कृष्णकांत की कवितायें
कृष्णकांत की कवितायें आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. वह आन्दोलानधर्मी कवि हैं. गहरे गुस्से और झुंझलाहट से भरे हुए. कई बार जल्दबाजी में लगते हुए, लेकिन गौर से पढने पर पता चलता है कि अपनी विचार यात्रा को लेकर वह काफी सजग हैं. इसीलिए उनकी कवितायें अपने समय-समाज की एक गहरी पड़ताल करती हैं.
पाल नैश की पेंटिंग |
नारे
जिनके माथे पर चस्पा थे
देशभक्ति के पोस्टर
देश की सुरक्षा और संस्कृति
बचाने का पीटते रहे ढिंढोरा
वे चकलाघरों के अव्वल दलाल निकले
जमीन लूटी, आसमान लूटा
खेत लूटे, खलिहान लूटा
आंख में धूल झोंकी
सब के सब जनसेवक नटवरलाल निकले
जिनके नाम पर बने सत्ता के गलियारे
वे खाइयों में, खेतों में
नदियों में रेतों में
पाथर पहाड़ में
उगाते रहे रोटी
बचाते रहे सांसें
मरते रहे बुझाते रहे
सत्ता लोलुपों की प्यासें
उनके लिए लगाए गए
कोटि कोटि नारे
लाल किले का दिल पिघला
भाषणों में चिल्लाया
बेचारे—बेचारे
गरीबी हटाओ, गरीबी हटाओ
दिए गए नारे
बरसाए गए फूल सजाई गईं थालियां
मन मसोस गुदड़ी के लाल
सुनते रहे... सुनते रहे
अपने लिए अश्लील नारे
भद्दी गालियां
आरक्त मुस्कराते चेहरों का
यह संभ्रांत व्यापार
मरती रही जनता
लुटते रहे घरबार
कश्मीर घाटी की गुमनाम कब्रें
जिन कब्रों के बारे में कोई नहीं जानता
मैं जानता हूं कि उनकी आगोश में
सोए हैं मेरे निर्दोष बच्चे
इनके जिंदा दफन होने से लेकर
इनकी तफ्तीश की नूराकुश्ती तक का नाटक
गुजरा है मेरी आंखों के सामने
यह सब हुआ है
लोकतंत्र के नाम पर
हमने आंखे बिदोर बिदोर कर देखा
उन्हेंं घरों से खींच कर ले जाते हुए
जब वे जा निकल रहे थे स्कूल के लिए
फूल बागानों में फूल चुनते हुए
वादियों में कंचे खेलते हुए
मैं कातिलों को जानता हूं
उनके खून सने हाथ नाचते हैं मेरी आँखों के आगे
मैं नरसंहार के आयोजकों और
और लोकतंत्र के हत्यारों को भी जानता हूं
मैं स्तंब्ध बैठा हूं उन कब्रों के पास
और सुनता हूं उन बच्चों से
उनके कत्ल की दास्तान
उनके नरम गालों पर
देखता हूं सैनिकों के बूटों के निशान
मैं देखता हूं सपनों से भरी उनकी नन्हीं-नन्हीं आंखें
जो हिंदू-मुसलमान नहीं जानतीं
जो भारत-पाकिस्तान नहीं जानतीं
उनकी शफ्फाक रूहें गवाही देती हैं
उनके निर्दोष होने की
उनके माथे पर लिखें हैं
उनके हत्यारों के नाम
मेरे वे सारे बच्चे
उन कब्रों में जिंदा हैं अभी...
सुनो जहांपनाह
सुनो जहांपनाह!
अब हमने तोपों, बंदूकों और सैनिक बूटों से
डरना छोड़ दिया है
और हम निहत्थों की तनी हुई मुट्ठियों में
इतनी ताकत है
कि उलट हम उलट सकते हैं तुम्हारा सिंहासन
आओ या तो हाथ मिलाओ
या फिर जाओ, अपने लिए नई जनता चुनो
हम अपना रहनुमा
इस माटी से, इसी माटी के लिए पैदा कर लेंगे
फिर से
तुम अपने लिए नई धरती खोजो...
शहर
इतना कोलाहल है
कि यह शहर निगल सकता है
किसी की भी चीख
यहां कबूतरों के चुनने,
गौरैया के घोसले को
नहीं है कोई जगह
शिकारी बाजों से भर गया है
पूरा आसमान
छोटे छोटे बच्चों की आँखें
निकाल लिए जाने का खतरा प्रबल है
जो राहज़न हैं, वही रहबर हैं
राजदंड लुटेरों के हाथ में है
और राजा बंसी बजा रहा है
अपनी फुलवारी में
हम और तुम
नैतिक अनैतिक होने का फर्क
एकदम वैसा है
जैसे हमारे तुम्हारे बीच
मतभेद का एक पहाड़ खड़ा है
तुम हमें भद्दा कहो
असभ्य कहो
मूढ़-जाहिल-गंवार कहो
और दाहिनी हथेली के पाखंड को
बायीं हथेली के छूत से
एक गज दूर रखो
इससे मुतास्सिर हुए बगैर
मैं मानता हूं कि मैं गंवार हूं
क्योंकि अपनी गंदगी
दोनों हाथों से धो लेता हूं
तालाब की मिट्टी से सर धोता हूं
और गुस्सा आता है
तो गालियां भी बकता हूं
हर हाल में, तुम्हारे पाखंड से
बचे रहना चाहता हूं...
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संपर्क
कृष्णकांत
गली नम्बर- 3, पश्चिमी विनोद नगर,
नई दिल्ली-92
मो- 9718821664
टिप्पणियाँ
आओ या तो हाथ मिलाओ
या फिर जाओ, अपने लिए नई जनता चुनो
हम अपना रहनुमा
इस माटी से, इसी माटी के लिए पैदा कर लेंगे
फिर से
तुम अपने लिए नई धरती खोजो...
शुभकामना और बधाई !
मैं मायूस हुआ
कृष्ण कान्त एक विचार निकले ,
हमारे /आपके /हम सब के
यह निधि है हमारे समाज की हमें "कृष्ण कान्त" जी को सहेजना सीखना होगा!
"कृष्ण " जी की कवितायें हमें वैचारिक आकाश और यथार्थ के ठोस धरातल के बीच उठाती गिराती हैं / और मर्म हमेशा झंझावात से ही उपजा है!
कृष्ण कान्त जी को तथा उनकी लेखनी को नमन !
*amit anand
मैं मायूस हुआ
कृष्ण कान्त एक विचार निकले ,
हमारे /आपके /हम सब के
यह निधि है हमारे समाज की हमें "कृष्ण कान्त" जी को सहेजना सीखना होगा!
"कृष्ण " जी की कवितायें हमें वैचारिक आकाश और यथार्थ के ठोस धरातल के बीच उठाती गिराती हैं / और मर्म हमेशा झंझावात से ही उपजा है!
कृष्ण कान्त जी को तथा उनकी लेखनी को नमन !
*amit anand
विराम चिह्नों और व्याकरण संबंधी चीज़ों को भी ध्यान में रखें।