लाल्टू की कवितायें
लाल्टू हिन्दी कविता की मुख्यधारा से बाहर रहकर आपरेट करने वाले कवि हैं. 'मुख्यधारा' यानि संस्था, अकादमी, पुरस्कार,यात्रा वाले खेलों की रंगभूमि से अकसर अनुपस्थित. मुख्यधारा यानि दिल्ली-पटना-लखनऊ-भोपाल-इलाहाबाद स्थित मल्लक्षेत्र से अक्सर असम्बद्ध. शायद यही वज़ह है कि समकालीन विचारहीन विमर्शकेन्द्रित शोरगुल के कानफाडू माहौल में भी वह प्रतिरोध की कविता लिखने में मशगूल हैं. एक पुराने साबित कर दिए गए शिल्प में पूरी ताक़त के साथ नयी बात कहने को प्रतिबद्ध. उनकी कविता अक्सर खुरदरी नज़र आती है, भीतर तक चोटिल कर देने वाली. इधर बहुत कोमल, बहुत संभल कर, बहुत बचते-बचाते कविता लिखने की जो 'कला' प्रचलित हुई है, उसके बरक्स लाल्टू और ऐसे कुछ 'पुराने' ढब के कवियों को पढ़ना मुझ जैसे पाठक को 'असुविधा' का सुकून देता है.
लाल्टू जी की तस्वीर उनके फेसबुक पेज से, ब्लॉग की सज्जा के लिहाज़ से फ्लिप की गयी. सो 'सिर्फ तस्वीर में ' जो दायाँ है उसे बायाँ समझा जाय |
दिखना
आप कहाँ ज़्यादा दिखते हैं?
अगर कोई कमरे के अन्दर आपको खाता हुआ देख ले तो?बाहर खाता हुआ दिखने और अन्दर खाता हुआ दिखने में/ कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज़्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इन्सान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों.
अगर कोई कमरे के अन्दर आपको खाता हुआ देख ले तो?बाहर खाता हुआ दिखने और अन्दर खाता हुआ दिखने में/ कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज़्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इन्सान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों.
आदमी और तानाशाहआदमी तहरीर चौक पर मरता है, वह दिल्ली की चौड़ी सड़क किनारे मरता है। वह मरते हुए देखता है देश, धर्म, जाति, लिंग सब कुछ मरते हुए। मरने के बाद वह मर चुका होता है। उसका देश होता है असीम, काल अनंत। वह फिर से जनमता है, वह फिर से मरता है। फिर से जन्म लेते हैं देश, धर्म। फिर से मरते हैं। हर बार उसके मरते ही मर जाते हैं नक्शे, मरते हैं स्त्रोत। हर बार उसके मरते ही हम बच्चों से कहते हैं कि आसमान में अनगिनत तारों में कहीं भी उसे ढूँढ लो। उससे प्रेम करने वालों की स्मृति में वह कभी नहीं मरता। स्नेह से संभोग तक हर तरह का प्रेम जीवित रहता है। लोगबाग वर्षों तक उसके बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे वह कभी मरा ही नहीं। तानाशाह पालता है दरबारी कवि। दोनों एक जैसे मरते हैं। अभिशप्त लोक में उनकी आत्मा रहती है लावारिश। उनकी लाश पर नाच रहे लोगों की तस्वीरें छपती हैं। पर बच्चों के सामने हम कभी उनकी बात नहीं करते गोया वह मर कर भी बच्चों को हमसे कहीं छीन न लें। तानाशाह के मरने के बहुत पहले ही मर जाते हैं उसके प्रेम। मर चुके प्रेम को ढूँढता हुआ उसका प्रेत भटकता रहता है। किसी को परवाह नहीं होती कि वह कैसे मरा। वह मिला था गोलियों से भुना हुआ या अपने महल में गुलाम सिपाहिओं से डरता हुआ मरा वह। उसकी लाश मिली किसी सिपाही को या मेरे या तुम्हारे जैसे किसी राही को किसको परवाह। खबरों में आदमी कम और तानाशाह ज्यादा मरता है। कभी आमोदित, कभी अचंभित, हम उसकी लाश की देखते हैं तस्वीरें। आदमी हमेशा शहीद नहीं होता। आदमी मरने के बाद आदमी होता है। तानाशाह ज़िंदा या मुर्दा कभी आदमी नहीं होता। उसकी मौत को हमेशा कुत्तों की मौत कह देते हैं हम। इस बात से परेशान कुत्ते रातों को भौंककर हमारी नींद खराब करते हैं।