गाज़ा में सुबह - मृत्युंजय की ताज़ा कविता


गाज़ा में युद्धविराम हो गया है पिछले कुछ दशकों में वहाँ इस युद्ध और विराम की इतनी (दुर) घटनाएं हुई हैं कि अब न तो युद्ध से वह दहशत पैदा होती है न विराम से वह सुकून, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि एक मुसलसल दहशत बनी ही रहती है। नोबेल शान्ति से सम्मानित विश्व-साम्राज्यवाद का नायक नागरिक इलाकों में ज़ारी हत्या की इस  सबसे क्रूरतम कार्यवाही का स्वागत करता है तो  हमारे देश सहित दुनिया भर के  सत्ता-समाज की चुप्पी भी दरअसल इसका स्वागत ही है। ऐसे में शायद कविता वह अकेली जगह है जहाँ प्रतिरोध की संभावना बची है और हिंदी कविता में फैज़ से लेकर अब तक यह बात  बार-बार सामने आई है। मृत्युंजय की यह कविता प्रतिरोध की उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। यह कविता गाज़ा की सुबहों में मौत के अँधेरे उतारती  ताकतों की पहचान करने के क्रम में युद्ध की भयावहता ही नहीं शान्ति के समय में चलती युद्ध की तैयारियों के पीछे के पूरे खेल की भी निशानदेही करती है और साम्राज्यवाद के पंजों में क़ैद उम्मीदों के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता के साथ खडी होती है। 






(1)


गाज़ा में सुबह
अंगूर के गुच्छों पर फिसलती, लड़खड़ाती उतरती है 
और फलस्तीन के अड़ियल सपने पर दम तोड़ देती है

गाज़ा में घुसने के सारे रास्तों पर मौत के हजार आईने हैं
जिनकी छांह के सहारे
तनिक भी ऊंची दिखती पतंगों की डोर काट दी जाती है

शार्क मछलियों की तरह क्रूर पनडुब्बियाँ
समुंदर की खोह से निकलती हैं और
चट कर जाती है मानुषों से भरा पूरा तट  

(2)


मर्डोकी स्याही की उलटियों में डूब रहा है विश्व
बारूद की नदी में अंतिम हिचकोले ले रही सांस
की ऊभ-चूभ से छटपटा रहे जन  के    
मांस के लोथ छिटकते हैं पूरी सभ्यता की खाल
उतारते चलते जाते हैं दुनिया के राजा-रानी बाजा दिग्विजय का
बजाते सजाते हैं लम्बी दूर मार की मिसाइलें
फाइलें सरकती गाजा में दाखिल है भीषणतम आग

(3)

हवा, पानी, सूरज
जब कुछ भी साथ न दे तब भी साथ देती है मिट्टी
इसी मिट्टी में एक सुरंग खोदना चाहते हैं लोग
जिसमें रोज-रोज दफनाये जा सकें मुर्दे
जाया जा सके रमल्ला, वेस्ट बैंक या कहीं भी   
बूढ़े नमाजी मरसिया पढ़ सकें सुकून से
खून से लतफथ जवान कुछ देर सांस लें बिना बारूद के
और मिट्टी से फूट पड़े बगावती शांति की नोक  

(4)

तीन सौ पैंसठ वर्ग किलोमीटर है गाज़ा
हर रोज लगभग एक वर्ग किलोमीटर की कुर्बानी

यू एन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, विश्वबैंक
के जल्लाद हाथों धारदार छुरी है इजरायल 
पृथ्वी के जख्मों को कुरेदते हैं अमरीकी 
और पपड़ियों पर उकेर देते हैं डॉलर के निशान

(5)

नींद और मौत की जुगलबंदी में
अक्सरहां जीत जाती है मौत
रात एक दर्द का ग्रेनेड है जिसकी
पिन धीरे-धीरे निकालती है नींद
कभी नींद जीतती है तो
सपनों से भिड़ जाती हैं छटपटाहटें
देश के मृत टुकड़े भड़भड़ा कर
गिरते हैं आँखों में धँसते हैं

(6)

रात बारूद के शोरबे में छनी मिठाई है मेरे बच्चे                
जो तुम्हारी अंतड़ियों में उतर जायेगी वेग से
तुम्हें कुछ भी महसूस करने की जरूरत और फुर्सत नहीं होगी  
सो जा

