पवन करण की तीन कविताएँ
पवन करण हिंदी के सुपरिचित कवि हैं . ग्वालियर के एकदम आरम्भिक दिनों से उनसे गहरा नाता रहा है और कविता को लेकर एक लम्बी बहस भी. हम दोनों एक दूसरे को पढ़ते हैं, कई बार प्रसंशा करते हैं और कई बार लड़ते भी हैं. वह बड़े हैं तो डांट लेते हैं, लेकिन बहस ख़त्म नहीं करते. खैर, पवन भाई को अक्सर उनकी स्त्री-विषयक कविताओं के लिए जाना जाता है. मैंने भी उन कविताओं को केंद्र में रखकर एक लंबा लेख लिखा है. लेकिन जैसा कि मैंने उनके संकलन 'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' पर परिंदे पत्रिका में लिखी समीक्षा में कहा है कि मुझे उनकी इतर विषयों पर लिखी छोटी कवितायें हमेशा से बहुत मारक और मानीखेज लगती रही हैं. और उन्होंने ऐसी राजनीतिक स्वर की (वैसे स्त्रियों पर लिखी कवितायें भी राजनीतिक कवितायें हैं और यह मैंने एकाधिक बार कहा भी है) कवितायें लगातार लिखी भी हैं. अभी ये कवितायें समकालीन जनमत के ताज़ा अंक में आईं तो इन्हें पढ़कर हमारी बात हुई. मैंने उनसे इन्हें असुविधा के लिए भेजने का निवेदन किया तो उन्होंने लौटती डाक से अनुरोध स्वीकार करते हुए तीनों कवितायें भेज दीं. इन पर अलग से कुछ कहने की जगह मैं इन्हें गंभीरता से पढने भर का अनुरोध करूँगा.
कार्नेल कोपा का यह फोटोग्राफ इंटरनेट से साभार |
झाउछम्ब
एक
जिन्होंने मेरी ज़मीन अपने नाम
लिख ली वे मेरे दुश्मन हैं
जिन्होंने मुझे मेरे ही घर से
खदेड़ दिया मैं उन्हें नहीं छोड़ूगा
जिनकी वजह से मैं फिर रहा हूं
मारा-मारा मेरी लड़ाई उनसे है
जिनके कारण मैं दाने-दाने को
मोहताज हूं मैं उन्हें मार डालूंगा
मैं झारखंड उड़ीसा छत्तीसगढ़
मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल हूँ
दो
मेरी लड़ाई तुमसे नहीं है जिनसे है
वे मेरे सामने नहीं आते हैं
मुझसे लड़ने तुम्हें भेज देते हैं
तुम उन्हें बचाने मुझसे लड़ते हो
मैं खुद को बचाने तुमसे लड़ता हूं
उनको बचाने तुम तो
बस मुझसे लड़ते हो
क्या तुम जानते हो
खुद को बचाने के लिये
मैं किस-किस से लड़ता हूं
तुम मुझसे लड़कर मारे जा रहे हो
मैं तुमसे लड़कर मारा जा रहा हूं
आपस में हमारी लड़ाई नहीं कोई
मुझे अपने लिये लड़ना है
मुझे तुमसे भी लड़ना है!
उस पार
तुम कितने बड़े घर में रहते हो
तुम्हारे पास कितनी गाड़ियां हैं
तुम कितनी बिजली जलाते हो
पेट्रोल का कोई हिसाब ही नहीं
तुम्हारे घर कितने फल आते हैं
कितना खाना बरबाद करते हो
घर में नोट गिनने की मशीन है
ज़मीन जायदाद के कागज़ात हैं
सड़क के उस पार खड़े रहकर
घर की तरफ़ देखता हूं तुम्हारे
मेरा हाथ जेब में बीड़ी के साथ
पड़ी माचिस पर चला जाता है !
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टिप्पणियाँ
वे मेरे सामने नहीं आते हैं
मुझसे लड़ने तुम्हें भेज देते हैं
तुम उन्हें बचाने मुझसे लड़ते हो
मैं खुद को बचाने तुमसे लड़ता हूं
उनको बचाने तुम तो
बस मुझसे लड़ते हो
क्या तुम जानते हो
खुद को बचाने के लिये
मैं किस-किस से लड़ता हूं
तुम मुझसे लड़कर मारे जा रहे हो
मैं तुमसे लड़कर मारा जा रहा हूं
आपस में हमारी लड़ाई नहीं कोई
मुझे अपने लिये लड़ना है
मुझे तुमसे भी लड़ना है!'
बहुत ज़रूरी है इसे समझना ... महत्त्वपूर्ण कविता पवन करण की ... अशोक भाई, शुक्रिया तुम्हारा ...
वे मेरे सामने नहीं आते हैं
मुझसे लड़ने तुम्हें भेज देते हैं
तुम उन्हें बचाने मुझसे लड़ते हो
मैं खुद को बचाने तुमसे लड़ता हूं
उनको बचाने तुम तो
बस मुझसे लड़ते हो
क्या तुम जानते हो
खुद को बचाने के लिये
मैं किस-किस से लड़ता हूं
तुम मुझसे लड़कर मारे जा रहे हो
मैं तुमसे लड़कर मारा जा रहा हूं
आपस में हमारी लड़ाई नहीं कोई
मुझे अपने लिये लड़ना है
मुझे तुमसे भी लड़ना है!'
बहुत ज़रूरी है इसे समझना ... महत्त्वपूर्ण कविता पवन करण की ... अशोक भाई, शुक्रिया तुम्हारा ...
दिनांक 18/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
मैं खुद को बचाने तुमसे लड़ता हूं
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असह्य अकथ विडम्बना .
अच्छी कविताएं
मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल हूँ...शानदार