अस्त्राखान की हिंदी सराय वाया पुरुषोत्तम अग्रवाल
- सौरभ बाजपेयी
"हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवान " नाम अपने आप में ही एक द्वैध छुपाये है। हिंदी सराय एक जाना पहचाना सा नाम लगता है। हिंदी यानि हिंदुस्तानी और सराय वो जगह जहाँ लोगों के रुकने-ठहरने का इंतजाम हो। हमने अपने घरों में मेहमानों की आमद से ऊबे घर वालों को अक्सर कहते सुना था-घर न हो गया सराय हो गयी, लेकिन ये अस्त्राखान और येरेवान भला किस बला का नाम है? दरअसल,यही वो द्वैध है जो बिना एक भी पन्ना पलटे यह अहसास दिलाता है कि जरूर ये किन्ही दो अनजानों का नाता है। कोई ऐसा अंतर्संबंध जो भाषाई परिवेश में एकदम भिन्न होते हुए भी एक ही राह गुजरता है- अस्त्राखान से येरेवान वाया हिंदी सराय।
इस अंतर्संबंध की खोज अपने आप में बहुत दिलचस्प है। येरेवान, आर्मेनिया की राजधानी और देश का सबसे बड़ा शहर। दुनिया के कुछ सबसे पुराने और चुनिन्दा जिन्दा शहरों में एक, जो एक बार बसने के बाद कभी उजड़े नहीं। कह सकते हैं, येरेवान आर्मेनिया का बनारस है। अस्त्राखान, रूस में वोल्गा के किनारे बसा एक प्राचीन शहर जहाँ कभी हिंदी (हिंदुस्तानी) व्यापारियों की एक भरी पूरी सराय हुआ करती थी। नाम था-हिंदी सराय। भारत से तकरीबन 5,166 किलोमीटर दूर। आखिर सामाजिक रूप से रूढ़ भारतीय, जिन्हें समुद्र यात्राओं और उन जगहों पर जाने से ख़ासा परहेज था जहाँ काले हिरन और मूंज न मिलती हो, अस्त्राखान कैसे पहुंचे और इतने महत्त्वपूर्ण कैसे बन गए कि स्थानीय सत्ता ने उन्हें तरजीही तौर पर अपना मेहमान बनाया, एक सराय बसा दी। यही वो सवाल था जो औपनिवेशिक ज्ञान तंत्र के उपजाए-फैलाए हुए स्टीरिओटाइप से सीधे जाकर टकरा जाता है और यहीं पर यह यात्रा वृत्तान्त महज़ किस्सागोई न रहकर औपनिवेशिक ज्ञान तंत्र के खिलाफ एक सशक्त वैचारिक दखल बन जाता है। बकौल लेखक-"परंपरा के वास्तविक, गतिशील रूप का पूरा नकार और इस नकार की स्वाभाविक परिणति है-आत्मघृणा। भारत में औपनिवेशिक आधुनिकता की सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि उदार, प्रगतिशील या आधुनिक होने का बपतिस्मा कराने के लिए सांस्कृतिक आत्मघृणा के जल में अभिषिक्त होना आवश्यक है।" 16वीं सदी में अस्त्राखान की यह हिंदी सराय खूब गुलज़ार थी। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इस बात का ज़िक्र किया है और आज भी इस सम्बन्ध की तमाम निशानियाँ हासिल हैं। मसलन 'अस्तर'