बम का जवाब बम से नहीं दिया जाता बच्चे
पर तुम अपनी किताब में छपे बम को
चिपका सकते हो अपनी दीवार पर अगर तुम यही चाहते हो
इस बचे-खुचे मुल्क में तुम्हारे लायक अकेला काम बचा है यह

सोने से पहले बुदबुदाओ इन्तिफ़ादा इन्तिफ़ादा और सोचो   
तुम एक मजबूत कम्बल में हो जिसे खुदा भी नहीं भेद सकता
क़यामत के रोज तलक  

(7)

हिब्रू एक भाषा का नाम है जिसके शब्द सुलग रहे हैं
भाषा की रसोईयों से उठती बारूदी गंध थालियों में पसर रही है
हस्पतालों के अहाते में डॉक्टर शरीर को चोंगे की तरह टांग कर घूम रहे हैं
स्कूलों में बच्चों और अध्यापिकाओं के अधूरे टुकड़े हाजिर आए हैं
खून के थक्के सूख कर सड़कों के रंग में जज्ब हो रहे हैं
हवा के लम्स-लम्स में वहशियत थम रही है  
जिंदगी जम रही है

(8)

जैतून की टहनियों की मानिंद महकती शांति  
हर बार लाती है अगली कब्रों की तैयारी के लिए थोड़ा वक्त
युद्ध से ज्यादा ही होते हैं इस वक्त के काम

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मृत्युंजय समकालीन हिन्दी कविता के सबसे प्रखर प्रतिबद्ध स्वरों में से हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े मृत्युंजय छात्र जीवन से ही रेडिकल वाम की राजनीति से जुड़े हैं और इन दिनों भुवनेश्वर में पढ़ा रहे हैं। 

टिप्पणियाँ

बहुत धारदार | ये अच्छी बात है ,कि वैश्विक घटनाओं पर युवा कविता इस मुखरता और इस प्रतिबद्धता के साथ अपनी बात को रख रही है | अनुनाद पर विशाल श्रीवास्तव और यहाँ मृत्युंजय की ये कविताएँ , आक्रमणकारी के चेहरे पर सीधे वार करती हुयी कवितायें हैं | संभव है , कि कुछ शुचितावादियों को इस पर आपत्ति हो , लेकिन इस अराजक और हिंसक व्यवहार का इससे कम स्वर में क्या जबाब दिया सकता है ? तो बधाई मित्र इस साहस और इस प्रतिबद्धता के लिए ...|
Niraj Pal ने कहा…
बम का जवाब बम से नहीं दिया जाता बच्चे/पर तुम अपनी किताब में छपे बम को/चिपका सकते हो अपनी दीवार पर अगर तुम यही चाहते हो/इस बचे-खुचे मुल्क में तुम्हारे लायक अकेला काम बचा है यह;यू एन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, विश्वबैंक/के जल्लाद हाथों धारदार छुरी है इजरायल/पृथ्वी के जख्मों को कुरेदते हैं अमरीकी/और पपड़ियों पर उकेर देते हैं डॉलर के निशान; हजारों सवाल एक साथ पूछती है मृत्युंजय की यह कविता, लेकिन क्या जूं भी रेंगी है नोबल शांति के विजेता के कानों पर?

