रुपाली सिन्हा की कवितायें


रूपाली सिन्हा से मेरा परिचय कालेज के दिनों का है. हमने एक छात्र संगठन में काम किया है, न जाने कितनी बहसें की हैं, लडाइयां लड़ी हैं और इस डेढ़ दशक से भी लम्बे दौर में शहर दर शहर भटकते हुए भी दोस्त रहे हैं. रूपाली की कवितायेँ एकदम शुरूआती दौर से ही सुनी हैं. गोरखपुर स्कूल के अन्य कवि मित्रों की तरह ही उनका जोर लिखने पर कम और छपवाने पर बिलकुल नहीं रहा है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. मुझे कई वर्षों की लड़ाइयों के बाद अचानक जब कुछ दिनों पहले ये कवितायेँ मिलीं तो सुखद आश्चर्य हुआ
रूपाली अपने मूल स्वभाव से एक्टिविस्ट हैं. कालेज के दिनों से लेकर अब तक वह लगातार संगठनों से जुडी रही हैं और संघर्षों की भागीदार रही हैं. विचार उसके लिए किताबों में पढने और लिखने वाली चीज नहीं, बल्कि बतौर भगत सिंह - तौर-ए-ज़िन्दगी हैं, तो ज़ाहिर है कि एक कशमकश, एक द्वंद्व लगातार उन्हें मथता रहता है. एक औरत होने के नाते ये सवाल कई-कई स्तर पर और गहराते जाते हैं. ये कवितायें पढ़ते हुए आप उसी कशमकश से गुजरेंगे.

तुमने कहा 

तुमने कहा - विश्वास  
मैंने सिर्फ तुम पर विश्वास  किया

तुमने कहा - वफ़ा
मैंने ताउम्र वफादारी निभायी 

तुमने कहा - प्यार
मैंने टूट कर तुम्हे प्यार किया

मैंने कहा - हक़ 
तुमने कहा -सबकुछ तुम्हारा ही है

मैंने कहा -मान 
तुमने कहा - अपनों में मान-अपमान क्या?

मैंने कहा - बराबरी 
तुमने कहा - मुझसे बराबरी?

मैंने कहा -आज़ादी 
तुमने कहा - जाओ 
मैंने तुम्हें  सदा के लिए मुक्त किया!

क्या करूँ इस पुकार का...

मैं ज्वालामुखी हूँ
लेकिन फूट नहीं सकती
पर अन्दर उबलते इस लावे का क्या करूँ?

सोचती हूँ किसी रेगिस्तान में जाकर
चीख-चीख कर उड़ेल  दूं सबकुछ 
दहकता रेगिस्तान मेरी आग को भी 
ले लेगा अपने आगोश में
उसका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा

या चढ़ जाऊं किसी ऊँचे शिखर पर 
और आकाश को सुना आऊँ  अपनी व्यथा
पहुँच जाऊं किसी घने जंगल में 
किसी बूढ़े वट -वृक्ष के सामने
खोल दूं अपना दिल

या डुबकी लगा दूं किसी सागर में 
गर्त में पहुँच कर
सागर से कहूं
लहरों के साथ अठखेलियाँ छोड़
सुनो मेरी कथा 

कहाँ जाऊं क्या करूँ
रेगिस्तान... जंगल... पहाड़... समुद्र
कुछ तो बताओ
कोई तो पुकारो!

पीठ पर बंधा घर 


पीठ पर घर बांधे वे हर जगह मौजूद होती हैं 

कभी-कभी उसे उतारकर कमर सीधी  करती 
हंसती हैं खिलखिलाती हैं बोलती बतियाती हैं 
लेकिन जल्द ही घेर लेता है अपराधबोध 

उसी क्षण झुकती हैं वे 
घर को उठाती हैं  पीठ पर हो जाती हैं फिर से दोहरी 

इक्कीसवीं सदी में उनकी दुनिया का विस्तार हुआ है 
वे सभाओं मीटिंगों प्रदर्शनों में भाग लेती हैं 
वे मंच से भाषण देती हैं, उडती हैं अंतरिक्ष में 
हर जगह सवार होता है 
घर उनकी पीठ पर 

