मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में दुःख बनकर



पिछले दिनों की घटनाएं पढ़ते हुए मुझे हिंदी की महत्वपूर्ण कवि सविता सिंह के संकलन 'नींद थी और रात थी' की कुछ कवितायें बार-बार याद आती रहीं. बलात्कार जैसा विषय अभी हाल तक हमारी सार्वजनिक बातचीत ही नहीं साहित्यिक परिवेश से भी बहिष्कृत रहा है, हालांकि वह जीवन से अनुपस्थित कभी नहीं रहा. मानवता के प्रति इस सबसे क्रूर अपराध को गोपन रखना ही सिखाया गया उन्हें भी जो इस भयावह अनुभव से गुज़र जीवन भर घायल बने रहने को अभिशप्त हुईं. अजीब विडम्बना है कि इस पितृसत्तात्मक समाज ने पीड़ित को अपराधी और अपराधी को गर्वोन्मत्त में तब्दील कर दिया. सविता सिंह की 'ख़ून और ख़ामोशी' तथा  'शिल्पी ने कहा' जैसी कवितायें इस वर्जित विषय पर छायी ख़ामोशी को तोड़ती तो हैं ही साथ में प्रतिरोध का एक स्वर भी बुलंद करती हैं. 'क्यों होती हो उदास सुमन' जैसी कविता नैराश्य के गहन अन्धकार में ख़ुशी की राह ही नहीं दिखाती बल्कि 'प्रेम एक बार होता है' या 'प्रेमी या पति द्वारा परित्यक्त महिला के जीवन में ख़ुशी की कोई जगह नहीं' जैसे मिथक को भी ध्वस्त करती है और 'याद रखना नीता' जैसी पितृसत्ता के जाल को काटती कविता के साथ मिलकर बलात्कार जैसे इस क्रूर अनुभव के दर्द से लेकर उसके प्रतिकार और उसके बाद भी जीवन में तमाम रौशन सुरंगों के शेष रह जाने का एक ऐसा आख्यान बनाती है जो मुझे स्त्रियों के लिए यातनागृह बने देश के इस अन्धकार से भरे  माहौल में उम्मीद के कुछ उजले कतरों से भरे धूसर आसमान की तरह लगता है.     
फ्रांस की अति-यथार्थवादी कलाकार  Myrtille Henrion Picco
की पेंटिग 

ख़ून और ख़ामोशी 

दस साल की बच्ची को
यह दुनिया कितनी सुघड़ लगती थी
इसमें उगने वाली धुप हरियाली
नीला आकाश कितना मनोहर लगता था
यह तो इसी से पता चलता था कि
खेलते-खेलते वह अचानक गाने लगती थी कोई गीत
हँसने लगती थी भीतर ही भीतर कुछ सोचकर अकेली
बादल उसे डराते नहीं थे
बारिश में वह दिल से ख़ुश होती थी
मना करने पर भी सड़कों पर कूद-कूद कर नहाती और नाचती थी

दस साल की बच्ची के लिए
यह दुनिया संभावनाओं के इन्द्रधनुष-सी थी
यही दुनिया उस बच्ची को कैसी अजीब लगी होगी
हज़ारों संशयों भयानक दर्द से भरी हुई
जिसे उसने महसूस किया होगा मृत्यु की तरह
जब उसे ढकेल दिया होगा किसी पुरुष ने
ख़ून और  ख़ामोशी में
सदा के लिए लथपथ



शिल्पी ने कहा  
मरने के बाद जागकर शिल्पी ने
अपने बलात्कारियों से कहा
'तुम सबने सिर्फ़ मेरा शरीर नष्ट किया है
मुझे नहीं
मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में
दुःख बनकर
पिता के कलेजे में प्रतिशोध बनकर
बहन के मन में डर की तरह
माँ की आँखों में आँसूं होकर
आक्रोश बनकर
लाखों-करोड़ों दूसरी लड़कियों के हौसलों में
वैसे भी अब नहीं बाच सकता ज़्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियाँ उठा रही हैं अस्त्र