अभी तो चल रही है वहां महफिलें मुसलसल, मजलिसों की शामें जवां हैं,

घू घू कर के दम तोड़ रही है वहां आदमियत,

और इतिहास खड़ा है हाथ में अपना कटोरा लिए हुए,

कि साम्राज्यवाद में मुझे तब भी बिगाड़ा गया जब तुम नहीं थे,

और आज मैं बिगड़ने के लिए खड़ा हूँ, कब बिगाडोगे मुझे?
Santosh ने कहा…
जी ! ये प्रतिरोध की कविता तो हैलेकिन केवल प्रतिरोध के लिए ही इसे पढना चाहूँगा !
खंड (1)- बिम्ब का ठीक ठीक अर्थ नहीं निकलता -- और निकलता है तो अर्थ विपरीत भी होता है ! जैसे -- "तनिक तनिक भी ऊंची दिखती पतंगों की डोर काट दी जाती है"......ये डोर अगर इजरायल की तरफ से काटी जा रही है तो ये प्रतिरोध की कविता है ...लेकिन अगर डोर किसी लिबरल की है तो गाजा के अन्दर कट्टरपंथी ही उसे काट देते हैं --क्या ये प्रतिरोध उसके लिए भी लागू है ? मैं दोनों पर मानता हूँ ! खैर इसके बाद ...शार्क मछलियों की तरह क्रूर पनडुब्बियाँ समुंदर की खोह से निकलती हैं और
चट कर जाती है मानुषों से भरा पूरा तट .....इसे मैं केवल फिलर ही कह सकता हूँ !
खंड (2)- मर्डोकी स्याहियों ...सबसे बढ़िया बिम्ब इस खंड में देखने को मिलता है ! बधाई !
खंड (3)- बिम्ब बढ़िया है बस एक तथ्यात्मक सुधार की जरुरत है ! फिलिस्तीन की आबादी मरसिया नहीं पढ़ती ! मरसिया शिया पढ़ते हैं और फिलिस्तीन ऐसा सुन्नी इलाका है जिसका आधे से बहुत कम तबका शिया को मुसलमान मानता है !
खंड (4) - शानदार ! ये उन लोगों को जवाब है जो ये कहते हैं कि अमरीका फिलिस्तीन को मदद मुहैय्या करा रहा है !
खंड (5) और (6)- अच्छा है !
खंड (7)- बिम्ब सर के ऊपर से गुजरा लेकिन पढने में अच्छा लगा ! "हिब्रू" शब्द का प्रयोग अगर यहूदियों की डामिनेन्स के प्रदर्शन लिए किया गया है -- तो मुझे ये पता नहीं है कि वर्तमान अराजकता में धार्मिक आतंकवाद किस दर्जे का फिलिस्तीन और इजरायल में है ! अगर "हिब्रू" शब्द का इस्तेमाल इजरायल की भाषा का द्योतक है तो कवि को इजरायल की डेमोग्राफी का अध्ययन करना चाहिए ! अगर "हिब्रू " शब्द इजरायल स्टेट का द्योतक है तो यह खंड पुराने खण्डों का रिपिटेशन है !

कविताओं के लिए अशोक जी का आभार और मृत्युंजय जी को बधाई !
आनंद ने कहा…
जैतून की टहनियों की मानिंद महकती शांति
हर बार लाती है अगली कब्रों की तैयारी के लिए थोड़ा वक्त
युद्ध से ज्यादा ही होते हैं इस वक्त के काम
......
....
..

बचपन से यही सब देख रहा हूँ, इस बीच एक पूरी पीढ़ी खतम कर दी गयी फलस्तीन में .... मानवाधिकार को हथियार की तरह जगह बेजगह इस्तेमाल दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र चुप हैं एक के तो हाथ सीधे खून में सने हैं और एक ने चुप्पी साध रखी है आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करके !
मृत्‍युंजय लगातार अलग-अलग शिल्‍पों में सफलतापूर्वक लिखने वाले युवा कवि हैं। मैं हमेशा उनकी कविता से बेचैन हुआ हूं। जितनी हलचल उनमें है, उतनी ही वे पाठकों में जगा देते हैं। ये कविता भी इसी का साक्ष्‍य है... पढ़ने के बाद उपजती टीस पाठक को भी छटपटाते हृदय वाला कवि होने के क़रीब ले आती है। अभी घट रही इन घटनाओं में पुरानी घटनाओं की याद और होने वालियों का भय भरपूर साथ रहता है...कविता इसे साकार कर पायी है। कवि से अधिक असुविधा को बधाई दूंगा, इसे छाप पाने के लिए।
shesnath pandey ने कहा…
yudh se jyda samy ki vibhishika se parichit karati kavita... badhiyan...
बानी शरद ने कहा…
Ashok ise maine abhi share kiya he, Dhanyvad.
अशोक के व्यास ने कहा…
गाज़ा की हर रात, एक दर्द का ग्रेनेड है....बरसों से.....वहाँ युद्ध-विराम होता है तो ख़बर बनती है, वरना ज़ंग तो हस्बे-मामूल ज़िन्दगी है वहाँ.....ताज़्ज़ुब है कि लोग अभी भी वहाँ रहते हैं, जहाँ बारूद के धमाकों के सिवा कुछ भी नहीं....!!
सुबोध शुक्ला ने कहा…
कितनी काली है ये गाज़ा की सुबह........
गज़ब बनी है. पर जाने क्यों लगता है कि थोड़ा छीलना और बनता है. आतंक और यंत्रणा के बिम्ब कुछ जगहों पर स्थिर से हैं और दृश्यों को एक ही जगह पर बार-बार काट रहे हैं.......... पर कोई दोराय नहीं कि शानदार कविता है.....
आलोक ने कहा…
गाजा की वर्तमान दशा और दिशा की सही पहचान कराती अच्छी कविता ! बधाई | गाजा के दर्द की कई परतों को कविता में सफल बिम्बों से व्यक्त किया गया है | नींद और मौत की जुगलबंदी में अक्सर जीत जाने वाली मौत के खिलाफ़ सपनों को जिलाए रखने की चाह कविता में स्पष्ट नज़र आती है |......दोस्त प्रतिबद्धता के इस वैश्विक आयाम को तुम्हारे लेखन में महसूस कर सुखद लगा |
Umesh ने कहा…
"देश के मृत टुकड़े भड़भड़ा कर
गिरते हैं आँखों में धँसते हैं" ...
गाज़ा की स्थिति सचमुच भयावह है। हमास भी कुछ कम नहीं है। इसराइल तो बर्बर है ही। बीच में पिस रहे हैं भोले-भाले लोग जो दुर्भाग्य से उस क्षेत्र में रहते हैं। कविता मार्मिक है और आदमियत को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखती है।
विशाल श्रीवास्तव ने कहा…
इस कविता के लिए 'वाह' नहीं कहूँगा, इस समय ऐसी किसी भी रचना को कविता की तरह न देखा जाये ऐसा मैं चाहता हूँ. Mrityunjay यार तुमने थोड़ी ताकत दे दी है. Ashok भाई .. थैंक्स.
Onkar ने कहा…
बहुत दमदार रचना
बेनामी ने कहा…
प्रिय ब्लॉगर मित्र,