इस बोझ की इस कदर आदत हो गयी है उन्हें 
इसे उतारते ही पाती हैं खुद को अधूरी 

कभी कभार बिरले ही मिलती है कोई 
खाली होती है जिसकी पीठ 
तन जाती हैं न जाने कितनी भृकुटियाँ 

खाली पीठ स्त्री 
अक्सर स्त्रियों को भी नहीं सुहातीं 
आती है उनके चरित्र से संदेह की बू 
कभी-कभी वे दे जाती हैं घनी ईर्ष्या भी 

इस बोझ को उठाये उठाये 
कब झुक जाती है उनकी रीढ़ 
उन्हें इल्म ही नहीं होता 
वे भूल जाती हैं तन कर खड़ी  होना 
जब कभी ऐसी इच्छा जगती भी है 
रीढ़ की हड्डी दे जाती है जवाब 
या पीठ पर पड़ा बोझ 
चिपक जाता है विक्रम के बेताल की तरह 

और इसे अपनी नियति मान 
झुक जाती हैं सदा के लिए

नयी राहें 

मुझे सिखाया गया 
अपनी राह खुद चुनना 
और अपने चुने हुए रास्ते पर चलना सो मैंने रास्ता चुना और चलने लगी

काफी दूर चलने के बाद 
मैंने देखा लिखा था 
"आगे रास्ता बंद है"

ठिठककर सोचती रही मै 
आगे बढ़ कर चुन ली दूसरी राह 
और चलने लगी 

कुछ दूर चलने पर देखा लिखा था 
"टेक डाइवर्जन"

मजबूर थी मुड़ने को मैं  
मुड़कर चलती गयी 

जब पहला पड़ाव आया 
तो लगा रास्ता कुछ अनजान अपरिचित सा है 
गौर से देखा तो पाया 
यह रास्ता तो मेरा था ही नहीं 

पर मुमकिन नहीं था लौटना अब 
उम्र के कई पड़ाव बीत चुके थे 
इस बदलने चलने में  सो 
संतोषम परम सुखं का मंत्र 
दोहरा लिया  मन ही मन 
पर आत्मा में कोई टीस उभरती रही 
......

मेरे जैसे कितने ही लोग 
जीवन की यात्रा में 
ज़रा बांये ज़रा दाए मुड़ने को 
रास्ते बदलने को 
मजबूर होते रहते हैं 

अचानक मेरे मन ने सवाल किया 
अगर हटा दी जाएँ वे तमाम तख्तियां 
जिन पर लिखा है "रास्ता बंद है" या 
" टेक डाइवर्जन" तो क्या होगा?

कोई शक नहीं कि इन प्रतिबंधित रास्तों पर चलना 
खतरनाक हो सकता है 
लेकिन ये भी तो हो सकता है कि 
सचमुच आगे रास्ता हो ही न 
बनानी पड़े नयी राह 

बेहतर है यह 
जीवन की राह पर थके-हारे 
निर्लिप्त भाव से चलते जाने से 
तमाम ताकीदों से आज़ाद 
नयी राहें ऐसी हों 
जिनपर सब चल पायें 
किसी को जबरन मुड़ने या रुकने को मजबूर न करें।



ये औरतें 

अँधेरे की संस्कृति में रहती हुई 

मर्दों से कहीं भी पीछे नहीं

श्रम का पसीना बराबर बहातीं
ये औरतें 

सभ्यता की दुनिया से दूर 
मर्दों के कंधे से कन्धा मिलाकर चलती
 ये औरतें

ज़ुल्म नहीं सहतीं 
तुरत-फुरत निपटातीं  मसले 
अगले दिन पर नहीं छोड़तीं 
रोज़ जीतीं हैं एक पूरा जीवन
ये औरतें.


*रूपाली सिन्हा दिल्ली के  एक प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में हिंदी पढ़ाती हैं और 'स्त्री मुक्ति संगठन' से जुड़ी  हुई हैं.