शहर लौटते हुए दूसरे खयालपहले वालों से भरपूर निपट लेने के बाद आते हैं रुके हुए दूसरे खयाल दिखने लगती है शहर की उदासी वैसी ही जैसी यहाँ से जाते वक्त थी। न चाहते हुए भी आँखें देखती हैं कौन हुआ पस्त और कौन निहाल शहर तो थोड़ा फूला भर है, इससे अलग क्या हो सकता है उसे। झंडे बदले हैं, पर उनके उड़ने के कारण नहीं बदले उदासीन आस्मान के मटमैले रंग नहीं बदले शोर बढा है पर कौन है सुनता, है पता किसे उल्लास का गुंजन छूकर बहती है नदी पहले जैसा है लावण्य पर बढ़ी है गंदगी दीवारें बढ़ी हैं, छतें भी और बढ़े हैं बेघर शहर ऊँघता है, जीने को अभिशप्त लंबी उमर हिलता डुलता, कोशिश में बदलने की करवट अंतर्मन से टीस है निकलती उसे यूँ देखते एकाएक मानो अपना यूँ सोचना हम रोक लेते और उसकी अदृश्य आत्मा को सहलाते हैं। बहुत बदल चुके हमें चुपचाप देखता है शहर हम नहीं जानते कि हमें भी सहला रहा होता है शहर यह उसी को पता है कि किस वजह से कभी जुदा हुए थे हम।वह तोड़ती पत्थरपथ पर नहीं वह मेरे घर तोड़ती है पत्थर हफ्ते भर पहले उसकी बहू मरी है घबराई हुई है कि बिना बतलाए नहीं आई हफ्ते भर नज़रें झुकी हैं गायब है आवाज़ घंटे भर से झाड़ू पोछा लगाती तोड़ रही पत्थर दर पत्थर।उजागरजिसको नंगा कर पीटा गया उसकी तस्वीर पर्दे पर है जब वह मार खा रहा था उसका शिश्न खड़ा था वह बच गया उसका शिश्न बच गया छिपाने लायक कुछ रह ही गया अन्यथा हर तरह से उजागर आदमी के पास।हिलते डुलते धब्बेकुहासे से लदी है सुबह कारनामे सभी रात के छिप गए हैं भारी नमी के धुँधलके में सड़क पर साँय साँय बढ़ता चला है हम जानते हैं कि यह एक आधुनिक शहर है ऐसे में कोई चला समंदर में कश्ती सा सुबह सुबह अखबार बाँटने या कि दूधवाला है या औरत जिसे चार घरों की मैल साफ करनी है कुहासे को चीरते चले चले हैं कोई नहीं देख पाता उन्हें कुहासा जब नहीं भी होता है हिलते डुलते धब्बे दिखते हैं दूर तक।
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लाल्टू
हिन्दी के बेहद महत्वपूर्ण कवि. चार कविता संकलन " एक झील थी बर्फ की (1990 - आधार प्रकाशन), डायरी में तेईस अक्तूबर (2004 - रामकृष्ण प्रकाशन), लोग ही चुनेंगे रंग 2010 - शिल्पायन )तथा सुंदर लोग और अन्य कविताएँ (2011- वाणी )प्रकाशित. साथ में एक कहानी संकलन और बच्चों के लिए लिखी कुछ किताबें भी.साथ में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'A People's History of the United States' के बारह अध्यायों का अनुवाद (विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित). इन दिनों हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान (computational natural sciences) के प्रोफेसर
टिप्पणियाँ
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वन्देमातरम् !
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!
’दिखना’, ’आदमी और तानाशाह’,’उजागर’ बेहद सटीक तरीके से अपनी बात रखती हैं...
अच्छी पोस्ट के लिये शुक्रिया....
’दिखना’, ’आदमी और तानाशाह’,’उजागर’ बेहद सटीक तरीके से अपनी बात रखती हैं...
अच्छी पोस्ट के लिये शुक्रिया....
आदमी तहरीर चौक पर मरता है, वह दिल्ली की चौड़ी सड़क किनारे मरता है। वह मरते हुए देखता है देश, धर्म, जाति, लिंग सब कुछ मरते हुए। मरने के बाद वह मर चुका होता है।
उसका देश होता है असीम, काल अनंत।
वह फिर से जनमता है, वह फिर से मरता है। फिर से जन्म लेते हैं देश, धर्म। फिर से मरते हैं। हर बार उसके मरते ही मर जाते हैं नक्शे, मरते हैं स्त्रोत। हर बार उसके मरते ही ..... इसबार पुस्तक मेले में इनकी पुस्तकें जरूर कोशिश करूंगा कि ला सकूं .
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों.
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लाल्टू की कुछ कविताएँ मैने तत्सम पर भी डाली थी। उनकी कविताओं की कहन ही ऐसी है कि अलग ढंग से आपको प्रभावित करती हैं।