क्यों होती हो उदास सुमन 

क्यों होती हो उदास सुमन
जैसे अब और कुछ नहीं होगा
जैसा आज है वैसा कल नहीं होगा
क्यों डूबती हैं तुम्हारी आँखें कोई तारा रह-रहकर जैसे

देखो हर रात चाँद भी कहाँ निकलता है
जबकि आसमान का है वह सबसे प्यारा
आओ उठो हाथ मुँह धोओ
देखो बाहर कैसी धुप खिली है
हवा में किस तरह दोल रही हैं चम्पा की बेलें

क्यों होती हो उदास कि जो गया वह नहीं लौटेगा
जो गया तो कोई और लौटेगा
ख़ुशी के लौटने के भी हैं कई नए रास्ते
जैसे दुःख की होती हैं अनगिनत सुरंगे


याद रखना नीता 
याद रखना नीता
एक कामयाब आदमी समझदारी से चुनता है अपनी स्त्रियाँ
बड़ी आँखों सुन्दर बांहों लम्बे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएँ
चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धँसी आँखों वाली मेहनती
कम बोलने वाली पत्नियाँ

कामयाब आदमी यूँ ही नहीं बनता कामयाब
उसे आता है अपने पूर्वजों की तरह चुनना
भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना

------------------------------------------------------------------------------------

सविता सिंह 
प्रतिष्ठित कवि तथा नारीवादी चिंतक. हिंदी तथा अंग्रेज़ी में दो-दो तथा फ्रेंच में एक कविता संकलन के अलावा अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से शोध पत्र प्रकाशित. सम्प्रति इंदिरा गांधी मुक्त विश्विद्यालय के स्कूल आफ जेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज से सम्बद्ध 

टिप्पणियाँ

मोनिका कुमार ने कहा…
विशेष नामों से संबोधित करती कविताएं भी बेनाम, अनाम, गुमनाम सभी को संबोधित करती है...बहुत अच्छी कविताएं हैं पर मुझे क्यूँ होती हो उदास सुमन सबसे अच्छी लगी

ख़ुशी के लौटने के भी हैं कई नए रास्ते
जैसे दुःख की होती हैं अनगिनत सुरंगे
देवयानी भारद्वाज ने कहा…
सभी कविताये बहुत अच्छी है .. सरल सच्चाइयो को उतनी ही सहजता के साथ बयान करती ... साझा करने के लिये शुक्रिय अशोक ... अभी बहुत ज़रूरत थी इनकी ...
अपनी बात कहती कविताएं हैं...पर सुनना हम सबको होगा...
अपर्णा मनोज ने कहा…
अशोक,यह संवेदनशीलता बनी रहे। साहित्य से संवाद तो होता ही है ..परिवर्तन की संभावनाएं भी बनती हैं ..हालांकि सब इतना ठोस नहीं है ..निराशा महसूस होती है।अशोक स्त्रियों के लिए कुछ अच्छा कभी नहीं रहा ..तेज़ी से कुछ बदलेगा नहीं ..हाँ,पुरुष बदले और समाज बदले ..स्त्रियों द्वारा स्त्रियों के शोषण का भी लम्बा इतिहास है, कुछ हो कि यह थमे;परस्पर सद्भाव बने, इज्जत करना सीख लें स्त्री-पुरुष एक दूसरे की ..
इस पोस्ट को साझा करने के लिए आभार।
नया वर्ष परिवर्तन का संकेत करे ..
vandana gupta ने कहा…
बेहतरीन रचनायें

बस उसी दिन नव वर्ष की खुशियाँ सुकून पायेंगी
जब इंसाफ़ की फ़सल लहलहायेगी
और हर बेटी के मुख से डर की स्याही मिट जायेगी
Anavrit ने कहा…
कामयाब आदमी यूँ ही नहीं बनता कामयाब
उसे आता है अपने पूर्वजों की तरह चुनना
भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना ---बहुत गूढ पंक्तियां है आभार ।
अरुण अवध ने कहा…
भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना ....