टिप्पणियाँ

Santosh ने कहा…
"तमने कहा " और "पीठ पर बंधा घर" ..कविताओं से विशेष तौर पर प्रभावित किया ! स्त्री विमर्श के हालिया ट्रेंड पे चलती हुई हैं रुपाली जी की कविताएँ ! उन्हें बधाई और असुविधा का आभार !
mukti ने कहा…
रूपाली दी से मेरा परिचय भी बारह साल पुराना है, जब हम 'स्त्री मुक्ति' के पहले वर्कशॉप में मिले थे दिल्ली में...उनकी एक-दो कविताएँ उनके मुँह से ही सुनी थीं, पर इतने विस्तार से पहली बात पढ़ना हुआ.
बड़ी अपनी-अपनी सी लगीं ये कविताएँ. एक-दो कविताएँ तो ठीक वैसी ही हैं, जैसी मैंने लिखी हैं, जैसे अपने ही दिल की बात शब्दों के थोड़े हेर-फेर से कह दी गयी हो. मुझे लगता है कि 'अपनी राह खुद चुनने वाली' सभी औरतों के मन में एक जैसे ख़याल आते हैं.
शंभू यादव ने कहा…
कोई शक नहीं कि इन प्रतिबंधित रास्तों पर चलना
खतरनाक हो सकता है
लेकिन ये भी तो हो सकता है कि
सचमुच आगे रास्ता हो ही न
बनानी पड़े नयी राह .....बैगर किसी उलटबांस घालमेल के अपनी बात को - साफ़ - साफ़ कहती सुंदर कविताएँ ...पढवाने के लिए आभार
ashok singh ने कहा…
'असुविधा के लिए खेद है'अक्सरपढने के लिए मिलता है .पर यहाँ असुविधा को धन्यवाद .'कविता'और 'सरोकार 'रुपाली जी की कविताओं में साथ -साथ चलते हुए मिले.उन्हें बधाई .
दीपिका रानी ने कहा…
बहुत खूबसूरत कविताएं... खासकर पीठ पर बंधा घर
रामजी तिवारी ने कहा…
अच्छी कवितायेँ ...सहजता से अपनी बात कहती हुयी ...
Vipin Choudhary ने कहा…
ज़ुल्म नहीं सहतीं
तुरत-फुरत निपटातीं मसले
अगले दिन पर नहीं छोड़तीं
रोज़ जीतीं हैं एक पूरा जीवन
ये औरतें.
Digamber ने कहा…
सहज सुन्दर सच जैसी कवितायेँ, बधाई रुपाली.धन्यवाद अशोक.
Digamber ने कहा…
सहज सुन्दर सच जैसी कवितायेँ, बधाई रुपाली.धन्यवाद अशोक.
vandana gupta ने कहा…
रुपाली जी की हर कविता बेजोड और सोचने को विवश करती हुई………आभार पढवाने के लिये।
travel ufo ने कहा…
बहुत ही सुंदर कवितायें
विजय गौड़ ने कहा…
अच्छी कविताएं हैं। बहुत बहुत आभार अशोक इन्हें पढ़वाने के लिए।
अनिल जनविजय ने कहा…
सभी कविताएँ बेहद अच्छी लगीं। इनकी कुछ और कविताएँ पढ़वाइए अशोक जी। मैंने पूरा गूगल छान मारा। इन पाँच कविताओं के अलावा कुछ नहीं मिला।
shiv shmbhu Verma ने कहा…
असुविधा को धन्यवाद रूपाली सिन्हा जी को भी ,, नारी मुक्ति की न्यायोचित छट्पटाहट के भाव की कविताये अच्छी लगी । पुन: धन्यवाद ।
अरुण अवध ने कहा…
बहुत अच्छी कवितायेँ ! भावों के गोपन गुम्फन और अमूर्तन से दूर बिलकुल साफ़ ,निखरी हुई ये कवितायेँ कवि की वैचारिक स्पष्टता की गवाह हैं !रूपाली को बहुत बहुत बधाई ! आशा है उनकी ढेरों रचनाएँ हमें पढ़ने को मिलेंगी !आभार साथी अशोक !
lokmitr gautam ने कहा…
kavitayen wakayee achhi lagin visheshkar peeth me bandha ghar itnee badhiya kavitaen padhwane ke liye ashok jee aapko dhnywad aur rupali jee ko bahut bahut badhayee
Amit sharma upmanyu ने कहा…
पहली कविता बहुत पसंद आई.
अजेय ने कहा…
अच्छी कविताएं आप के अन्दर एक कवि को जिलाये रखती हैं . आभार .
इतनी सरलता और सहजता से अपनी बात कह जाना ही सचमुच कविता है। और रूपाली की इन कविताओं में यह बात गहरे तक है। यह सच होगा कि वे स्‍त्री विमर्श के आंदोलन से जुड़ी हैं, पर क्‍या उनकी कविताओं को बिना इस चश्‍मे के नहीं देखा जा सकता।
Onkar ने कहा…
बेहतरीन कवितायेँ
Nidhi ने कहा…
बहुत अच्छी लगीं,कवितायें...रूपाली को बधाई
Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…
हर कविता का मर्म इतना खूबसूरत है कि तारीफ़ लिखने के लिए शब्द भी कम पड़ जाएंगे ...बेहद सटीक भाव से लिखी गई कविताएँ
Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…
असुविधा से जुडने के लिए क्या करना होगा....कृपया इस mail id पे सूचित करे


