रघुवंश मणि की एक कविता


रघुवंश मणि हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचक हैं. पिछले दिनों उन्होंने समकालीन तीसरी दुनिया के ताज़ा अंक में प्रकाशित यह कविता पढने के लिए भेजी. इस कविता को देश में भेद्य तबकों के साथ लगातार हो रहे अत्याचारों के बीच एक जेनुइन गुस्से की अभिव्यक्ति की तरह पढ़ा जाना चाहिए. हालांकि, मेरे जैसे मृत्युदंड के विरोधी के लिए अंतिम पंक्तियों में मृत्युदंड के आह्वान तनिक असुविधा पैदा करने वाले हैं, फिर भी कविता पंछी के बहाने जिस तरह से हमारे समय में आज़ादी से रहने, बोलने, घूमने, लिखने का अधिकार छीने जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती है, वह मानीखेज़ है.             


  हवा के पखेरू

                                         

मुझे पंछी पसंद हैं

हवा में उड़ते हुए पंछी
परवाज के लिए पाँव खींचे
गरदन आगे बढ़ाए हुए
ऊॅंचाइयों को नापते
जिनकी आँखों में सूरज की रौशनी
खेतों की फसलें
और जंगल का गहरा हरापन है
मुझे ऐसे पंछी पसंद हैं।

मुझे वे सारे रंग पसंद हैं
जो उनकी आँखों में हैं
उनके सपनों में हैं
उनकी आँखों के सपनों में हैं

मुझे वे सारे स्वाद पसंद हैं
जिनके लिए वे दूर-दूर तक उड़ानें भरते हैं
एक बाग से दूसरे बाग तक
एक जंगल से दूसरे जंगल तक
स्वाद उनकी सहज इच्छाओं में बसे
खटलुस, मीठे, कर्छ, कसैले
मासूम और पगले
सारे के सारे स्वाद पसंद हैं

मुझे वे पेड़ पसंद हैं
जिन पर वे बसते हैं
और बसाते हैं
तिनकों के बसेरे
अजब-गजब की कलाकारी करते
हैरत में डालने वाले बसेरे
गोल, लम्बोतरे, सीधे, तिरछे
डालियों में फॅंसे और लटके
श्रम और कला के ताने बाने में
गुँथे-बिंधे घरौंदे

मुझे वे हरियाले पेड़ पसंद हैं
मुझे वे कलाकारी घरौंदे पसंद हैं।

मगर मुझे पिंजरों में बंद परिंदे बिलकुल पसंद नहीं
पिंजरे चाहे कितने भी सुन्दर क्यों न हों
लोहे, सोने, ताँबे या चाहे किसी और धातु के ही बने
बड़े से बड़े या छोटे से छोटे
मोटे तारों वाले या पतले
बड़े दरवाजों वाले या छोटे
मुझे पिंजरे बिल्कुल-बिल्कुल पसंद नहीं
मुझे पिंजरों में बंद परिंदे बिल्कुल पसंद नहीं

मगर वे कहते हैं
पंछी पिजरों में ही सुरक्षित हैं
और बाहर बहुत से खतरे हैं

वे बहेलियों के जाल में फॅंस सकते हैं
उन्हें गोली मार सकते हैं शिकारी
उनके साथ बलात्कार हो सकता है
उनकी गरदनें मरोड़ सकते हैं परकटवे

वैसे भी मौसम बहुत खराब है
लोगों की निगाहें खराब हैं
हवा खराब है, पानी खराब है
पता नहीं कौन सी हवा
उनके लिए जहर बन जाय
पता नहीं कौन सा पानी पीकर
वे तुरंत सुलंठ जाँय
पंख कड़े हो जाँय
मुँह खुला रह जाय
और ऑंखें फटी...

इसलिए वे कहते हैं इसीलिए
उन्हें पिंजरों में ही रहना चाहिए
बड़े से बड़े पिंजरे तो बने हैं उनके लिए
छोटे से छोटे और सुन्दर से सुन्दर
जिनमें वे रह सकते हैं सुरक्षित
मंदिरों-मस्जिदों में बना सकते हैं खोते
जहाँ शिकारी नहीं आते मुल्ला-साधुओं के सिवा

उन्हें रहना चाहिए
पुराने किलों, गुफाओं और गुहांध अंधेरों में
जहाँ  हवा और रौशनी भी नहीं पहॅुंचती
उन असूर्यमपश्या अंधेरों की संरक्षित जगहों पर
उन्हें कोई खतरा नहीं है
वे सुरक्षित रहेंगे और जीवित भी।

मगर मैं क्या करूँ
हम हवा के पखेरू हैं

हमें उड़ते हुए परिंदे ही पसंद हैं
खतरों के वावजूद
रौशनी स्वाद और उड़ान के लिए
हवा में पंख मारते परिंदे
किलकारी भरते
रंगों और चहचहों से
माहौल को खुशगवार करते

हम हवा के पखेरू हैं
यह हमारा पागलपन ही सही
और इसीलिए हम चाहते हैं कि
सारे शिकारियों को गोली मार दी जाय
सर कलम कर दिये जाँय सारे बहेलियों के
सारे बलात्कारियों को फाँसी पर लटका दिया जाय
सभी परकतरों को सूली पर चढ़ा दिया जाय

हमें उड़ते हुए पंछी पसंद हैं
हमें परवाज पसंद है
हमें स्वाद पसंद है
हमें अपने पेड़ और आसमान पसंद हैं

हमें पसंद है अपनी आजादी !

टिप्पणियाँ

बेहद सार्थक स्वर मुखरित करती कविता ...ऐसी ही आवाजों की मौजूदगी की वजह से इस समय और देश से अब भी आशाएं बधतीं हैं ..शुक्रिया असुविधा ..
Dinesh pareek ने कहा…
"रघुवंश मणि जी नमस्कार आपके ब्लॉग पर मैं पहली बार आया हूँ काश मैं पहले ही आ जाता
पर आपने जैसे अपने कविता मैं कहा ना काश
आपने अपनी कविता मैं इस देश की आजादी और इस आजादी के साथ हो रहे अन्याय को बखूबी अपने पेने शब्द जाल मैं पिरोया है इस कविता की शरुआत से लेकर अंत भी बखूबी अच्छा किया सच मैं आपकी लेखनी का तो मैं कायल हो गया
आप से आशा करता हूँ की आप एक बार मेरे ब्लॉग पर जरुर अपनी हजारी देंगे और
दिनेश पारीक
मेरी नई रचना फरियाद
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
Onkar ने कहा…
बहुत सार्थक रचना
पिंजरा दिखा उसे
लिख दिया पंछी
का हाल
दरवाजा खोलने
की कोशिश
कलम से की
बहुत खूबी से की !
बहुत ही अच्छी कविता । हाँ शिकारियों को मारने से भी ज्यादा जरूरी है पंछियों की आजादी को सुरक्षित व उडानों को निर्बाध बनाना ।
बेनामी ने कहा…
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