एक खूब जानी पहचानी चीज़ है। कपड़ों से लेकर रजाई तक को अन्दर से गर्म रखने के लिए लगाया जाने वाला कपड़ा अस्तर कहलाता है, क्योंकि फर (पैदा होने से पहले ही बकरी के पेट से चीरकर निकाले गए मेमने की खाल से बनाया गया एक गर्म कपड़ा) का आयात अस्त्राखान से हुआ करता था। आज भी फर से बनी अस्त्राखान टोपी एक ख़ास और नायाब चीज़ मानी जाती है और सराय भी, दरअसल, एक आयातित शब्द है। अस्त्राखान में बड़े और भव्य भवनों को सराय कहते थे और हिंदुस्तान ने सराय को ऐसा अपनाया कि वो हिंदी से लेकर उर्दू तक एक सर्वमान्य शब्द बन गया। वास्तव में ये बातें एक गहरे व्यापारिक संबंध की गवाही देती हैं, जो अपने साथ खुले दिल से सभ्यता और संस्कृति का आयात करने से भी नहीं चूकती थी। लेकिन हमारी मौजूदा ऐतिहासिक स्मृति में अब भी यह वही समय है जिसे अन्धकार युग बताकर इतिहास के सांप्रदायिक पाठों के बीज रोपे गए थे। यह भी सिद्ध किया गया था कि जड़ भारतीय समाज को एक गतिशील सत्ता की जरूरत थी, जो इसे आधुनिकता की ओर ले जाती और जिसका निष्कर्ष यह बना कि महारानी का महान भारतीय साम्राज्य दरअसल खुद भारतीयों के भले के लिए है-'दैट इज़ व्हाइट मैन्स बर्डन'। यह वही ज्ञान तंत्र है जिसने "अभिज्ञान शाकुंतलम्" को भारत में इस बिना पर बैन कर रखा था कि यह कामुकता फैलाती है और इसी को लन्दन यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में क्लासिक बताकर शामिल किया गया था।
आर्मेनिया के एक कवि हुए हैं-येगिशे चारेंत्स, जिनकी कविता का विस्तार ऐसा है "जिसमें आर्मीनिया की सांस्कृतिक स्मृतियों के मिथकीय पाठ भी निवास करते हैं, ऐतिहासिक भी।" और "आर्मेनिया के सुख- दुःख भी रहते हैं, और आशाएं, आकांक्षाएं और आशंकाएं भी। वहां अतीत की यातनाएं भी रहती हैं और वर्तमान की चुनौतियाँ भी।" ख़ास बात कि-एक टैक्सी ड्राइवर से लेकर आर्मेनिया के प्रधानमंत्री तक न सिर्फ चारेंत्स को जानते हैं बल्कि वे उनकी राष्ट्रीय स्मृति हैं। जिनके नाम पर एक म्यूजियम है, चारेंत्स म्यूजियम। हम हिंदी (हिंदुस्तानी के सन्दर्भ में) लोगों के लिए तो यह बात एक अजूबे की तरह है। अपने यहाँ तो लोक और कविता के न के बराबर सम्बन्ध हैं और
न इस हाल पर कोई बहस है न मुबाहिसा। इस दूरी का फायदा मंचीय कविता से उपजे फूहड़ चुटकुलेबाजों और आगलगाऊ वीर रसिकों ने खूब उठाया है। वही लोगों की चेतना, स्मृति और अभिरुचियों के नियंता बन गए हैं। इसीलिये अनायास यह संशय मन में आया-या तो वो समाज इतना संवेदनशील है कि कविता की भावुकता को अपनी स्मृति में बसा सका या फिर वो कवि, जिसने इतनी सघनता के साथ लोगों के ह्रदय को छुआ जिसे वे भुला न सके।
कवि चारेंत्स के बहाने एक और बात पुख्ता हुयी। गाँधी पूरी दुनिया में एक क्रांतिकारी की तरह देखे जाते हैं सिवाय हिंदुस्तान के। यहाँ तो रजनी पाम दत्त ने इंडिया टुडे में लिखकर गाँधी को "मैस्कॉट ऑफ़ बुर्जुआजी" बना दिया और अहिंसा "प्रोप़रटीड क्लासेज को डिफेंड" करने की स्ट्रेटेजी बन गयी। जबकि आर्मेनिया जैसे देश में एक सचेत कवि, जो एक ओर रूसी क्रांति का घोर प्रशंसक था और दूसरी ओर स्टालिन के "द ग्रेट पर्ज़" का शिकार, संघर्ष के क्षणों में गाँधी से ताकत हासिल करता है। खुद को 'महात्मा चारेंत्स' कहाता है। और, पद्मासन