हमें आपको यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है साथ ही संकोच भी – विशेषकर उन ब्लॉगर्स को यह बताने में जिनके ब्लॉग इतने उच्च स्तर के हैं कि उन्हें किसी भी सूची में सम्मिलित करने से उस सूची का सम्मान बढ़ता है न कि उस ब्लॉग का – कि ITB की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगों की डाइरैक्टरी अब प्रकाशित हो चुकी है और आपका ब्लॉग उसमें सम्मिलित है।

शुभकामनाओं सहित,
ITB टीम

पुनश्च:

1. हम कुछेक लोकप्रिय ब्लॉग्स को डाइरैक्टरी में शामिल नहीं कर पाए क्योंकि उनके कंटैंट तथा/या डिज़ाइन फूहड़ / निम्न-स्तरीय / खिजाने वाले हैं। दो-एक ब्लॉगर्स ने अपने एक ब्लॉग की सामग्री दूसरे ब्लॉग्स में डुप्लिकेट करने में डिज़ाइन की ऐसी तैसी कर रखी है। कुछ ब्लॉगर्स अपने मुँह मिया मिट्ठू बनते रहते हैं, लेकिन इस संकलन में हमने उनके ब्लॉग्स ले रखे हैं बशर्ते उनमें स्तरीय कंटैंट हो। डाइरैक्टरी में शामिल किए / नहीं किए गए ब्लॉग्स के बारे में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।

2. ITB के लोग ब्लॉग्स पर बहुत कम कमेंट कर पाते हैं और कमेंट तभी करते हैं जब विषय-वस्तु के प्रसंग में कुछ कहना होता है। यह कमेंट हमने यहाँ इसलिए किया क्योंकि हमें आपका ईमेल ब्लॉग में नहीं मिला।

[यह भी हो सकता है कि हम ठीक से ईमेल ढूंढ नहीं पाए।] बिना प्रसंग के इस कमेंट के लिए क्षमा कीजिएगा।

सोने से पहले बुदबुदाओ इन्तिफ़ादा इन्तिफ़ादा और सोचो
तुम एक मजबूत कम्बल में हो जिसे खुदा भी नहीं भेद सकता
क़यामत के रोज तलक

सोने से पहले बुदबुदाओ इन्तिफ़ादा इन्तिफ़ादा और सोचो
तुम एक मजबूत कम्बल में हो जिसे खुदा भी नहीं भेद सकता
क़यामत के रोज तलक

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