर्य से समझने का सुझाव दिया है। मैं उनके इस विवेचन से सहमत हूं कि " एक पुरूष के लिये भावना के तीव्र क्षणों में तो अपने स्व से मुक्ति संभव है परंतु इससे निरंतर मुक्त रह पाने के लिए जो वैचारिक आधार चाहिए वह पवन करण में नहीं दिखाई देता ।" अशोकजी को इस संतुलित विवेचन के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
prabhat ranjan ने कहा…
पवन करण की कविताओं पर इतनी सम्यक टिप्पणी मैंने नहीं पढ़ी थी. आपके इस लेख को पढकर उनकी कविताओं को देखने की एक नई दृष्टि मिली.
Unknown ने कहा…
पवन भाई की कविताओं पर बहुत संतुलित दृष्टि से लिखा है अशोक आपने। पवन की कविताओं में कई जगह अंतर्विरोध हैं, लेकिन उनकी ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता। आपने सही कहा कि वे बेहद संवेदनशील और दृष्टिसंपन्‍न कवि हैं और उनका कवि उत्‍तरोत्‍तर विकास कर रहा है। इस स्‍तरीय आकलन के लिए आपको बधाई।
Onkar ने कहा…
बहुत सटीक आकलन
डूबकर लिखा है आपने ..हर कवि यही चाहेगा , कि उसे आप जैसा आलोचक मिले | बधाई आपको |
मृत्युंजय ने कहा…
बढ़िया. तो आपका कहना यह है कि पवन करण किन्हीं खास संवेदनात्मक क्षणों में परकाया प्रवेश कर पाते हैं और किन्हीं में नहीं. दो तरह की कवितायें निश्चय ही संभव हैं पर वह एक ही कवि मानस की पैदावार होने के नाते आपस में एक गहरी अन्तः क्रिया भी करती होंगीं. मुझे लगता है कि इन दोनों तरह की कविताओं को मिलाकर स्त्री के बारे में पवन जी जो मुकम्मल ख्याल रखते हैं, उस पर थोड़े और विस्तार की जरूरत थी. यह भी कि 'स्त्री मेरे भीतर' शीर्षक भी गौर करने का है. एक नामाकूल और गैर-वाजिब सा सवाल यह भी कि स्त्री अस्मिता के भीतर किस तबके की स्त्रियाँ और उनके दुःख पवन करण की स्त्री अभिव्यक्त करती है? तीसरे यह कि संवेदन और ज्ञान के द्वंद्वात्मक खेल के बगैर उनकी कविता उलझ-उलझ जाती है. शायद यूं देखना ठीक न हो पर फिर भी....
अपर्णा मनोज ने कहा…
पवन करण की काव्य यात्रा का ईमानदार आकलन..
Mahesh Chandra Punetha ने कहा…
बेहद संतुलित और बेवाक समीक्षा. इस तरह की समीक्षा आज के दौर में लगभग नहीं के बराबर पढ़ने को मिलती है. ....मैं तो कायल हूँ अशोक भाई की साफगोई का.....मुझ में नहीं इतना साहस.......
Ashok Kumar pandey ने कहा…
मृत्युंजय भाई, सवाल बिलकुल वाजिब है. यह तो है ही बूढी बेरिया जैसी कविताओं को छोड़ दें तो पवन करण की स्त्रियाँ मध्यवर्गीय स्त्रियाँ ही हैं.संवेदन और ज्ञान के द्वंद्वात्मक खेल के बगैर उनकी कविता के उलझने की जो बात आपने की है, उसी के मद्देनजर मैंने लिखा था कि उनमें वह वैचारिक आधार नहीं. वह संवेदना के सहारे लिखते हैं...ज़ाहिर है ऐसे में उलझने तो आएँगी
आनंद ने कहा…
मैंने चूँकि श्री करण जी को नहीं पढ़ा है इसलिए उनके लेखन को लेकर मेरा ज्ञान केवल इतना ही है जितना अशोक जी के इस विस्तृत और बेहद संतुलित लेख से मुझे मिला है |
पहली उपलब्धता/अवसर/संयोग मिलते ही पवन जी को पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई है |
भाई अशोक को एक कवि का नीर क्षीर मूल्यांकन करने के लिये बधाई !

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