anuradhagugnani40@gmail.com
virendra sharma ने कहा…


पीठ पर घर बांधे वे हर जगह मौजूद होती हैं

कभी-कभी उसे उतारकर कमर सीधी करती
हंसती हैं खिलखिलाती हैं बोलती बतियाती हैं
लेकिन जल्द ही घेर लेता है अपराधबोध

उसी क्षण झुकती हैं वे
घर को उठाती हैं पीठ पर हो जाती हैं फिर से दोहरी

इक्कीसवीं सदी में उनकी दुनिया का विस्तार हुआ है
वे सभाओं मीटिंगों प्रदर्शनों में भाग लेती हैं
वे मंच से भाषण देती हैं, उडती हैं अंतरिक्ष में
हर जगह सवार होता है
घर उनकी पीठ पर

इस बोझ की इस कदर आदत हो गयी है उन्हें
इसे उतारते ही पाती हैं खुद को अधूरी

कभी कभार बिरले ही मिलती है कोई
खाली होती है जिसकी पीठ
तन जाती हैं न जाने कितनी भृकुटियाँ

खाली पीठ स्त्री
अक्सर स्त्रियों को भी नहीं सुहातीं
आती है उनके चरित्र से संदेह की बू
कभी-कभी वे दे जाती हैं घनी ईर्ष्या भी

इस बोझ को उठाये उठाये
कब झुक जाती है उनकी रीढ़
उन्हें इल्म ही नहीं होता
वे भूल जाती हैं तन कर खड़ी होना
जब कभी ऐसी इच्छा जगती भी है
रीढ़ की हड्डी दे जाती है जवाब
या पीठ पर पड़ा बोझ
चिपक जाता है विक्रम के बेताल की तरह

और इसे अपनी नियति मान
झुक जाती हैं सदा के लिए

स्त्री विमर्श पर इस दौर की मर्म स्पर्शी रचना .घर के लिए जीती औरत ,घर में कहीं नहीं होती .अस्तित्व हीन यही उसकी नियति .सहर्ष स्वीकार ,निर्विकार भाव .
Unknown ने कहा…
मैंने एक स्त्री की जिंदगी जी है
रुपाली सिन्हा ने कहा…
kavitayen padhne ke liye aap sabhi ka shukriya:)
ज्वलंत और पैना लेखन !
ANULATA RAJ NAIR ने कहा…
बहुत सुन्दर....
बेहतरीन रचनाएँ...
सभी एक से बढ़ कर एक.....

आभार..

अनु
Saras ने कहा…
वाह ...वाह ...और सिर्फ वाह ...इसके आगे नि:शब्द हूँ....अपनी और रचनायें दीजिये रुपालीजी...आपको और पढ़ने का मन है ...!!!
Daddu ने कहा…
बढ़िया कविताये..कई बार पढ़ी और अब इन स्वरों को खुलकर सुनने का मन कर रहा हैं. तुमने कहा विशेष तौर पर ..भावो के साथ बंधे हुए सम्बन्ध और उनका एकांकीपन बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया हैं.

असुविधा को धन्यवाद.
Pranjal Dhar ने कहा…
behad umda kavitaayen...
meri badhaaiyan.
saadar,
Pranjal Dhar
बेनामी ने कहा…
An excellent post, providing something good to read,it's just good to came across the post on hand sets and its features.
Madan Mohan Saxena ने कहा…
बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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