सोफे पर ढहे हुए मेरे वीर सूरमा - अनूप सेठी की एक कविता
भाई अनूप सेठी ने यह कविता अपने संग्रह से भेजी थी, इस टीप के साथ कि 'अभी अपने संग्रह की कविताएं किसी काम से देख रहा था तो इस कविता पर अटक गया. और आप दोनों का ख्याल आया. पता नहीं आपने इसे पहले पढ़ा है या नहीं. नहीं, तो जरा पढ़ के देखिए' - मेरे साथ इसे अजेय को भी भेजा गया था. ज़ाहिर है वह हम 'तीसे की उमरों' वालों को उसी उम्र में लिखी गयी यह कविता पढ़वाना चाह रहे थे...शायद सावधान भी करना चाह रहे थे. आप भी पढ़िए ...
कमरे की लोरी
खोल किवाड़ चौड़ चपाट
चिढ़ाएगा कमरा
आओ बरखुरदार कौन सी फतह करके आ रहे हो
मार लिए क्या तीर दो चार
जो बदहाली का आलम ले लौटे हो
यार जलाओ बत्ती मजनू
खोलो खिड़की रोशनदान
माना खप के आए हो
मैं भी दिन भर घुटा घुटा सा
पिचा हुआ
अंबर का टुकड़ा ढूंढ रहा हूं
तुम ऐसे तीसे की उमरों में
पस्त हुए सोफे पर ढह जाओगे
मेरी दीवारों को शैल्फों को
बस सूना ही सूना रखोगे
साल में एक कैलेंडर से क्या होता है
जब पंहुचोगे साठे में तो
क्या होगा पास तुम्हारे
बीसे की तीसे की है कोई गांठ बटोरी
आंच से बलगम की सांस चलाकर
तीरों के तुक्कों के क्या गूदड़ खोलोगे
मेरी भी दीवारों के बूरे में
रंग ढिसल रहे हैं
तब मेरे अकड़ रहे कब्जों में
घिसी हुई सी ठुमरी बोलेगी
भग आए थे पिता तुम्हारे
गोरी फौजों को छोड़
एक ढलान में घेरा पानी
मेरे रोम रोम में
मक्की की गेंहूं की गंध बसी है
तेल की घानी में चिकनाई है कब्जे की ठुमरी
सोफे पर ढहे हुए मेरे वीर सूरमा
कहां गया वो संकल्प तुम्हारा
आटे की पर्तों को झाड़ोगे
इतिहास रचोगे नया सयाना
दीवारों पर टांगोगे नई रवायत
उठो-उठो मेरे थके सिपाही
खाली दीवारें सूनी आंखें तकती हैं
यह मत मानो
कभी नूतनता की फौजे थकती हैं
चौड़ चपाट है खुला कपाट
(1986)
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