दुष्यंत क्यों रक्तबीज हो गए हैं? - बसंत जेटली



पारम्परिक आख्यानों का कविता में प्रवेश और उनसे नए पर कुछ कहने का प्रयास हिंदी में कोई नई चीज़ नहीं है. मिथक हों या इतिहास, उनके मूल में उस काल की सामाजिक-राजनीतिक अवस्थितियों से निर्मित परिवेश और आदर्श रहते ही हैं. ऐसे में कई बार उनमें भटक जाने, उनकी आभा से दृष्टि के चुंधिया जाने और इस प्रभाव में किसी पुरोगामी कुपथ पर भटक जाने के खतरे भी होते हैं. 

बसंत जेटली की यह कविता  अपने कथ्य के लिए एक प्राचीन आख्यान का सहारा लेती है. शकुन्तला-दुष्यंत का आख्यान. लेकिन इस अति-प्रसिद्ध आख्यान की अँधेरी कंदराओं में भटकने की जगह वह इसके द्वारा स्थापित सहजबोध को प्रश्नांकित करने का ज़रूरी काम करती है और इस रूप में हमारे समय पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है. पार्श्व में चलते अभिनव शाकुंतलम की गूँज से निर्मित इसकी भाषा का प्रवाह कविता में एक विशिष्ट प्रवाह देता है. बसंत जी के प्रति आभार सहित यह कविता .. 



शकुन्तला के प्रश्न 


विश्वामित्र के
तपभंग को प्रेषित
अप्सरा माता के गर्भ से
अनचाहे जन्मी थी मै |
इसमे कसूर न तुम्हारा था
न मेरा,
यह अलग बात है
कि आज तक
बूझ नहीं पाई मै
अनेक ऋषियों का संयम |
जन्मते ही छोड़ गयी माँ,
समझा नहीं पिता ने
अपना दायित्व |
मृगछौने सहलाती
भागती – दौडती
कब हो गई युवा
और तुमने कब कहा मुझे
‘ प्रभा – तरल ज्योति ‘
नहीं जानती मै |
दुनियादारी नहीं थी मुझमे
जब शुरू किया तुमने
यकायक एक खेल |
आश्रम में भेज दिया तुमने
अचानक एक राजा,
वह भी तब
जब नहीं थे वहाँ
मेरे पालक पिता |
उसकी शिकारी नज़रों में
मै थी अनाघ्रात पुष्प,
नखों से अस्पृष्ट किसलय,
अनबिंधा रत्न,
अनास्वादित मधु,
और मन में था
बस एक सवाल
कि यदि मै नहीं
तो भला और कौन होगा
इसका भोक्ता ?
भोगी गई मै,
शापग्रस्त हुई मै,
त्यागी गई मै,
क्या था मेरा अपराध,
वह प्रेम जो हो गया
या तुमने लिख दिया ?
प्रेम का दंड मिला मुझे,
उसे नहीं
जो था उत्तरदायी,
तुम्हे भी नहीं
जो थे इसके सूत्रधार |
बस मेरा था दोष,
मै ही थी हतभागी,
मै थी
सिर्फ एक भोग्या
जिसे भूल सकता था
कोई भी भोक्ता |
विदा की वेला में
पिता के सारे उपदेश भी
मेरे लिए थे,
पति कहाँ था जवाबदेह
यह नहीं कहा तुमने,
नहीं कहा पिता ने |
तुम्हारे सारे विमर्श में
क्या यह ही थी
एक औरत,
मीठे बोलों से ठगा जाना
और गर्भावस्था में परित्याग ही
हो सकती है जिसकी नियति ?
महाकवि !
आज प्रश्नाकुल हूँ मै,
सिर झुकाए
चुप बैठे हो तुम
जैसे रीत गई हो
तुम्हारी सारी कल्पना |
उस क्षण
जो एक दुष्यंत रचा था तुमने
आज क्यों
रक्तबीज हो गए हैं वह ?
और क्यों
आज भी वही है
हर शकुन्तला का भवितव्य ?

टिप्पणियाँ

पंकज मिश्र ने कहा…
एक नैरंतर्य जो शकुंतला से आज तक आकुल करता आ रहा है उस आख्यान को एक काव्यात्मक स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिए बसंत सर और अशोक दोनों को बधाई .........
आशुतोष दुबे ने कहा…
दुष्यंत के रक्तबीज हो जाने को कविता दर्ज करती है. अच्छा लगा.
आपकी पोस्ट 31 - 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें ।
--
रश्मि शर्मा ने कहा…
बहुत अच्‍छी कवि‍ता....दुष्‍यंत और रक्‍तबीज..
Unknown ने कहा…
यह कविता अगर प्रथम पुरुष में लिखी जाती और दो अलग कालखंडों की शकुंतला अपनी बात कहतीं तो कुछ और बात होती...
neera ने कहा…
प्राचीन आख्यान पर टिकी गहरी और अर्थपूर्ण कविता ...
आनंद ने कहा…
बहुत प्यारी कविता है जेटली साहब की एक बहुत ही वेलनोन आख्यान को एकदम नए और तर्कसंगत रूप में लेकर आने के लिए आभार !
ये सवाल हम सबके भी हैं |और साथ में यह भी कि इन रक्तबीजों से कैसे निपटा जाय ..? अच्छी और सच्ची अभिव्यक्ति | बधाई बसंत सर को |
अरुण अवध ने कहा…
शकुंतला जो कि एक तपस्वी के मार्ग से स्खलन की कविता है ,धर्म-दम्भी पुरुषों से कैसे सराही और सहेजी जाती ! उसकी नियति में किसी दुष्कर्मी 'दुश्यन्त्र'के हांथों में पड़ जाना ही लिखा था ! फिर ऐसे व्यभिचार अभ्यस्त का उसे भूल जाना भी कोई आश्चर्य की बात नहीं !आश्चर्य कि बात तो यह उस अपराधी को विस्मृति के शाप की आड़ में बचाने का प्रयास किया गया !ऐसे अपराधियों पर ऐसी लीप-पोती का ही दुष्परिणाम है उसका रक्त-बीज बन जाना !

एक सशक्त कविता के लिए बसंत जी को बधाई और 'असुविधा ' का आभार !

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