की मुद्रा में बैठी अपनी तस्वीर पर पंक्तियाँ लिखता है- "तुम्हारी आत्मा अभी तक अनुभवरहित है, अभी तक तुम कमजोर हो, चारेंत्स। आत्मा को मजबूत करो। पुजारी, योग्य, सूर्य बनो, जैसे महात्मा गाँधी-प्रतिभासंपन्न हिंदुस्तानी।" और यहाँ पर हमारा आर्मेनिया की चेतना में पैबस्त सबसे गहरे दुखों से साबका होता है-पहले ओटोमन साम्राज्य के अत्याचार और फिर स्टालिन के दिए घाव। जहाँ चारेंत्स की एक मित्र को उनकी सारी कविताएँ जमींदोज़ करनी पड़ीं, क्योंकि अपने कल्ट ऑफ़ पर्सनालिटी को बनाने के महाअभियान में स्तालिन सब कुछ बहुत गोपनीय रखना चाहता था, ताकि आस्था बनी रहे। इस सन्दर्भ में एक सवाल बहुत मौजूं लगा-"क्या यह बिलकुल नामुमकिन है कि विवेक और आस्था संवाद के घर में एक साथ रह सकें?" यद्यपि यह सिर्फ स्तालिन पर ही नहीं पूरे स्तालिनिस्टिक और एंटी-स्तालिनिस्टिक कम्युनिस्ट मूवमेंट पर भी लागू होता सवाल है। यह कन्फर्मिस्ट अप्रोच, जो कि 'लाइन' पर हद से ज्यादा जोर देती है, दरअसल गोपनीयता और आस्था के इसी अंतर्संबंध पर आधारित है। जहाँ सवाल पूछना रिवीजनिस्ट होना है और यह पूछना भी कि हमें गाँधी की क्रांतिकारी संभावनाएं क्यों नहीं दिखतीं? जबकि खुद लेनिन गाँधी को एक क्रन्तिकारी मानते हैं और हो ची मिन्ह, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला से लेकर चारेंत्स तक- सभी खुद को गांधी का शिष्य बताकर उनसे ताकत जोड़ते- बटोरते हैं, हिंदुस्तान के वाम-विमर्श में गांधी एक मजबूरी का नाम भला क्यों है?
इस तरह यह यात्रा वृत्तान्त एक बड़े कैनवास को समेटता है। इतिहास, राजनीति, समाज, नृजातीयता, पुरातत्व, धर्म-एक गहन शोधक की बारीक नज़र सब कहीं सब कुछ दिखाती चलती है। इतनी बारीक कि एक अनजान दुनिया का तार-तार दिखाई दे, सोचने और बहस करने पर मजबूर करे। एक यात्रा वृत्तांत वास्तव में तभी पाठक को कनेक्ट कर पाता है जब लेखक नहीं पाठक खुद उस दुनिया में घूमता सा महसूस करे। यह किताब यह बखूबी महसूस कराती है। वर्ना एक कहावत लाज़िम है- 'मजा मारै कोई और ताली पीटै कोई'। यात्रा वृत्तांतों पर तो यह बात हूबहू लागू होती है।
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इस तरह यह यात्रा वृत्तान्त एक बड़े कैनवास को समेटता है। इतिहास, राजनीति, समाज, नृजातीयता, पुरातत्व, धर्म-एक गहन शोधक की बारीक नज़र सब कहीं सब कुछ दिखाती चलती है। इतनी बारीक कि एक अनजान दुनिया का तार-तार दिखाई दे, सोचने और बहस करने पर मजबूर करे। एक यात्रा वृत्तांत वास्तव में तभी पाठक को कनेक्ट कर पाता है जब लेखक नहीं पाठक खुद उस दुनिया में घूमता सा महसूस करे। यह किताब यह बखूबी महसूस कराती है। वर्ना एक कहावत लाज़िम है- 'मजा मारै कोई और ताली पीटै कोई'। यात्रा वृत्तांतों पर तो यह बात हूबहू लागू होती है।
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