बहुत अच्छी प्रभाव छोड़ जाने वाली कवितायेँ !
सविता जी को बधाई और 'असुविधा' का आभार !
विजय कुमार ने कहा…
एक रचना अचानक किस तरह समय की एक घटना में अब तक अनचीन्हे रह गये अपने अर्थ पर्त - दर- पर्त व्यंजित करने लगती है.इस दुनिया में कला का होना शायद यही है, यही रहेगा.धन्यवाद सविता जी.
vandana ने कहा…
नीता शिल्पी सुमन के नाम से संबोधित पर उनके सिवा भी हर बेनाम को बेहद आत्मीय लगती कविताएँ,दिल को छूतीं,दुःख छोड़ खुशियों की ओर उन्मुख करती सहज सरल कवितायें...बधाई सरिता सिंह जी, अशोक भाई आभार इतनी अच्छी कवितायें पढ़ाने के लिये .......
Puneet Bisaria ने कहा…
सविता की ये कविताएँ स्त्री की टीस और उसके संताप का यथार्थपरक दस्तावेज़ हैं। इनमे स्त्री की जड़ीभूत होती व्यथा के मार्मिक सन्दर्भ तो हैं ही, साथ ही सौंदर्य के प्रतिमानों की सलीब पर चढ़ाई जाती, छली जाती बलात्कृत स्त्री की जीवित रहने की जिजीविषा व्यंजित हुई है। शिल्पी, सुमन, नीता और 10 साल की बच्ची सम्पूर्ण भारत के कलुषित यथार्थ का परिचायक तो हैं ही साथ ही ये पितृसत्तात्मक समाज के सामने चुनौती भी खड़ी करती हैं। बेहद संवेदनशील एवं सामायिक कविताएँ हमें उपलब्ध कराने के लिए भाई अशोक जी को आभार और सविता जी की रचनात्मक उर्जा एवं कथ्यात्मक विवेक को नमन।
neera ने कहा…
सविताजी की कवितायें बड़ी सहजता से सच्चाइयों को उजागर करती हैं , दिल को छूने वाली प्रभावशाली कवितायें ....


कामयाब पुरुष की नब्ज़ को बारीकी से पकड़ किस बखूबी से, कम शब्दों में उसकी मानसिकता को नंगा करती है यह कविता ...



भेद करना
और इस भेद को एक भेद
बनाए रखना


समाज में परिवर्तन और दूषित मानसिकता को स्वच्छ करने के लिए इस विषय के प्रति जागरूकता और संवाद अति आवश्यक है बहिष्कृत विषयों को प्राथमिकता और आवाज़ देने के लिए असुविधा और जनपक्ष का आभार ...
hemant kumar sharma ने कहा…
Sunitha Singh ji !
Dhanyavad
Aapne likha mujhe sukoon mila.
Hemant sharma, Korba Chhattisgarh
आनंद ने कहा…
इस दौर के नैराश्य को तोड़ती श्रेष्ठ कवितायेँ...
वैसे भी अब नहीं बच सकता ज़्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियाँ उठा रही हैं अस्त्र
सभी कविताएँ अच्छी लगीं। भले ही इसमें कविता थोड़ा कम हो पर सबसे बड़ा सच तो ये है।

याद रखना नीता
एक कामयाब आदमी समझदारी से चुनता है अपनी स्त्रियाँ
बड़ी आँखों सुन्दर बांहों लम्बे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएँ
चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धँसी आँखों वाली मेहनती
कम बोलने वाली पत्नियाँ

बधाई सविता जी को इन रचनाओं के लिए।
ओम निश्‍चल ने कहा…
सभी कविताएं सविता के कविता-सामर्थ्‍य की गवाहियौं हैं। मर्मस्‍पर्शिता के साथ शब्‍दों की राख में चिन्‍गारियौं जगा देना सविता की हिकमत का प्रमाण है।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